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नये भारत की दीमक लगी शहतीरें

परकाला प्रभाकर

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2024
पृष्ठ :248
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 17001
आईएसबीएन :9789360868581

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यह हमारे समय पर की गयी टिप्पणी है कि जो लोग सत्ता के क़रीब हैं, वे भी सत्य बोलने से डरने लगे हैं… सत्ता के गलियारों में पैठे लोगों की आलोचना के प्रति बढ़ती असहिष्णुता के बावजूद, प्रभाकर सत्ता को आईना दिखाते हैं। यह हमारे संविधान में निहित मूल्यों के बचाव के प्रति उनकी आस्था का गवाह है।

— संजय बारू, द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर के लेखक

भारत को और ज़्यादा परकालाओं की ज़रूरत है, लेकिन ऐसा होना बहुत कठिन है। उनके नज़रिये से सहमत होना अपने आप में कोई ख़ास बात नहीं है। ख़ास बात यह है कि यथास्थिति को चुनौती देने के उनके (और दूसरों के भी) अधिकार को स्वीकार किया जाए।

— शोभा डे, द वीक

सुस्पष्ट और सुबोध शैली में लिखे गए इन आलेखों के विषय भी व्यापक हैं—भाजपा की जनसंख्या-राजनीति से लेकर हिजाब बनाम भगवा स्कार्फ़ तक और कृषि क़ानूनों से लेकर लखीमपुर खीरी तक… यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं कि यह किताब उन सबको पढ़नी चाहिए जिनमें सत्ता के सामने सच कहने का साहस है।

— अविजित पाठक, द ट्रिब्यून

इस किताब में प्रभाकर ने जिन विषयों को लिखने के लिए चुना अनूठापन उनमें नहीं है… अनूठापन आँकड़ों और सांख्यिकी पर उनकी पकड़ में है। …उससे भी अहम है आँकड़ों की उनकी व्याख्या जिसे वे हिन्दुत्व की बड़ी परियोजना की रौशनी में करते हैं जिसमें उनका अनुभव दिखाई देता है।

— सफ़वत ज़रगर, स्क्रॉल.इन

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