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जीवन कथाएँ >> इनकलाब

इनकलाब

मृणालिनी जोशी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :543
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1716
आईएसबीएन :81-7315-287-x

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प्रस्तुत है शहीद भगतसिंह के जीवन पर आधारित उपन्यास...

Inquilab

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


फर्न बड़ी मुश्किल से उठा और आगे बढ़ने लगा। तभी भगतसिंह ने पीछे मुड़कर उसपर गोली दाग दी। फर्न गोली से नहीं, डर के मारे जमीन पर गिर पड़ा। साहब को गिरते हुए देखकर उसके साथी सिपाही वहीं-के वहीं खड़े रह गए।
दूसरी गोली दागने के इरादे से भगतसिंह पीछे मुड़नें ही वाला था कि आजाद ने हुक्म दिया-चलो !
सुनते ही राजगुरु और भगतसिंह दोनों भागकर कॉलेज के अहाते में घुस गए।

लेकिन फिर भी एक कांस्टेबल उनका पीछा कर रहा था। उसका नाम था चंदनसिंह। साहब की मौत से वह राजभक्त नौकर भड़क उठा था। गोलियों की बौछार करते हुए जान की बाजी लगाकर वह पीछा कर रहा था।
‘‘खबरदार ! पीछे हटो !’’ आजाद ने अपना माउजर पिस्तौल उसपर राइफल की तरह तानकर उसे धमकाया।
लेकिन वह न रुका, न पीछे हटा।
भगतसिंह सबसे आगे था और उसके पीछे था राजगुरु-तथा उसके पीछे चंदनसिंह था। लेकिन दौड़कर राजगुरु को पीछे छोड़कर चंदनसिंह आगे बढ़ गया। पता नहीं उसने राजगुरु को क्यों नहीं दबोचा। लेकिन उसका पूरा ध्यान भगतसिंह पर केंद्रित हुआ था।

बड़ी अजीब तरह की दौड़ थी। आगे भगतसिंह। उसे दबोचने की कोशिश करनेवाला चंदनसिंह और चंदनसिंह को दबोचकर भगतसिंह को बचाने को तत्पर राजगुरु। साक्षात् जीवन-मृत्यु एक-दूसरे का पीछा कर रहे थे। किसकी जीत होगी ? किसकी हार होगी ?
चंदनसिंह काफी लंबा और मजबूत था। जान की बाजी लगाकर वह पीछा कर रहा था। आखिर वह सफल होने जा रहा था। भगतसिंह के बिलकुल पास पहुँच गया था। अब उसे दबोचने ही वाला था कि ‘साँय-साँय’ करती एक गोली आकर सीधे उसके पैर में धँस गई। उसकी रफ्तार तनिक कम हो गई। लेकिन वह नहीं रुका। तभी दूसरी गोली आई और सीधे उसके पेट में घुस गई। चीखकर धड़ाम से वह जमीन पर गिर पड़ा।

भगतसिंह समझ चुका था कि यह गोली आजाद जी की पिस्तौल से चली है; क्योंकि इस प्रकार तीन लोग जब इस तरह से तेज दौड़ रहे हों तब ठीक अपने दुश्मन का ही निशाना साधना सिर्फ उन्हीं के वश की बात है।

प्राक्कथन


सौ. मृणालिनी जोशी मराठी की यशस्विनी लेखिका हैं। उनका उपन्यास ‘समर्पिता’ पर्याप्त ख्याति अर्जित कर चुका है। सशस्त्र क्रांति-प्रयास में अपना जीवन समर्पित करनेवालों की जीवनियों के प्रति उनकी श्रद्धापूर्ण अभिरुचि है तथा उनका भावपूर्ण और यथा तथ्य मनोरम चित्रण करने की उनमें अद्भुत सामर्थ्य है। अमर शहीद सरकार भगतसिंह के जीवन से संबंध रखनेवाली अनेक बातों का उन्होंने उपलब्ध स्रोतों से बड़े परिश्रम से संकलन किया है। इस संबंध में वह अमर शहीद भगतसिंह की पूजनीया माताजी से मिली हैं और उनके कुछ अन्य संबंधियों एवं साथियों से भी। कई क्रांतिकारी संस्मरण के लेखकों का उन्होंने गहराई से अध्ययन किया है।

