सामाजिक >> समर शेष है समर शेष हैविवेकी राय
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प्रस्तुत है समर शेष है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मुश्किल यह है कि गांव में पुराने खयाल का जो आम चेहरा है उसका स्वभाव है
कि भीतर ग़रीबी की आग जल रही हो तब भी ऊपर से हंसता रहेगा। किंतु नये
ज़माने का चेहरा है कि सुख-सुविधा और नये धन की खुशहाली भीतर छिपाकर बाहर
से रोता फिरेगा—‘सरकार यह नहीं करती, वह नहीं करती।
हम तो मर गये, उजड़ गये।’
एक ओर हिन्दुस्तान में गगनानन्द और उसके महागुरु शून्यानन्द जैसे धर्म गुरुओं और स्वयंभू भगवानों के पीछे विराट पूंजी लगी है। नाना प्रकार की चकाचौंध और उच्चाटन के सहारे ये लोग बुद्धिजीवियों को भरमाने में लगे हैं। दूसरी ओर विज्ञान के द्वारा ईश्वर को धकिया कर व आधुनिक जीवन के मुहावरों को विचारों में ढालकर वैज्ञानिक पद्धति से नपुंसक बनाने का कारोबार चलने लगा है।
सुराज उन बाधाओं को हाटाना चाहता है जो उसे अपनी जनता से नहीं मिलने देतीं। वह हुमाच भर-भर कर अपनी अन्नदायिनी ग्राम्य देवी के पास जाना चाहता है; लेकिन क्या स्टेशन से आगे कहीं बढ़ पाता है ? वह निराश होकर लौट आता है। कुछ दिन बाद फिर आशा जगती है शायद अब सड़क बन गई हो। मगर अफसोस ! सपना, सपना रह जाता है। बिना सड़क के जनता तक जाने का सवाल ही नहीं।....क्या जनता ही अब हिम्मत कर सुराज तक पहुंचेगी ?
बकबक बोलूंगा तो क्रांति कैसे होगी ?...भाषण, अख़बार, रेडियो दूरदर्शन, प्रचार, पार्टी, प्रस्ताव, तंत्र और नाना प्रकार की आधुनिक समझदारियों ने देश को नरक बना दिया है। नरक आवांछित है, मगर हम ढो रहे हैं। यह असह्य है पर हम सह रहे हैं ? गुरुदेव ! आप क्या सोच रहे हैं ?
एक ओर हिन्दुस्तान में गगनानन्द और उसके महागुरु शून्यानन्द जैसे धर्म गुरुओं और स्वयंभू भगवानों के पीछे विराट पूंजी लगी है। नाना प्रकार की चकाचौंध और उच्चाटन के सहारे ये लोग बुद्धिजीवियों को भरमाने में लगे हैं। दूसरी ओर विज्ञान के द्वारा ईश्वर को धकिया कर व आधुनिक जीवन के मुहावरों को विचारों में ढालकर वैज्ञानिक पद्धति से नपुंसक बनाने का कारोबार चलने लगा है।
सुराज उन बाधाओं को हाटाना चाहता है जो उसे अपनी जनता से नहीं मिलने देतीं। वह हुमाच भर-भर कर अपनी अन्नदायिनी ग्राम्य देवी के पास जाना चाहता है; लेकिन क्या स्टेशन से आगे कहीं बढ़ पाता है ? वह निराश होकर लौट आता है। कुछ दिन बाद फिर आशा जगती है शायद अब सड़क बन गई हो। मगर अफसोस ! सपना, सपना रह जाता है। बिना सड़क के जनता तक जाने का सवाल ही नहीं।....क्या जनता ही अब हिम्मत कर सुराज तक पहुंचेगी ?
बकबक बोलूंगा तो क्रांति कैसे होगी ?...भाषण, अख़बार, रेडियो दूरदर्शन, प्रचार, पार्टी, प्रस्ताव, तंत्र और नाना प्रकार की आधुनिक समझदारियों ने देश को नरक बना दिया है। नरक आवांछित है, मगर हम ढो रहे हैं। यह असह्य है पर हम सह रहे हैं ? गुरुदेव ! आप क्या सोच रहे हैं ?
