भाषा एवं साहित्य >> तीजा जगार तीजा जगारहरिहर वैष्णव
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वाचिक परम्परा में पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरित होते आ रहे लोक महाकाव्य ‘तीजा जगार’ को, नारी के द्वारा, नारी के लिए, नारी की महागाथा कहना अतिशयोक्ति न होगा। आदिवासी बहुल बस्तर अंचल शुरू से ही मातृ-शक्ति का उपासक रहा है। ‘तीजा जगार’ उसी मातृ-शक्ति की महागाथा है। इसमें नारी का मातृ-रूप ही मुखर है। नारी यहाँ तुलसी का बिरवा रोपती है, सरोवर और बावड़ी खुदवाती है, बाग़-बग़ीचे लगवाती है तो निष्प्रयोजन नहीं; वह इनके माध्यम से सम्पूर्ण मानवता, जीव-जन्तु और पेड़-पौधों यानि प्राणि-मात्र के लिए अपनी ममता का अक्षय कोष खुले हाथों लुटाती है।
वर्षों से पिछड़ा कहे जाने को अभिशप्त बस्तर अंचल के आदिवासियों की नैतिक और सांस्कृतिक समृद्धि का दस्तावेज़ है ‘तीजा जगार’। आदिवासियों की घोटुल जैसी पवित्र संस्था को विकृत रूप में पेश करनेवाले विदेशी ही नहीं, देशी नृतत्त्वशास्त्री, साहित्यकार, छायाकार, कलाकार आदि संस्कृति कर्मियों की दृष्टि अब तक अछूती ‘तीजा जगार’ महागाथा के माध्यम हरिहर वैष्णव ने बस्तर की समृद्ध संस्कृति को समग्रता में प्रस्तुत किया है।
बस्तर की लोक-संस्कृति और लोक-गाथा को एक नयी रोशनी में उद्घाटित करती उनकी यह शोधपूर्ण प्रस्तुति रचनात्मक अनुसन्धान के नये प्रतिमान भी स्थापित करती है।
– प्रो. धनंजय वर्मा
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