उपन्यास लेखक को यह साहित्यिक अधिकार तो होता ही है कि वह ऐतिहासिक घटना सत्य में से अभीष्ट का संयोजन करे। मुझे विश्वास है कि बहन मृणालिनी के इस उपन्यास ‘इनकलाब’ में अमर शहीद सरदार भगतसिंह के जीवन का सत्य, शिव और सुंदर चित्रण हमें मिलेगा।

भगवानदास माहौर


(भगवानदास माहौर महान् क्रांतिकारी, काव्य और संगीत के मर्मज्ञ तथा ज्योतिष के असाधारण ज्ञाता थे।)


भूमिका



‘श्री स्वामी प्रसन्न।’
‘जय-जय अंबे जय हो !’
आज बीस वर्षों बाद ‘इनकलाब’ का तीसरा संस्करण (हिंदी में प्रथम संस्करण) प्रकाशित हो रहा है। इस समय मन में प्रसन्नता भी है और खिन्नता भी। खिन्नता इसलिए कि देश को स्वाधीन हुए इतने साल हो गए, किंतु हमारे देश के अनेक ज्ञात और अज्ञात देशभक्तों तथा शहीदों के सपने अधूरे ही रह गए हैं। पराधीनता के समय एक साधारण भारतीय के मन में देशभक्ति की जो उत्कट भावना थी, जो अटूट विश्वास एवं निश्चय था, जो वीर वृत्ति थी, एकता की भावना थी उसका आज स्पष्ट रूप से अभाव ही प्रतीत हो रहा है। इस विषय को चुनने के पीछे यह एक महत्त्वपूर्ण कारण रहा है; फिर युवकों को इस प्रकार की वीरता एवं देशभक्तिपूर्ण साहित्य प्रिय भी होता है।

यद्यपि श्रृंगार रस रसराज है; किंतु श्रृंगार रस से जीवन केवल उत्पन्न होता है, उस जीवन को पुरुषार्थ प्राप्त नहीं होता। पुरुषार्थ तो उसे प्राप्त होता है वीर रस से, और उसे दिव्यत्व का संस्पर्श होता है करुण एवं उदात्त रस से। इसीलिए जिनको संकीर्ण प्रादेशिकता ने ग्रस्त नहीं किया, जिनपर धर्मांधता का भूत सवार नहीं हुआ, जिन्हें भाषा-भिन्नता ने दंडित नहीं किया और सांप्रदायिकता ने जन्मांध नहीं किया है देशभक्ति की भावना से सराबोर उन दिव्य जीवन चरित्रों का आधार लेकर साहित्य सृजन करने का निश्चय मैंने मन-ही-मन किया-और इसके लिए पहले शहीद भगतसिंह जैसे महान् देशभक्त के जीवन चरित्र का चयन किया।

शहीद भगतसिंह और उनके सहयोगियों के संबंध में जानकारी प्राप्त करते समय मैं अत्यंत मर्मस्पर्शी अनुभव प्राप्त किए। मैं निरंतर अनुभव कर रही थी कि कोई अज्ञात शक्ति मेरी सहायता कर रही है और जब-तब मेरे हताश मन को सांत्वना दे रही है। जिन-जिन रूपों में उस दिव्य शक्ति ने मुझे दर्शन दिए उन सबका नामोल्लेख करना मेरे लिए असंभव है; क्योंकि उसका साक्षात्कार मुझे अपने रूपों में हुआ है। उन सबकी मैं हृदय से ऋणी हूँ, कृतज्ञ हूँ। उनमें से कुछ विभूतियों का उल्लेख मैंने प्रथम संस्करण की भूमिका में किया है। उस समय जिन-जिनका स्मरण मैं नहीं कर सकी, उनमें से कुछ को स्मरण कर लिपिबद्ध कर रही हूँ।

शहीद भगतसिंह की माताश्री से मिलने मैं जब पंजाब गई थी तब का यह संस्मरण-

आखिर एक सुनसान स्टेशन पर गाड़ी रुक गई और सामने ‘खटखटकलाँ’ लिखा नाम दिखाई दिया। सामान उठाने के लिए कोई कुली दिखाई नहीं दे रहा था। अंततः खुद ही उसे नीचे खींचने की कोशिश की। तब एक सरदारजी ने वह नीचे ढकेल दिया था।
और उसी क्षण गाड़ी चल दी। चली भी गई। वहाँ पर रह गई मैं अकेली और साथ में मेरा सामान। आसपास कहीं कोई गाँव या बस्ती दिखाई नहीं दे रही थी। सुदूर फैले हुए हरे-भरे खेत मनमोहक तो लग रहे थे, लेकिन मैं उनके मन की बातें सुनने की मनोदशा में नहीं थी।