इसी पुस्तक से
भूमिका
प्रियवर,
आपका नया उपन्यास ‘सोनामाटी’ एक बैठक में पढ़ गया। एक मास्टर को आपने अकेले जूझते और समझौता करते छोड़ दिया है। यही गाँव के बुद्धिजीवी कि नियति है। गाँव के रावण का अंकन बहुत ही सशक्त है। लगता है, राम कहीं हिरा गये हैं। कुछ वानर हैं, कुछ छेड़े रहते हैं और रावण से ज़्यादे प्रतापी, ज्यादे ज़माने की नब्ज पहचानने वाला तो मेघनाद है। सबसे मर्मस्पर्शी उस नारी का अंकन है जो एक बूढ़े के साथ जुड़ती है, स्वाभिमान की रक्षा के लिए और सारी लालसायें मसलकर रख देती है। उसके अंकन में अत्यन्त आधुनिक संवेदना का स्पर्श मिलता है। कहीं-न-कहीं विस्तार से इसकी चर्चा करना चाहता हूँ। ‘लोक-ऋण’ से यह ‘सोनामाटी’ अधिक छूता है। आप मेरी हार्दिक बाधाईं लें।
सस्नेह
आपका नया उपन्यास ‘सोनामाटी’ एक बैठक में पढ़ गया। एक मास्टर को आपने अकेले जूझते और समझौता करते छोड़ दिया है। यही गाँव के बुद्धिजीवी कि नियति है। गाँव के रावण का अंकन बहुत ही सशक्त है। लगता है, राम कहीं हिरा गये हैं। कुछ वानर हैं, कुछ छेड़े रहते हैं और रावण से ज़्यादे प्रतापी, ज्यादे ज़माने की नब्ज पहचानने वाला तो मेघनाद है। सबसे मर्मस्पर्शी उस नारी का अंकन है जो एक बूढ़े के साथ जुड़ती है, स्वाभिमान की रक्षा के लिए और सारी लालसायें मसलकर रख देती है। उसके अंकन में अत्यन्त आधुनिक संवेदना का स्पर्श मिलता है। कहीं-न-कहीं विस्तार से इसकी चर्चा करना चाहता हूँ। ‘लोक-ऋण’ से यह ‘सोनामाटी’ अधिक छूता है। आप मेरी हार्दिक बाधाईं लें।
सस्नेह
विद्यानिवास
अब लगता है पत्र में अनजाने मेरे नये उपन्यास के बीज की ओर संकेत हो गया।
पत्र का एक वाक्य ‘राम हिरा गये हैं !’ कुछ ऐसा ही मार्मिक
है। ‘राम की हिरा जाना’ चिरअभिलषित रामराज का खो जाना और
गाँवों के देश में उगते सुराज के प्रभात की सुआशाओं का धीरे-धीरे निशाचरी
माया में डूब जाना है।
‘सोनामाटी’ के बाद जब इस नये उपन्यास की परिकल्पना उक्त के इर्द-गिर्द उठान ले रही थी। तब इस प्रक्रिया में ‘बबुल’ ‘पुरुष पुराण’ लोक ऋण’ और सोनामाटी का उपन्यासकार सक्रिय था। इसमें ‘श्वेतपत्र’ का वह रचनाकार जगा था जिसने स्वतंत्रतापूर्वक गहरी सुआशाओं में किसी विदेशी विराज हो हटाकर रामराज, सुराज और जनता के लिए ग्रामभूमि पर लड़ी जाने वाली अपनी कठिन लड़ाइयों का ऐतिहासिक दस्तावेज इस उपन्यास के रूप में प्रस्तुत किया।
ढाँचे के भीतर बारम्बार चार बिन्दु उभरकर सामने आ जातेः रामराज, सुराज, विराज और जनता।
लगता, रामराज अन्ततः देश को नहीं मिला। अब तो उसकी चर्चा भी बेकार हो गयी। सुराज। सुराज अपने जनपदों में उतरते-उतरते बुझ गया। दिल्ली से चला सुराज अंग्रेजों के बनाये स्टेशन से आगे कहां बढ़ सका ? गाँव-गाँव से सड़क का नारा खोखला साबित हो गया। हतप्रद सुराज अपनी ही आत्मा जैसी उस अनन्य प्रेमिका ग्रामवासिनी जनता से नहीं मिल सका जो भग्नाश, उपेक्षित, कुंठित और रुग्ण हो अदेख हो गयी।
फिर विराज के उत्कर्ष वाले दौर में क्या हुआ ? और फिर आगे क्या-क्या होता गया ?
