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चन्द्रेश गुप्त का रचना संसार

राजेन्द्र तिवारी

विनोद श्रीवास्तव

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2024
पृष्ठ :416
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16997
आईएसबीएन :9781613017357

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विलक्षण साहित्यकार चन्द्रेश गुप्त का समग्र रटना संसार

बहुआयामी व्यक्तित्व

- डॉ. सुरेश अवस्थी
कानपुर

 

गलियों में बँधे-बँधे से दिन,
सड़कों पर टंगी हुई रातें।
यह कौन-सा शहर है?
****
मछुआ रे
यहाँ नहीं आना
नदी रेत हुई है।
***
ओ रे तुलसी बिरवे!
स्नेह-कलश से भरे-भरे थे
कहाँ गये दिन वे?

गीतों के उक्त आमुख कीर्तिशेष गीतकार रमेश गुप्त 'चन्द्रेश' जी के गीत-संसार की व्यापकता की बानगी भर हैं। चन्द्रेश जी उर्फ़ हमारी पीढ़ी के रचनाकारों के ‘चन्द्रेश दादा’ के गीतों को पढ़ना-सुनना जीवन के विविध आयामों से जुड़ी, सँगतियों-विसंगतियों, अनुभवों व अनुभूतियों से सहज साक्षात्कार जैसा होना है। उनके एक चर्चित गीत का आमुख देखें-

खंडित-सी उस गंध-कथा का
रह-रह कर दुखना।
बंद पींजरे में हुड़का है
फिर मन का सुगना!

सच है कि मन के दुखने से मन का सुगना कहीं न कहीं हुड़कता ही है और उसी हुड़कन से कविता फूटती है। ‘क्रौंच-वध' की घटना से व्यथित आदि कवि ऋषि बाल्मीकि के मुँह से स्वतः स्फूर्त कविता का पहला अनुष्टुप इसका प्रमाण है। चन्द्रेश जी ने अपने 'मछुआ रे गीत नहीं गाना नदी रेत हुई है' गीत में इसी पीड़ा को पूरी संवेदना के साथ स्पर्श किया है।

चन्द्रेश जी का व्यक्तित्व व कृतित्व बहुआयामी था। जैसे काँच के प्रिज्म को हम जिस कोण या जिस भी सतह से देखते हैं, उसमें इंद्रधनुषी चमक दिखती है वैसे ही चन्द्रेश जी व्यक्तित्व व कृतित्व के हर आयाम में एक विशेष चमक दिखती थी।

हमारी सनातन पुष्ट अवधारणा है कि रुद्राक्ष किसी भी व्यक्ति के लिए सर्वथा कल्याणकारी होता है और यदि रुद्राक्ष पंचमुखी हो तो उसकी कल्याणकारी क्षमता और बढ़ जाती है। चन्द्रेश जी ऐसे ही शिक्षा, साहित्य, संस्कृति, पत्रकारिता और प्रतिभा संरक्षण के पंचमुखी रुद्राक्ष थे जिनका सानिध्य सिर्फ और सिर्फ कल्याणकारी होता था उनका सान्निध्य व्यक्ति को न केवल सही दिशा दिखाता था बल्कि जीवन जीने की कला भी सिखाता था। मेरी जीवन यात्रा में ऐसे जो कुछ लोग मिले और जिनका आशीर्वाद फलीभूत हुआ उनमें से एक दादा चन्देश जी हमेशा स्मृतियों में रहते हैं।

‘साफ कहना, सुखी रहना’के मिथक को सैद्धांतिक रूप में जीने वाले चन्द्रेश जी शहर के दानाखोरी मोहल्ले में रहते थे। मोहल्ले का नाम आते ही वह ठसक के साथ बोलते, ‘भाई, मैं तो न 'हरामखोरी' के साथ हूँ और न 'नशाखोरी' के साथ, मैं तो 'दानाखोरी' के साथ हूँ बस। अब दानाखोरी भी न करूँ तो ज़िन्दगी कैसे चलेगी।' इतना कहकर वह जोरदार ठहाका लगाते तो वातावरण उत्फुल्ल हो जाता।