तभी हाथ में हरी झंडी लिये एक आदमी दिखाई दिया। मैंने उससे पूछा, ‘‘यहाँ कोई कुली मिल सकता है ?’’
उससे उत्तर मिला, लेकिन नकारात्मक। फिर से समस्या, कहाँ जाएँ और कैसे ?
यह सोचकर कि स्टेशन मास्टरजी से मिलूँ, मैं अपना सामान वहीं छोड़कर उनके कमरे में गई। कुरसी पर बैठे, सफेद पोशाक पहने सज्जन से मैंने पूछा-

‘‘भाई सा‘ब, गाँव यहाँ से कितनी दूर है ?’’
‘‘पास ही है। आपको किनके यहाँ जाना है ?’’
‘‘शहीद भगतसिंह की माताजी के पास।’’

‘‘माताजी के पास ! लेकिन वह तो अब तक यहाँ आई नहीं हैं।’’
यह सुनकर मैं उलझन में पड़ गई। समझ में नहीं आया कि क्या करूँ। अपने घर से प्रदेश से इतनी दूर, अनजाने स्थान में जो यहाँ आई सो केवल माताजी के दर्शन करने। और यह कह रहा है कि वह यहाँ नहीं हैं।’
मैंने अपने पर्स में रखा सरदार कुलतारसिंह का लिखा पत्र निकालकर पढ़ा। नहीं, कोई गलती नहीं थी। सरदारजी ने स्पष्ट लिखा था कि आपको 15 मार्च के बाद माताजी खटखटकलाँ में मिलेंगी। और आज तो 18 मार्च है। फिर यह कैसे हो गया ?’’
‘‘आप बैठिए न !’’
‘‘मेरा सामान बाहर है।’’
‘‘हरि सिंह !’’ किसी को पुकारते हुए उन्होंने कहा।
‘‘हाँ जी !’’ कहते हुए वह पोर्टर अंदर आ गया।
‘‘बहनजी का सामान यहाँ ले ले आओ।’’
कुछ ही समय में उसने मेरे पास मेरा बैग और होलडाल लाकर रख दिया। उन चीजों को देखती मैं दिल्ली जाने की सोच रही थी।
कुछ समय बाद मैंने पूछा, ‘‘मेरे साथ किसी को भेज सकेंगे ? घर बताने के लिए कोई छोटा लड़का भी हो तो कोई हर्ज नहीं।’’

उन्होंने घड़ी देखी। कहा, ‘‘अभी कुछ ही समय में एक गाड़ी आ रही है। उसके चले जाने के बाद मैं खुद चलूँगा आपके साथ। सामान हरि सिंह साइकिल पर ले जाएगा। तब तक आप रेस्ट कर लीजिए।’’
मेरे ‘हाँ’ या ‘न’ कहने से पहले ही वे चले भी गए। सामने करीने से रखे कबाड़ की तरफ देखती मैं वहीं सोफे पर सुस्ताने लगी।
सारी रात मैं सो नहीं सकी थी। गाड़ी में जगह तो अच्छी मिली थी, सो भी सकती थी; लेकिन मुझे ‘फगवारा’ स्टेशन पर उतरना था। वह ‘लुधियाना’ के बाद आता है और लगभग ढाई-तीन बजे से आसपास आता है-बस, इतना ही मैं जानती थी। एक बहन ने बताया था कि वहाँ गाड़ी भी एक मिनट ही रुकती है। इसीलिए मैं जागती रही थी। लुधियाना के बाद बाल-बच्चोंवाली महिलाओं तथा अस्त-व्यस्त फैले सामान से बचाती अपना बेडिंग, किसी की खुशामद करती हुई तो किसी की नींद में बाधा डालने पर उनकी बकझक सुनती, दरवाजे के पास लाकर रखा। स्टेशन तो आ गया, लेकिन चारों तरफ सन्नाटा था। एक जगह ‘जंक्शन’ लिखा था, लेकिन उसकी शक्ल-सूरत बहुत ही मामूली थी।
मैं सामान नीचे उतार ही रही थी कि गाड़ी चल दी।