कल्पना एक विशाल रूप लेती गयी और मुझे खुशी है कि चार वर्षों के संघर्ष के बाद वह एक कृति के रूप में आपके सामने है।
‘सोनामाटी’ के सांस्कृतिक रस के स्वाद में डूबे अपने विशाल पाठक समुदाय को, जिनके प्रति मैं बहुत आभारी हूँ, मेरी प्रस्तुत कृति ‘समर शेष है’ अपनी राज-नीतिस्पर्शी प्रतीकात्मकता के भीतर युगीन के संदर्भ में आश्वस्त कर सकेगी, ऐसी आशा करता हूँ और साथ ही विश्वास यह है कि उपन्यास की प्रतीकात्मकता आस्वादन में कहीं आड़े नहीं आयेगी।
रामराज के लक्ष्य को प्राप्त करने में राजनीतिक आसमान से अधिक बाधा अपनी सामाजिक ज़मीन से उत्पन्न होती प्रतीत होती है। यह कैसी विडम्बना है कि आज हमारे देश का औसत सामान्य बुद्धिजीवी अपनी सारी शक्ति झोंक लड़की की शादी जैसी समस्याओं से लड़ता रहे और लड़-लड़कर टूटता रहे।
-और लड़ाइयाँ सारी सड़क पर उतर आवें ! प्लास्टिक की सफेद सड़के सपने में जनता के सिर पर से गुजरती रहें। गांधी आश्रम से फिंके देश की आँखें खुले किसी रसगुल्ला आश्रम में !
खैर, साक्षी पुल को लाँघ गया।
अब बारी आभार की। मेरे अभिन्न मित्र डॉ० अनिलकुमार आंजनेय ने बहुत श्रमपूर्वक इस उपन्यास की पांडुलिपि को पढ़कर तथा महत्त्वपूर्ण सुझाव देकर उसे अन्तिम रूप देने में भारी सहयोग किया है। मैं उनके प्रति हार्दिक अभार व्यक्त करता हूँ।
मैं सबसे अधिक आभारी हूँ अपने पाठकों और समीक्षकों का जिनके स्नेह ने मुझ अकिंचन से एक और काम करा लिया। आशा है वह स्नेह मुझे बराबर मिलता रहेगा।
‘सोनामाटी’ के बाद जब इस नये उपन्यास की परिकल्पना उक्त के इर्द-गिर्द उठान ले रही थी। तब इस प्रक्रिया में ‘बबुल’ ‘पुरुष पुराण’ लोक ऋण’ और सोनामाटी का उपन्यासकार सक्रिय था। इसमें ‘श्वेतपत्र’ का वह रचनाकार जगा था जिसने स्वतंत्रतापूर्वक गहरी सुआशाओं में किसी विदेशी विराज हो हटाकर रामराज, सुराज और जनता के लिए ग्रामभूमि पर लड़ी जाने वाली अपनी कठिन लड़ाइयों का ऐतिहासिक दस्तावेज इस उपन्यास के रूप में प्रस्तुत किया।
ढाँचे के भीतर बारम्बार चार बिन्दु उभरकर सामने आ जातेः रामराज, सुराज, विराज और जनता।
लगता, रामराज अन्ततः देश को नहीं मिला। अब तो उसकी चर्चा भी बेकार हो गयी। सुराज। सुराज अपने जनपदों में उतरते-उतरते बुझ गया। दिल्ली से चला सुराज अंग्रेजों के बनाये स्टेशन से आगे कहां बढ़ सका ? गाँव-गाँव से सड़क का नारा खोखला साबित हो गया। हतप्रद सुराज अपनी ही आत्मा जैसी उस अनन्य प्रेमिका ग्रामवासिनी जनता से नहीं मिल सका जो भग्नाश, उपेक्षित, कुंठित और रुग्ण हो अदेख हो गयी।
फिर विराज के उत्कर्ष वाले दौर में क्या हुआ ? और फिर आगे क्या-क्या होता गया ?
