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आलोचना >> वीरेन्द्र आस्तिक - गीतधर्मिता और जीवन राग

वीरेन्द्र आस्तिक - गीतधर्मिता और जीवन राग

डॉ. रेशमी पाण्डा मुखर्जी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16828
आईएसबीएन :9781613017579

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वीरेनद्र आस्तिक के कृतित्व का विस्तृत विवेचन

वीरेन्द्र आस्तिक : जीवन-गीत का गायक

 

वीरेन्द्र आस्तिक जी को पढ़ना अर्थात अपने समाज और वक्त को पूरे मिज़ाज़ के साथ समझना। गीतों-नवगीतों, दोहों, गज़लों, कविताओं, मुक्त गीतों के विशाल साम्राज्य के सम्राट आस्तिक जी एक वरिष्ठ व लोकचर्चित साहित्यकार हैं। कई सम्मानों व पुरस्कारों से सुसज्जित आपका व्यक्तित्व अत्यन्त नम्र व स्नेहशील है। फोन पर वार्तालाप के दौरान आपने कभी अपने लेखन का प्रभुत्व स्थापित नहीं किया बल्कि साहित्यिक परिवेश के प्रति अपनी चिंता व दायित्व को साझा किया। आपने नई पीढ़ी को सदैव लेखन-क्षेत्र में प्रोत्साहित किया। आपके समग्र साहित्य पर पुस्तक-रचना के दौरान आपका शुभाशीष सदैव मेरे साथ रहा। आपसे परिचय करवाने के लिए मैं कानपुर के प्रख्यात गीतकार-कवि हरीलाल मिलन जी की आभारी हूँ।

आस्तिक जी के गीतों की कोमलता ही उनका श्रृंगार है। उनमें लयात्मकता व संगीतात्मकता का गंगा-जमुनी संगम है। आपके प्रेम गीतों में अनुराग व विरक्ति दोनों ही मिलते हैं। आपके शब्दों में-’मैं समग्रता को महत्व देता हूँ, क्योंकि समग्रता में एकांगिकता भी समाहित है। ऐसा तो नहीं है कि अब प्रेम-श्रृंगार के गीतों का समय नहीं रहा। पहले से गीतों के विषयों का विस्तार तो हुआ है। किन्तु यान्त्रिक स्टेटस और इसकी व्यस्तता में मानवीय संवेदना-भावना का क्षरण भी हुआ है। ऐसे में विदग्धता और मार्मिकता को अपनाकर भाषा ने आस्वादन के तरीके को बदल दिया है।’

जब आप हाइकु लिखते हैं तब आपकी सूक्ष्माभिव्यक्ति कमाल का प्रभाव छोड़ती है। आपके हाइकु पर्यावरण के प्रति आपकी चिंता को दर्ज करते हैं। आप मन की स्वच्छंदता की पैरवी करते हैं। आप अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति तथा किसी शिविर विशेष में दर्ज न होने पर गर्व अनुभव करते हैं। आपने अपने गीतों को डाकिया कहकर उनकी संप्रेषणीयता को उजागर किया है। आप आशावादी हैं और आशा के गीत गाना आपको भाता है। जब आप दोहे लिखते हैं तो उन दो पंक्तियाँ में गागर में सागर भर देते हैं। हिन्दी के प्रति आपका प्रेम आपके दोहों को सर्वप्रिय बना देता है। वर्तमान विश्व में हिन्दी के बढ़ते प्रभाव व प्रचार को आप स्पृहणीय मानते हैं। पर हिन्दी के प्रति तिरस्कार से भरे मानस से आप क्षुब्ध हैं। आपके समीक्षकों व आलोचकों ने आपके साहित्यिक अवदान की मन खोलकर तारीफ की है। आपके सुनियोजित रचना विधान व अक्लांत श्रम के सभी कायल रहे। श्री वीरेन्द्र मिश्र ’आनन्द तेरी हार है’ (1987) संकलन के लिए लिखते हैं- ’आनन्द तेरी हार है’ की अनुभूतियाँ कवि-मन की ऐसी संपादित स्थितियाँ हैं जो उसने भीतरी-बाहरी यात्राओं में अर्जित की है। उनमें सहजता है। सांगीतिक लय से ओतप्रोत ये गीत आत्मपरकता की सीमाओं में बन्द नहीं है। संघर्ष के कई आयाम जिस प्रकार इन रचनाओं में अभिव्यक्त हुए हैं, लगता है कि कवि अपने अनुकूल भाषा की तलाश में है। एक छटपटाहट सी है उसमें। यह तलाश और यह आकुलता ही मुख्य वस्तु है।’ वीरेन्द्र आस्तिक का पाठक उनके साहित्य में डूबते हुए आत्मीय भाव से सराबोर हो जाता है। आप बहुत थोड़े शब्दों में अत्यन्त गहरी बात कहने की क्षमता रखते हैं। एक तरफ आप तर्कसंगत विचार पद्धति का अनुगमन करते है। तो दूसरी तरफ मसृण उद्भावनाएँ आपकी काव्याभिव्यक्ति का साथ निभाती हैं। प्रतीकात्मक भंगिमा की अभिव्यंजना के दौरान आप अत्यन्त सतर्क रहते हैं। वायुसेना में रहते हुए आपने अनुशासन व धैर्य का पाठ पढ़ा जिसके फलस्वरूप आपके नवगीतों में इन दुरूह भावों का समावेश मिलता है। आपके श्रोता आपकी मंचीय प्रस्तुतियों के दीवाने हैं। मंच पर आपके मधुर कंठ ने काफी प्रशंसा बटोरी है। आपके गीतों में कसाव अतुलनीय है। आप नवगीत रचते समय उन विपरीत शक्तियों से प्रश्न करते हैं जो नवगीत के अस्तित्व को संकट में डालने पर उतारू हैं। आपके लिए नवगीत साहित्य का एक प्रतिष्ठित व सर्वप्रिय विधा है जिससे जुड़े रहने की सुखद अनुभूति ने आपके मन को सदा हरा-भरा बनाए रखा।

आप जानते हैं कि गीत की अनंत सम्भावनाएँ हैं और गीत के माध्यम से दूर-दूर तक पाठक के अन्तर्मन तक पहुँचा जा सकता है। भौतिकता और आत्मीयता के टकराव को आपने भली-भाँति समझा और आत्मीयता को वरीयता दी। बचपन से ही संगीत के प्रति गहन लगाव के कारण आपने अपने गीतों में लयात्मकता पर विशेष बल दिया। लोक गीतों के प्रति आपका प्रेम बना रहा जिसका ज़िक्र आपने अपने एक साक्षात्कार में किया है।

आपके लिए कविता व गीत की रचना दायित्व-बोध से निसृत कृति-कर्म है। इसलिए आप लिखते हैं -

’शब्द ने कहा-
तुम
मुझे जैसा बोओगे
मैं
वैसा ही उगूंगा
तुम मुझसे
अपने संस्कार धोओगे
तो मेरा अमरत्व पाओगे‘
(‘आनन्द! तेरी हार है’ संकलन से)

मैं अपनी यह पुस्तक सुधी पाठकगण के हाथों सौंपते हुए आनन्दानुभूति से आपूरित हूँ। पुस्तक सृजन में मेरे परिवार का साथ सदैव बना रहा। मेरे आदरणीय माता-पिता व पूजनीय सास का आशीर्वाद तथा मेरे जीवन-साथी डॉ. सौम्येंद्र कुमार पाण्डा व पुत्र सिद्धांत का साथ उत्साह-वर्धन के माध्यम व प्रेरणा-स्रोत बने रहे।

 

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