एक कुली मिला। कहने लगा-‘‘खटखटकलाँ की गाड़ी में बिठाने का एक रुपया लूँगा।’’
मैंने मन में कहा, ‘अरे भाई, एक क्यों, दस भी लोगे तो मैं बड़ी खुशी से दे दूँगी।’
तीन बजे से सात बजे तक-चार घंटे मैं इस बरामदेनुमा वेटिंगरूम में सिर्फ बैठी रही। सुबह की साँय-साँय करती तेज हवा बदन में चुभ रही थी। जागरण और तनाव के कारण सिर चकरा रहा था। सोचा, आखिर यह सारा झंझट मैं क्यों झेल रही हूँ ? सुखी गृहस्थी में मजे में रहना, खाना-पीना, ऐशो आराम करना-यह सब छोड़कर बेसहारा, वनवासी की तरह अकेले दर-दर की ठोकरें खाते रहने की क्या पड़ी थी मुझे ? प्रतिवर्ष हजारों उपन्यास प्रकाशित होते रहते हैं। अगर मुझ अकिंचन ने कलम नहीं उठाई तो साहित्य की क्या हानि हो सकती है ? हाँ, पाठकों पर उपकार ही तो होगा। वैसे मेरे जीवन की निर्भरता भी कलम पर नहीं है। तो फिर यह जिद किसलिए ?

लेकिन मेरी यह समूची यात्रा किसी की देखरेख में हो रही थी। उस अज्ञात शक्ति ने सबकुछ निश्चित किया था। पंजाब जाने की बात मैं कह तो रही थी, लेकिन कोई दिन निश्चित नहीं किया था।
हमारे तात्या साहब (श्री शांताराम आठवळे) ने एक दिन आकर कहा, ‘‘हम दोनों दिल्ली जा रहे हैं। अपने साथ तुम्हारा भी रिजर्वेशन करने के लिए कह दिया है।’’
सिर्फ दिल्ली का ही टिकट नहीं लिया गया था, ‘खटखटकलाँ’ का टिकट भी एक अपरिचित सज्जन ने दिलवा दिया। रेलवे टाइम टेबले में उस स्टेशन का नाम नहीं था। मैं बहुत सोच में पड़ गई। लेकिन पता नहीं वह सज्जन कहाँ से आए। उन्होंने कहा, ‘‘आप एक काम कीजिए, नवाँ शहर का टिकट ले लीजिए और ‘खटखटकलाँ’ उतर जाइए।’’
‘‘लेकिन वहाँ गाड़ी रुकती तो है न ?’’ मैंने पूछा।

‘‘जी हाँ, रुकती है। आइए, मैं दिला देता हूँ।’’
उन्होंने अपना काम किया और वहाँ से चले गए। पता नहीं कहाँ से आए थे और कहाँ चले गए।
भगतसिंह के क्रांतिकारी साथी श्री यशपाल और श्रीमती दुर्गा भाभीजी से मिलने लखनऊ गई थी तब भी इसी प्रकार विस्मयजनक अनुभव किया।
अनजान शहर।

श्रीमती मथुताई साने (लोकमान्य तिलक जी की कन्या) का पता मेरे पास था। लेकिन घर नहीं जानती थी। उद्गिग्नता से डिब्बे में कदम रखा; मानो अँधेरे में कदम रख रही हूँ। लेकिन उसी डिब्बे में श्री सराफ साहब से भेंट हुई। मथुताई के मकान में ही रहनेवाले जठार दंपती मिले और मैं सकुशल ‘घर’ पहुँच गई।
इस तरह की अनेक घटनाओं का स्मरण दिलाकर मेरा आशावादी मन मेरे पिनपिनाते मन को समझाते हुए कहने लगा ‘इन कष्टों से भी कुछ अच्छा प्राप्त हो सकता है। अरी, इन छोटी-मोटी परेशानियों से निराश होने से क्या होगा ? देश के लिए सिर पर कफन बाँधकर फकीर बननेवाले, हँसते-हँसते फाँसी के फंदे पर लटकनेवाले शहीदों के जीवन चरित्र को केंद्र बनाकर लिखना चाहती हो और इन मामूली तकलीफों से डरती हो ! कई प्रकार की तकलीफें उठाओगी, तब कहीं कुछ थोड़ा सा कर पाओगी। वेदना की कोख से जन्म लेनेवाली कलाकृति ही हृदय को स्पर्श कर सकती है। प्राण फूँके बिना निष्प्राण अक्षर प्राणवान् नहीं बनते।’