कल्पना एक विशाल रूप लेती गयी और मुझे खुशी है कि चार वर्षों के संघर्ष के बाद वह एक कृति के रूप में आपके सामने है।
‘सोनामाटी’ के सांस्कृतिक रस के स्वाद में डूबे अपने विशाल पाठक समुदाय को, जिनके प्रति मैं बहुत आभारी हूँ, मेरी प्रस्तुत कृति ‘समर शेष है’ अपनी राज-नीतिस्पर्शी प्रतीकात्मकता के भीतर युगीन के संदर्भ में आश्वस्त कर सकेगी, ऐसी आशा करता हूँ और साथ ही विश्वास यह है कि उपन्यास की प्रतीकात्मकता आस्वादन में कहीं आड़े नहीं आयेगी।
रामराज के लक्ष्य को प्राप्त करने में राजनीतिक आसमान से अधिक बाधा अपनी सामाजिक ज़मीन से उत्पन्न होती प्रतीत होती है। यह कैसी विडम्बना है कि आज हमारे देश का औसत सामान्य बुद्धिजीवी अपनी सारी शक्ति झोंक लड़की की शादी जैसी समस्याओं से लड़ता रहे और लड़-लड़कर टूटता रहे।
-और लड़ाइयाँ सारी सड़क पर उतर आवें ! प्लास्टिक की सफेद सड़के सपने में जनता के सिर पर से गुजरती रहें। गांधी आश्रम से फिंके देश की आँखें खुले किसी रसगुल्ला आश्रम में !
खैर, साक्षी पुल को लाँघ गया।
अब बारी आभार की। मेरे अभिन्न मित्र डॉ० अनिलकुमार आंजनेय ने बहुत श्रमपूर्वक इस उपन्यास की पांडुलिपि को पढ़कर तथा महत्त्वपूर्ण सुझाव देकर उसे अन्तिम रूप देने में भारी सहयोग किया है। मैं उनके प्रति हार्दिक अभार व्यक्त करता हूँ।
मैं सबसे अधिक आभारी हूँ अपने पाठकों और समीक्षकों का जिनके स्नेह ने मुझ अकिंचन से एक और काम करा लिया। आशा है वह स्नेह मुझे बराबर मिलता रहेगा।
बड़ी बाग, गाजीपुर
विवेकी राय
समर शेष है
संतोषी पंडित गाँधी आश्रम से लौटे तो कागज का एक विचित्र जैसा भासनेवाला
टुकड़ा विद्यालय के मैदान में पड़ा मिला। न जाने क्या समझकर उन्होंने उसे
उठा लिया। हरि इच्छा बलवान ! देखें तो इसमें क्या है ? संग्रह त्याग न
बिनु पहिचाने। और खोलकर सरसरी निगाह से देखा तो ऐसा लगा कि पढ़ाई-लिखाई के
कार्यक्रम का ब्योरा किसा विद्यार्थी ने लिखा है। उसे उन्होंने ऐसा वैसा
समझ फेंक दिया और अपने काम में लग गये।
उन्होंने नवीं कक्षा के छात्रों से लिखित कार्य की कापियों की माँग की और इस सम्बन्ध में बेहद लापरवाही दिखाई पड़ी तो वे बुरी तरह झल्ला उठे।
ठीक तभी वह नाचीज़ काग़ज़ का टुकड़ा याद आया। उस लिखे वाक्य का एक सामान्य टुकड़ा आँखों के सामने नाचने लगा, ‘स्कूल का काम पूरा करूँगा !’
यह कौन पुरानी हवा का छात्र है जो अपनी दिनचर्या में स्कूल के काम को पूरा करने को प्राथमिकता देता है ? हाँ, गुदड़ी के लाल की तरह यह कौन जो ऐसे युग में इस कदर आत्मनुशासित है ? अब कहाँ मिलते है ऐसे संकल्पवान विद्यार्थी ? अब कहाँ बन पाती है बालकों की ऐसी मानसिक स्थिति ? अब तो....आवत एहि सर अति कठिनाई ! पंडितजी जैसे-जैसे सोचते गये, उनकी हैरानी इस छोटी-सी चीज को लेकर बढ़ती गई।....बारम्बार सवाल उठता है, यह कौन है जो यों ही जैसे–तैसे नहीं पढ़ता है बल्कि क्रमबद्ध योजना बनाकर और सामने रखकर जीवन की तैयारी करता है ? ....जीवन की तैयारी ! हाँ वह बेचारा शायद समझ तो नहीं रहा है इस तैयारी को और इसकी गम्भीरता को पर निश्चित रूप से अनजाने वह यही काम कर रहा है।