इंटरमीडिएट कॉलेज में प्राध्यापक होने के अलावा ‘दैनिक जागरण’ में न्यूज़ एडिटर यानी कि संवाददाताओं की लिखी खबरों का सम्पादन करने की जिम्मेदारी चन्द्रेश दादा की थी। मैं शिक्षा की खबरें लिखता थ। वह शिक्षा से गहरे जुड़े थे इसलिए उनका शिक्षा के क्षेत्र का विषय ज्ञान मेरी लिखी खबरों को धार देने में बहुत ही अहम भूमिका निभाता था। कई बार उनके सजग सम्पादन से वह खबर इतनी मारक व पुष्ट हो जाती थी कि संबंधित संस्थान में मुझे शाबाशी औरअच्छी चर्चा मिलती तो मैं शाम को कार्यालय में इसकी चर्चा जब चन्द्रेश दादा से करता तो वह मुस्कुराते हुए कहते, भाई मैंने ऐसा कोई कमाल नहीं किया है। खबर तो तुम ही निकाल कर लाए थे। मैं तो सिर्फ एक रसोईया हूँ जो खबर को पन्ने पर सलीके के साथ परोसने की कोशिश करता हूँ।

दादा चन्द्रेश जी व्यस्तता के चलते कवि सम्मेलन और गोष्ठियों में कम जा पाते, लेकिन जहाँ कहीं भी रहते उनका रंग बिल्कुल अलग दिखता था। उनके कुछ गीत ' मछुआ रे ! और कहीं जाना, नदी रेत हुई है।', 'गलियों में बँधे बँधे से दिन, सड़कों पर टँगी हुई रातें, यह कौन सा शहर है।' तथा 'मेज पर टिकी हुई कोहिनियाँ, टाइप पर सधी हुई उँगलियाँ, संदर्भों पर खींचतीं विराम।‘ और विशेष चर्चित गीत 'टाँको मत जूड़े में फूल प्रिया प्यार के, बीतेंगे दिन अपने कर्ज के, उधार के।' श्रोताओं की विशेष माँग में रहते थे। मुझे याद है, एक दिन दादा चन्द्रेश जी किसी से फोन पर कुछ आर्थिक संकट में होने की चर्चा कर रहे थे। मैं उन्हीं दिनों आनन्दपुरी सिटीजन फोरम का एक कवि सम्मेलन आयोजित करने जा रहा था। मैंने उन्हें बिना बताए उस कवि सम्मेलन में उनका सम्मान रखा। सारस्वत सम्मान में उन्हें एक राशि भी भेंट की गई। उन्होंने जब उस राशि को गिना तो मुस्कुराए और प्रसन्न होकर गुनगुनाने लगे, 'बिन बादल बरसात हुई है, और हसीं यह रात हुई है। हा हा हा मजा आ गया।' उन्होंने यह पंक्तियाँ कहकर वह सब कुछ कह दिया जो उनके भीतर मेरे प्रति प्रेम और आशीर्वाद के रूप में उमड़ रहा था।

दादा चन्द्रेश जी का हस्तलेख इतना सुन्दर था कि कोई भी आलेख टाइप कराने के बजाय यदि वह अपने हस्तलेख में लिख देते तो पढ़ने वाले को न केवल खुशी होती बल्कि मोती से उनके अक्षरों को देखकर आनन्द की अनुभूति होती। 1990 मेरा पहला कविता संग्रह 'आँधी बरगद और लोग' का लोकार्पण तत्कालीन राज्यपाल श्री वी. सत्यनारायण रेड्डी जी ने किया था तब चन्द्रेश जी ने पुस्तक पढ़कर मेरे व्यक्तित्व व कविता संग्रह पर एक आलेख लिखा था जो एक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। वह आलेख उनके हस्तलेख में आज भी मेरे पास सुरक्षित है। और जब कभी मैं उसे पढ़ता हूँ तो लगता है कि जिस 'राजपथ' पर मैं आज दौड़ रहा हूँ, वहाँ तक पहुँचाने वाली विशेष गलियों की खोज मेरे लिए जिन व्यक्तित्वों ने की थी उनमे एक अभिनन्दनीय व्यक्तित्व दादा चन्द्रेश जी भी हैं। उन्होंने आलेख में संग्रह की कविताओं में निहित कुछ ऐसे आयाम भी खोजे थे जो अनजाने ही कविताओं में आए थे।

मैं आभारी हूँ कि उनकी संगति से मुझे पत्रकारिता, शिक्षा, साहित्य और सामाजिक चेतना के क्षेत्र में जो मार्गदर्शन मिला वह मेरे लिए बहुत ही लाभकारी और यात्रा को सुगम और शुभम बनाने वाला साबित हुआ।

उनकी स्मृतियों को विनम्र प्रणाम करते हुए अंत में इतना ही कहूँगा कि

जैसे थे वैसे दिखे, पहने नहीं नकाब।
काँटों के भी घर मिले, बनकर खिले गुलाब।

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