यह सब सुनकर फगवारा स्टेशन पर तकलीफों से मुँह मोड़नेवाला, घर-गृहस्थी में उलझा हुआ मेरा सुखासीन मन चुप तो हो गया; लेकिन इस पराए घर में जब मैं अकेली बैठी थी तब मेरा ‘बेचारा’ मन बहुत निराश हुआ।
आँखें भर आईं। सोचा, अब एड़ियाँ घिसती, दर-दर की ठोकरें खाती गाँव में किसलिए जाऊँ ? माताजी के घर के ताले की मुँह बिचकाई देखने जाऊँ ? अब तक की यात्रा काफी हो गई है। झंझट भी बहुत मोल लिया है। इससे तो अच्छा है कि लौटती गाड़ी में बैठकर चुपचाप पुणे चली जाऊँ। तभी अचानक सनक सी सवार हुई और मैं उठ खड़ी हुई। पर्स उठाया और दहलीज के पास आ गई। देखा, आँगन से मास्टरजी अंदर आ रहे थे।
‘‘हाँ जी, अब चलिए।’’

लौट जाने का विचार मन में दबाकर मैं चुपचाप उनके साथ चल दी।
गाँव में प्रवेश करते ही पहला घर माताजी का था। मैं बाहर ही ठिठक गई। वह अगर वहाँ न हों तो ? नहीं, उस स्थिति को सहना मेरे लिए बहुत मुश्किल था। सामान लेकर हरि सिंह ही अंदर गया।
‘‘किसका सामान है रे ?’’ अंदर से किसी ने पूछा।
‘‘बहनजी आई हैं पुणे से।’’ सुनी हुई जानकारी के अनुसार उसने बताया।
मैं दरवाजे पर ही रुकी थी। आवाज से बोलनेवाली महिला का अनुमान मैं लगा रही थी।
‘‘आइए, आइए !’’ कहती हुई एक काफी ऊँची-लंबी, हट्टी-कट्टी महिला बाहर आईं और बाँहें फैलाकर मुझे गले लगाया। अपने वारकरी लोगों की तरह मिलीं। उस क्षण मेरे मन में क्या भाव थे, मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकती। सिर पर पड़ा पत्थर का बोझ फूल-सा हलका हो गया था।

मेरा हाथ पकड़कर वे मुझे बरामदे में खटिया पर बैठी एक वृद्ध महिला के पास ले गईं। मैं पहचान गई। मन ने कहा, यही हैं शहीद भगतसिंह की माँ-माताजी ! उनके चरणों को स्पर्श करने मैं झुकने ही वाली थी कि उन्होंने मुझे हृदय से लगा लिया। फिर एक बार उसी तरह से मिलना।
मेरा हाथ थपथपाते-सहलाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘हम लोगों को बड़ी चिंता थी कि तुम इतनी दूर कैसे आओगी। कुछ ज्यादा तकलीफ तो नहीं हुई न ?’

‘‘नहीं।’’ मैंने कहा।
‘‘चाय लोगी या दूध ?’’ अमृतकुँवर भगतसिंह की बहन ने पूछा।
‘‘कुछ भी नहीं। मैंने स्टेशन पर ली है चाय।’’
‘‘स्टेशन मास्टरजी ने दी।’’
‘‘हाँ-हाँ, भला आदमी है वह।’’
‘‘जी हाँ, बहुत ही सज्जन हैं वे। लेकिन वे कैसे नहीं जानते कि आप यहाँ गाँव में हैं ?’’ मैंने कहा।
‘‘अरी, हम यहाँ उतरे ही नहीं थे। इसलिए उस बेचारे ने तुम्हें बताया होगा कि हम यहाँ नहीं हैं। बेबे से चला नहीं जाता। यहाँ कोई सवारी नहीं मिलती। इसलिए हम ‘बंगा’ उतरकर गाड़ी में यहाँ आए।’’
अब सब स्पष्ट हो गया। व्यर्थ ही परेशानी हुई थी मुझे। संभवतः इस भेंट की मिठास बढ़ाने के लिए, वह भी आवश्यक होने के कारण किसी ने यह सोच समझकर ही किया होगा। क्या पता।