इस तरह के विचारों के बीच से गुजरते-गुजरते अचानक वह मामूली जैसा लगने वाला कागज का टुकड़ा अकस्मात बहुत कीमती हो गया और घंटा पूरा होने के बाद पंडितजी इस कागज की खोज में चल पड़े। संयोग से वह वहीं पड़ा था जहाँ उसे फेंक दिया गया था। ऐसे कागज को और कौन क्यों उठाता ! उड़ा भी होता तो किसी किनारे लग गया होता।
स्टाफ-रूम खाली था। एक गिलास पानी पीकर कागज का टुकड़ा लेकर कुर्सी पर जम गए। वे उसे इस तरह ध्यान से देखने लगे मानो किसी मुकदमें का फैसला हो। एक मुकदमा पंडितजी के सिर पर भी मंडराता है परन्तु उसकी शक्ल अभी साफ नहीं हुई है। उसकी दहशत अभी अज्ञात है पर दहशत तो दहशत ही है। वह मन के भीतर वाली परतों के भीतर से अनजाने झाँक-झाँककर आकुल किया करती है।
पंडितजी की आँखें जैसे-जैसे उस कागज के टुकड़े पर तैरती गयीं, इनका मन वैसे-वैसे उसकी गहराइयों में डूबता गया। दरअसल पता नहीं क्यों, उसे पढ़-पढ़कर उन्हें बेहद खुशी होती थी। भोले-भाले किशोर छात्र की सुलझी सुमति को ज्ञापित करने वाली सूचियों में उन्हें वेदमंत्रों जैसी कसी अर्थवत्ता-सी मिलने लगी। सूची की पंक्तियों को दुहराने में अब उन्हें रामचरितमानस की पंक्तियों की भाँति नये-नये आनन्दानुभव की प्रतीति होने लगी। वास्तव में उन्हें पढ़ने में उनके भीतर वाले आदर्श आध्यापक को बहुत प्रोत्साहन और बल मिल रहा था। यही नहीं, वे इस पूरी घटना को अपने जीवन से जोड़ने लगे।
थोड़ी देर बाद पंडितजी चौंक पड़े, अरे मैं यह क्या सोच रहा हूँ ? मैंने कोई संकल्प ले लिया क्या ? नहीं कोई संकल्प नहीं लिया। इस प्रकार हवा में संकल्प लिए जाते हैं ?...और यदि ले लिया तो क्या बुरा हुआ ? किसी-न-किसी दिन तो लेना ही है। इस तरह की घटनाएँ और उनके बीच से उठने वाली भीतरी लहरें किसी अज्ञात शक्ति के द्वारा संचालित होकर मनुष्य के भविष्य के सूत्रों को कभी-कभी झलकाती हैं। समझदार लोग इन लहरों को पकड़ लेते हैं। नादान गफ़लतवश चूक जाते हैं। तो, मैंने उन लहरों को पकड़ लिया तो कोई गलती की ?...नहीं, ग़लती तो नहीं की किन्तु इस प्रकार क्या हवा में सही चीजें उछला करती हैं ? हर कार्य का एक निश्चित समय होता है।
वह उसी समय पर होता है। इस तरह के गंभीर कार्य कोरी कल्पनाओं के अथवा दिवा-स्वप्नों से पूरे होने लगें तब तो सारी दुनिया स्वर्ग हो जाए ! कल्पना का सहलाव नहीं, यथार्थ की चो़ट झेलने को तैयार रहिए शास्त्री जी, पंडित संतोष कुमार त्रिवेदी शास्त्री महाराज ! जिस रस भरी भावुकता से रद्दी जैसे कागज पर लिखी इन शुष्क कार्यक्रमों की पंक्तियों को आप देख रहे हैं, वह आपकी निजी है। वैसी दूसरों में नहीं मिलेगी। दूसरों से यदि गंभीरता पूर्वक इसकी चर्चा करें तो वे आपको पागल कहेंगे। दरअसल इस कागज में है क्या ? पढ़ाई-लिखाई का टाइम-टेबुल बना लेना मात्र कौन-सी उपलब्धि हुई ? कागज पर टाइम-टेबुल कागज पर धरा रह जाता है। वह जीवन में उतरता ही नहीं है। यह कोई खब्ती लड़का मालूम हो रहा है, सिर्फ सोचता है, इसे करना-धरना कुछ नहीं...!
