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उपन्यास >> बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाब बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाबप्रदीप श्रीवास्तव
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प्रदीप जी का नवीन उपन्यास
अम्मी दिनभर की थकी-मांदी सो जाती थीं। उनके कमरे के बाद आँगन फिर मेरा कमरा था। चिकनकारी के लिए एक छोटी सी लाइट थी, जिसे पुराना टेबल लैंप कह सकते थे। उसी से काम चलाती थी। उससे लाइट सीधे वहीं पर पड़ती थी जहाँ मुझे चाहिए होती थी। मेरा ध्यान हमेशा इस पर रहता था कि ज्यादा लाइट के चक्कर में बिजली का बिल न बढ़े।
मैं यह बात खुल कर कहती हूँ कि यह दरवाजा मुझे बड़ी ही अजीब स्थितियों में ले जाने, कुछ मामलों में मेरी सोच को बदलने का कारण बना। और आपको सच बताऊं कि आखिरी साँस तक यह दरवाजा मेरे ज़ेहन से निकलेगा नहीं।'
'क्यों, ऐसा क्या था उस दरवाजे में जो वह आपके पूरे जीवन में साथ बना रहेगा। आखिर एक दरवाजा....।'
मैं बहुत तल्लीनता के साथ बड़ी देर से बेनज़ीर को सुन रहा था। दरवाजे का ऐसा ज़िक्र सुनकर मैं अचानक ही बोल पड़ा। तब वह कुछ देर शांत रहीं। फिर गौर से मुझे देखकर बोलीं, 'समझ नहीं पा रही हूँ कि बोलूं कि नहीं।'
'जब बात जुबां पर आ ही गई है तो बता ही दीजिए, क्योंकि यह जब इतनी इंपोर्टेंट है कि आपके जीवन भर साथ रहेगी तो इसे कैसे छोड़ सकते हैं।'
'सही कह रहे हैं। असल में एक रात मैं काम में जुटी हुई थी, कि तभी कुछ अजीब सी आवाज़ें, दबी-दबी हंसी सुनाई दी, जो बड़ी उत्तेजक थीं। मैं बार-बार सुन रही थी दरवाजे के उस तरफ की आवाज़ें। आखिर मैं दबे पांव दरवाजे से लगे रखे बक्से पर बैठ गई। और जो लैंप था उसे एकदम जमीन की तरफ कर दिया। दरवाजे पर मोटा सा जो पर्दा डाला गया था कि, लाइट इधर-उधर ना आए-जाए उसे हल्का सा हटाकर दरवाजे की झिरी से उधर देखा तो देखती ही रह गई।'
'क्यों? ऐसा क्या था उस तरफ।'
'मैं पूरे दावे के साथ कह रही हूँ कि, उस तरफ जो था, उस पर नजर पड़ने के बाद कोई देखे बिना हट ही नहीं सकता था।'
'आप यह भी कहिए कि, इतना सुनने के बाद कोई पूछे-जाने बिना रह भी नहीं सकता। तो बताइए क्या था उस तरफ।'
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