नई पुस्तकें >> जलाक जलाकसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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सुदर्शन प्रियदर्शिनी के उपन्यास का द्वितीय संस्करण
मैं जिस पिता को माँ के सामने हथियार डालने वाले बन्धक के रूप में कोसती रही- उसी पिता के बारे में सोचती हूँ कि परिवार की जड़ को हिला न सकना कायरता नहीं थी... धर्म था। मेरे पिता ने जो धर्म निभाया था... वही धर्म आज मेरे लिए पश्चाताप का अग्निकुण्ड बन गया है ।
कौन सा पड़ाव है जहाँ मैं उतरकर अपनी मानसिक पीड़ा को राहत दे सकती हूँ। दीदी शोभना ! यही कहीं थीं... बंगलौर में... मैसूर के कहीं आसपास.... और बड़ी दीदी बड़ौदा में... दोनो अपनी नौकरी के चक्कर में कहाँ-कहाँ घूमती रही हैं... मैं तो सब को लांघ आई हूँ। कहीं पैर उठाने का साहस नहीं हुआ... बड़ौदा और नागपुर के प्लेटफार्मों पर घूमते अजनबी चेहरों में यूँ लगता रहा ... कहीं कोई कहेगा... अरे ये तो अपनी मीनल है... मीनू और बाँहें फैल जायेंगी... लेकिन... कहीं कोई बाँहें नहीं फैलीं... केवल हॉकरों की आवाजों के बीच मेरे अन्दर का सैलाब ही फैलता रहा।
अपने देश के एक कोने से दूसरे कोने तक कब से घूम रही हूँ... कहीं एक भी चेहरा नहीं उठा मेरी ओर। कहीं एक भी बाँह नहीं फैली... अब मैं अपने बचपन की जिद की बलैय्या लूँ या अपने सपनों की आरती उतारूँ... उम्र का वह पड़ाव है अब कि आरती ही उतार सकती हूँ।
हवाई जहाज उड़ रहा है- कुवैत और आबूधाबी पर से ऊपर उठकर स्विट्जरलैण्ड की हरीतिमा पर से गुजर रहा है। कैसी मोहक हरीतिमा है। सभी ठिठुरने लगे हैं। होस्टेस एक्स्ट्रा कम्बल दे गई है। लोग उठकर खिड़कियों से स्विट्जरलैण्ड की सुन्दरता को पी रहे हैं। हम ने भी खिड़कियों पर कब्जा कर लिया है। छोटा भैय्या उछल रहा है खिड़की तक पहुँचने के लिए... लेकिन मैं खिड़की पर जमी हुई हूँ... अविनाश को खिड़की तक आने नहीं दे रही हूँ। विदेश जाने की ऊँचाई और भी उठती जा रही है... मेरे अन्दर। कोई बुत बड़े पहाड़ सा उठ रहा है... जो क्षण-क्षण ऊँचा होता जा रहा है... दूसरों से अलग... पड़ोस के हजीत और उषी का ख्याल आता है। वे नीचे जमीन पर रेंग रहे हैं। बहुत छोटे हो गए हैं... खेल रहे हैं वही एडीटप्पा, गीटे और मचा रहे हैं बरामदे में धमाचौकड़ी। अरुण ने कैसे सबको नीचे लगा रखा था... बड़ा ऊँचा-ऊँचा होकर चलता था सिर्फ इस बात के लिए कि उसके पिता विदेश में हैं... विदेश में भी जाम्बिया में। छिः वह भी कहने लायक विदेश है। और यहाँ हम स्विट्जरलैण्ड के ऊपर से उड़ रहे हैं। मैं मन ही मन बड़ी खुश हूँ..। सोचती हूँ जिस दिन वापस जाऊँगी, उसे पूछूँगी- स्विट्जरलैण्ड देखा है...?
उसकी ऊँची-ऊँची हरियाली से भरी घाटियाँ देखी हैं? और फिर अभी तो अमेरिका.... की भव्यता... अलग होगी।
खिड़की से मुँह हटाकर मैंने पिता की ओर कृतज्ञ नजरों से देखा था। लगा कितना ऊँचा कर दिया है हमारा अहम् हमारे पिता ने। कितना ऊँचा उठा दिया था उन्होंने हमें... कहीं बचपन के अल्हड़-भेजे में ये बातें किसी रूप में उठी थी।
अब अरुण की बोलती बन्द होगी- बड़ी हेकड़ी मारता था... मैंने खिड़की से हटते हुए सबकी ओर देखते हुए कहा।
मेरी बात पर शोभना - मुस्कुरा भर दी और देवला वही बूढ़ी-नानियों जैसी तटस्थ गम्भीरता ओढ़े रही... |
पिता ने मेरी ओर घूर कर देखा - माँ की नज़र में भी घुड़की थी। माँ ने कभी पन्सद नहीं किया- मर्यादा से बाहर ऊँची बात करना। माँ का सदैव यही कहना रहा है जितना फल लगता है पेड़, उतना ही झुकता है।
मैं चुप हो गई थी।
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