घंटे पर तीन बार चोट पड़ी तो संतोषी पंडित खड़िया-डस्टर लेकर रूम नम्बर बारह की ओर चले। वहाँ एकदम सन्नाटा। कहाँ गए बारहवीं कक्षा के सभी विद्यार्थी ? आज तो अन्तिम कक्षा थी। अत्यन्त महत्त्वपूर्ण परीक्षोपयोगी चीज़ें बताने के लिए विशेष रूप से बुलाया था ! अजब हाल है ! गजब रंग–ढंग है ! चपरासी ने बताया कि जनता पार्टी के नए अध्यक्ष चन्द्रशेखर बिचमाझा बाजार में आए हुए हैं। उनके स्वागत में फूल-माला लेकर लड़के चले गए हैं।....अरे हाँ, पंडित जी को याद आया कि कई दिन से कुछ ऐसा ऐलान हो रहा है। बहुत धूम-धाम है।
पंडित जी लौटकर फिर स्टाफ-रूम में जम गए। कागज का टुकड़ा निकाल कर एक बार फिर देखा। लगा, यह कागज गरीबी और विद्याध्ययन का सन्धि-पत्र है। अथवा यह कठिनाई और अभिलाषाओं के संघर्ष की विजय घोषणा है। वास्तव में उस कागज में संतोषी पंडित को अपने बचपन की याद के साथ गरीबी में किसी तरह सिहक-सिहक चलाते पढ़ाई वाले मशक्कत के दिन याद आ गए। तब कितना कठिन था पढ़ना-लिखना। गाँव से कोस भर दूर बस्ता-बोरा लेकर जाना पड़ता था। अब तो गाँव-गाँव मदरसे हो गए और पढ़ाई कितनी सस्ती हो गयी। सस्ती के साथ ही साथ कितनी खोखली ? फाइनल वाले लड़कों को पढ़ाई से नहीं, राजनीति से मुहब्बत हो गयी है। बेड़ा पार लगाओ हे ! सब सत्यानाश ! सोचते-सोचते पंडितजी को प्यास लग गयी। ठंडे जल के प्रभाव से मन कुछ ठंडा हुआ तो वे फिर कागज के टुकड़े पर लौट आए। इस बार उन्होंने उसका विधिवत अध्ययन शुरू किया।
पंडितजी ने देखा, इस छोटे से कागज के टुकड़े में पूरे दो अध्याय हैं। एक में कुछ नोट की कापियों का ब्यौरा और उसके आगे अंग्रेजी के कुछ अक्षर संकेत रूप में लिखे गए हैं। इतिहास के नोट के आगे पट्ठे ने लिखा है, आर. ए. आर. ! क्या मतलब ? क्या ऐसा कि यह किसी सीनियर छात्र का नाम है जिससे यह नोट की कापी वह लेना चाहता है ? संभव है यह कार्यक्रम पिछली जुलाई में विद्यालय खुलने के पूर्व का ही बना हुआ हो। कुल दो पुस्तकें और पाँच नोट की कापियों का जिक्र है। अन्त में पिछली फाइनल परीक्षा के प्रश्नपत्रों को कहीं से प्राप्त करने का उल्लेख है। हो न हो यह कक्षा नौ का छात्र है जो आगामी महत्त्वपूर्ण निर्णायक परीक्षा-वर्ष की तैयारी में अभी से जुटा है। जुटा क्या है पूरी मोर्चेबंदी कर रखी है ! देखो, इस अज्ञात बालक की यह मोर्चेबन्दी पंडितजी और देखो अपनी आज की ज्ञात कक्षा को।....उँह, चूल्हे-भाड़ में जाय वह कक्षा ! लहर रुकने जैसी नहीं। उस उखड़ेपन की हाहाकारी समग्र क्रांतियाँ लहर में कोई नया सुर फूँकना कठिन है। छटपटाहट की दिशा बदल गयी है। अथवा व भूल गयी है। इस भयानक दिग्भ्रम के दरम्यान हम क्या करें ? क्या हथियार डाल देना ही अब एक मात्र विकल्प है ?
उन्होंने नवीं कक्षा के छात्रों से लिखित कार्य की कापियों की माँग की और इस सम्बन्ध में बेहद लापरवाही दिखाई पड़ी तो वे बुरी तरह झल्ला उठे।
ठीक तभी वह नाचीज़ काग़ज़ का टुकड़ा याद आया। उस लिखे वाक्य का एक सामान्य टुकड़ा आँखों के सामने नाचने लगा, ‘स्कूल का काम पूरा करूँगा !’
