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पातकाई पर्वतमाला के पार…

पूर्णकान्त बुढ़ागोहाईं

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 17088
आईएसबीएन :9789355483096

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पूर्णकान्त बुढ़ागोहाईं की यात्रा-वृत्त 'पातकाईर सीपारे न बछर' का हिंदी अनुवाद: साहित्य, संघर्ष और संस्कृति के सम्मेलन में एक अद्वितीय यात्रा।

यह एक सुखद संतोष का विषय है कि असमिया-ताई विद्वान पूर्णकान्त बुढ़ागोहाई का प्रसिद्ध यात्रा-वृत्त ‘पातकाईर सीपारे न बछर’ (1993), (Nine Years Beyond Patkai अंग्रेजी अनु. 2016) के प्रकाशन के दो दशक बाद हिंदी में आ जाने सेएक बार फिर चर्चा में आ जाएगी। आज जबकि ‘यात्रा-साहित्य’ अंतर विषयक शोध में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर रहा हैसंभवतः चालीस के दशक में लिखित इस यात्रा-वृत्त को अवश्य ही उपयुक्त स्थान मिलना चाहिए।

मैंपूर्वांचल ताई साहित्य सभा (बन-ओक पाप-लिक म्युंग ताई) और अपनी ओर से श्री कार्तिक चन्द्र दत्तअवकाश प्राप्त पुस्तकालयाध्यक्षसाहित्य अकादेमीनई दिल्ली कोपूर्णकान्त बुढ़ागोहाई की इस लुप्त प्रायः बहुमूल्य यात्रा पुस्तक के हिंदी अनुवाद के द्वारा बृहत्तर पाठक वर्ग के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए आंतरिक धन्यवाद देता हूँ।

चाओ पूर्णकान्त ने सन्‌ 1933 से सन्‌ 1942 के बीच दो बार बर्मा देश (म्यान्मार) की यात्रा की और नौ वर्षों तक वहाँ रहे। मूल पांडुलिपि में पुस्तक का शीर्षक ‘पूबदेश भ्रमण’ था लेकिन प्रथम संस्करण के संपादक और तत्कालीन ताई साहित्य सभा के साधारण सचिव डॉ. पुष्प गगै द्वारा उक्त पुस्तक का शीर्षक बदल दिया गया था।

बर्मा देश पहुँचने के थोड़े दिनों बाद ही पूर्णकान्त अपना व्यापार ऊपरी इरावती इलाके के मोगांग और भामो-जैसे नगरों में स्थापित करने में सफल हुए। बाद में उन्हें पूर्वी शान प्रदेशों के खेंगतुंग और चीन-बर्मा सीमा पर भाम-खाम और वांगटिंग में व्यापारिक सफलता मिली।

इन नौ वर्षों में विभिन्‍न यात्राओं के दौरान वे बर्मा देश के बहुविध लोगों के संपर्क में आए। मोगांगभामो और माण्डले में बंदी बनाकर रखे गए उन असमिया लोगों सेजो बर्मा देश में ‘वैताली’ कहलाते थेमिलकर वे भावुक हो गए थे। इन स्थानों के ‘नामघरों’ में असमिया पांडुलिपियों और पोथियों को खोज निकालना उनकी एक बड़ी बौद्धिक सफलता थी।

पुस्तक में पूर्णकान्त के बर्मा देश से पलायन का रोज़नामचा अपने-आप में एक अद्वितीय अनुभव है। 1942 में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब जापानी सेनाएँ बर्मा देश में प्रवेश कर रही थीं तो पूर्णकान्त बर्मा देश छोड़कर निकल भागे। उनका जीवन साहसिकता और संघर्षपूर्ण जिजीविषा की परिभाषा बनी।

मुझे पूरी आशा है कि इस हिंदी अनुवाद के साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशन से विचारशील अध्येताओं और साधारण पाठकों को बुढ़ागोहाईं के जीवन की अनोखी घटनाओं और लगातार नौ वर्षों तक उनके संघर्षपूर्ण जीवन के साथ सांस्कृतिक और ऐतिहासिक खोजों की जानकारी प्राप्त होगी।

– डॉ. दयानन्द बोरगोहाईं

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