यह कौन पुरानी हवा का छात्र है जो अपनी दिनचर्या में स्कूल के काम को पूरा करने को प्राथमिकता देता है ? हाँ, गुदड़ी के लाल की तरह यह कौन जो ऐसे युग में इस कदर आत्मनुशासित है ? अब कहाँ मिलते है ऐसे संकल्पवान विद्यार्थी ? अब कहाँ बन पाती है बालकों की ऐसी मानसिक स्थिति ? अब तो....आवत एहि सर अति कठिनाई ! पंडितजी जैसे-जैसे सोचते गये, उनकी हैरानी इस छोटी-सी चीज को लेकर बढ़ती गई।....बारम्बार सवाल उठता है, यह कौन है जो यों ही जैसे–तैसे नहीं पढ़ता है बल्कि क्रमबद्ध योजना बनाकर और सामने रखकर जीवन की तैयारी करता है ? ....जीवन की तैयारी ! हाँ वह बेचारा शायद समझ तो नहीं रहा है इस तैयारी को और इसकी गम्भीरता को पर निश्चित रूप से अनजाने वह यही काम कर रहा है।
इस तरह के विचारों के बीच से गुजरते-गुजरते अचानक वह मामूली जैसा लगने वाला कागज का टुकड़ा अकस्मात बहुत कीमती हो गया और घंटा पूरा होने के बाद पंडितजी इस कागज की खोज में चल पड़े। संयोग से वह वहीं पड़ा था जहाँ उसे फेंक दिया गया था। ऐसे कागज को और कौन क्यों उठाता ! उड़ा भी होता तो किसी किनारे लग गया होता।
स्टाफ-रूम खाली था। एक गिलास पानी पीकर कागज का टुकड़ा लेकर कुर्सी पर जम गए। वे उसे इस तरह ध्यान से देखने लगे मानो किसी मुकदमें का फैसला हो। एक मुकदमा पंडितजी के सिर पर भी मंडराता है परन्तु उसकी शक्ल अभी साफ नहीं हुई है। उसकी दहशत अभी अज्ञात है पर दहशत तो दहशत ही है। वह मन के भीतर वाली परतों के भीतर से अनजाने झाँक-झाँककर आकुल किया करती है।
पंडितजी की आँखें जैसे-जैसे उस कागज के टुकड़े पर तैरती गयीं, इनका मन वैसे-वैसे उसकी गहराइयों में डूबता गया। दरअसल पता नहीं क्यों, उसे पढ़-पढ़कर उन्हें बेहद खुशी होती थी। भोले-भाले किशोर छात्र की सुलझी सुमति को ज्ञापित करने वाली सूचियों में उन्हें वेदमंत्रों जैसी कसी अर्थवत्ता-सी मिलने लगी। सूची की पंक्तियों को दुहराने में अब उन्हें रामचरितमानस की पंक्तियों की भाँति नये-नये आनन्दानुभव की प्रतीति होने लगी। वास्तव में उन्हें पढ़ने में उनके भीतर वाले आदर्श आध्यापक को बहुत प्रोत्साहन और बल मिल रहा था। यही नहीं, वे इस पूरी घटना को अपने जीवन से जोड़ने लगे।
थोड़ी देर बाद पंडितजी चौंक पड़े, अरे मैं यह क्या सोच रहा हूँ ? मैंने कोई संकल्प ले लिया क्या ? नहीं कोई संकल्प नहीं लिया। इस प्रकार हवा में संकल्प लिए जाते हैं ?...और यदि ले लिया तो क्या बुरा हुआ ? किसी-न-किसी दिन तो लेना ही है। इस तरह की घटनाएँ और उनके बीच से उठने वाली भीतरी लहरें किसी अज्ञात शक्ति के द्वारा संचालित होकर मनुष्य के भविष्य के सूत्रों को कभी-कभी झलकाती हैं। समझदार लोग इन लहरों को पकड़ लेते हैं। नादान गफ़लतवश चूक जाते हैं। तो, मैंने उन लहरों को पकड़ लिया तो कोई गलती की ?...नहीं, ग़लती तो नहीं की किन्तु इस प्रकार क्या हवा में सही चीजें उछला करती हैं ? हर कार्य का एक निश्चित समय होता है।
वह उसी समय पर होता है। इस तरह के गंभीर कार्य कोरी कल्पनाओं के अथवा दिवा-स्वप्नों से पूरे होने लगें तब तो सारी दुनिया स्वर्ग हो जाए ! कल्पना का सहलाव नहीं, यथार्थ की चो़ट झेलने को तैयार रहिए शास्त्री जी, पंडित संतोष कुमार त्रिवेदी शास्त्री महाराज ! जिस रस भरी भावुकता से रद्दी जैसे कागज पर लिखी इन शुष्क कार्यक्रमों की पंक्तियों को आप देख रहे हैं, वह आपकी निजी है। वैसी दूसरों में नहीं मिलेगी। दूसरों से यदि गंभीरता पूर्वक इसकी चर्चा करें तो वे आपको पागल कहेंगे। दरअसल इस कागज में है क्या ? पढ़ाई-लिखाई का टाइम-टेबुल बना लेना मात्र कौन-सी उपलब्धि हुई ? कागज पर टाइम-टेबुल कागज पर धरा रह जाता है। वह जीवन में उतरता ही नहीं है। यह कोई खब्ती लड़का मालूम हो रहा है, सिर्फ सोचता है, इसे करना-धरना कुछ नहीं...!
घंटे पर तीन बार चोट पड़ी तो संतोषी पंडित खड़िया-डस्टर लेकर रूम नम्बर बारह की ओर चले। वहाँ एकदम सन्नाटा। कहाँ गए बारहवीं कक्षा के सभी विद्यार्थी ? आज तो अन्तिम कक्षा थी। अत्यन्त महत्त्वपूर्ण परीक्षोपयोगी चीज़ें बताने के लिए विशेष रूप से बुलाया था ! अजब हाल है ! गजब रंग–ढंग है ! चपरासी ने बताया कि जनता पार्टी के नए अध्यक्ष चन्द्रशेखर बिचमाझा बाजार में आए हुए हैं। उनके स्वागत में फूल-माला लेकर लड़के चले गए हैं।....अरे हाँ, पंडित जी को याद आया कि कई दिन से कुछ ऐसा ऐलान हो रहा है। बहुत धूम-धाम है।
पंडित जी लौटकर फिर स्टाफ-रूम में जम गए। कागज का टुकड़ा निकाल कर एक बार फिर देखा। लगा, यह कागज गरीबी और विद्याध्ययन का सन्धि-पत्र है। अथवा यह कठिनाई और अभिलाषाओं के संघर्ष की विजय घोषणा है। वास्तव में उस कागज में संतोषी पंडित को अपने बचपन की याद के साथ गरीबी में किसी तरह सिहक-सिहक चलाते पढ़ाई वाले मशक्कत के दिन याद आ गए। तब कितना कठिन था पढ़ना-लिखना। गाँव से कोस भर दूर बस्ता-बोरा लेकर जाना पड़ता था। अब तो गाँव-गाँव मदरसे हो गए और पढ़ाई कितनी सस्ती हो गयी। सस्ती के साथ ही साथ कितनी खोखली ? फाइनल वाले लड़कों को पढ़ाई से नहीं, राजनीति से मुहब्बत हो गयी है। बेड़ा पार लगाओ हे ! सब सत्यानाश ! सोचते-सोचते पंडितजी को प्यास लग गयी। ठंडे जल के प्रभाव से मन कुछ ठंडा हुआ तो वे फिर कागज के टुकड़े पर लौट आए। इस बार उन्होंने उसका विधिवत अध्ययन शुरू किया।
पंडितजी ने देखा, इस छोटे से कागज के टुकड़े में पूरे दो अध्याय हैं। एक में कुछ नोट की कापियों का ब्यौरा और उसके आगे अंग्रेजी के कुछ अक्षर संकेत रूप में लिखे गए हैं। इतिहास के नोट के आगे पट्ठे ने लिखा है, आर. ए. आर. ! क्या मतलब ? क्या ऐसा कि यह किसी सीनियर छात्र का नाम है जिससे यह नोट की कापी वह लेना चाहता है ? संभव है यह कार्यक्रम पिछली जुलाई में विद्यालय खुलने के पूर्व का ही बना हुआ हो। कुल दो पुस्तकें और पाँच नोट की कापियों का जिक्र है। अन्त में पिछली फाइनल परीक्षा के प्रश्नपत्रों को कहीं से प्राप्त करने का उल्लेख है। हो न हो यह कक्षा नौ का छात्र है जो आगामी महत्त्वपूर्ण निर्णायक परीक्षा-वर्ष की तैयारी में अभी से जुटा है। जुटा क्या है पूरी मोर्चेबंदी कर रखी है ! देखो, इस अज्ञात बालक की यह मोर्चेबन्दी पंडितजी और देखो अपनी आज की ज्ञात कक्षा को।....उँह, चूल्हे-भाड़ में जाय वह कक्षा ! लहर रुकने जैसी नहीं। उस उखड़ेपन की हाहाकारी समग्र क्रांतियाँ लहर में कोई नया सुर फूँकना कठिन है। छटपटाहट की दिशा बदल गयी है। अथवा व भूल गयी है। इस भयानक दिग्भ्रम के दरम्यान हम क्या करें ? क्या हथियार डाल देना ही अब एक मात्र विकल्प है ?
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