प्रतिदिन का पूजन-अर्चन समाप्त होने पर मैं माताजी के साथ ही खाना खाने बैठ गई। बहनजी गरमागरम रोटी सेंककर परोस रही थीं। बैंगन का भुरता, चने की दाल, अचार, घी और एक काँसे की थाली भरकर हलुवा।
दो दिन बाद गरमागरम ताजा भोजन देखकर ही मन संतुष्ट हुआ। बातें करते हुए हम भोजन कर रहे थे। रोटी का आग्रह किया जा रहा था।
मैंने यों ही पूछा-‘‘बहनजी भगतसिंह को क्या प्रिय था ?’’
अमृतकुँवर खड़ी की खड़ी रह गईं। माताजी का हलुवे का कौर थाली में गिर पड़ा। उन दोनों की अवस्था देखकर लगा, असमय ही पूछा है मैंने यह सवाल। तब तक अमृतकुँवर सँभल गई थीं। धीरे से उन्होंने कहा, ‘‘बीराजी को यह हलुवा प्रिय था-बहुत सारा घी और काफी मीठा। इसीलिए तो यह तुम्हारे लिए खासतौर से बनाया है। उसी के लिए तो तुम यहाँ आई हो न ?’’

बेबेजी ने भी प्यार से कहा, ‘‘खाओ बेटी, खाओ। वह होता तो तुम्हारे लिए जरा भी न रहने देता।’’
सोचा क्या मैं उनके घाव ताजा करने के लिए यहाँ आई हूँ ?
लेकिन नहीं, दो दिन वहाँ रहने के बाद सोचा कि अड़तीस वर्ष पूर्व हुआ उनके हृदय का घाव अभी भरा ही नहीं है।
वह सदमा अभी दूर ही नहीं हुआ है बल्कि इस सदीर्घ काल का उनको भान ही नहीं हुआ है। वे अतीत में जी रही हैं-अपने भगत के साथ, अपने बीराजी के साथ। उस पुराने वास्तु की साँसों में और उन दो वृद्ध नारियों के रोम-रोम में वह पुरुष सिंह वह नर केसरी जैसे घुल मिल गया है। सिर पर काले घुँघराले केश खुला छोड़कर दरवाजे पर हाथ रखकर झूलता हुआ। जमीन पर पाँव से लय पकड़कर उन्मुक्त स्वर से गानेवाला, छोटी बहन को छेड़नेवाला साथियों के साथ बहस करनेवाला, कन्हैया की तरह दूध घी पर हाथ साफ करनेवाला-और एक दिन सबको दुःखी कर घर छोड़ जानेवाला हँसमुख और रसिक वैसा ही शूर और पराक्रमी भगतसिंह अब भी उन्हें साक्षात् दिखाई दे रहा है।

सूरज ढलने पर मैं और बहनजी गाँव के बाहर स्थापित भगतसिंह की प्रतिमा देखने चल दिए। वह रास्ता वैसा सीधा और अच्छा बना था। दोनों ओर गेहूँ के हरे-भरे खेत मीलों तक फैले हुए थे। बीच-बीच में आम के पेड़ों की कतार थी। उनमें से बहुत से पेड़ भगतसिंह के पुरखों के लगाए हुए थे। यह सारा गाँव ही उनके पुरों को इनाम में मिला था। ये लोग अपने आपको श्री रामचंद्र के वंशज मानते हैं। आगे चलकर सिंधु देशांतर कर आए थे, इसलिए इनका नाम ‘सिंधु’ हो गया।
लगभग आधा मील जाने के बाद प्रतिमा दिखाई दी-काफी ऊँची, संगमरमर की। सुंदर सुडौल तीखे-तीखे नाक-नक्श। सिर पर साफा बँधा था।
हम दोनों भगतसिंह के चरणों में बैठ गईं। मैं उनसे बहुत कुछ पूछना चाहती थी, बातें करना चाहती थी; लेकिन उस भावुक अवस्था में क्या कहूँ, कुछ समझ में नहीं आ रहा था।
सामने रास्ते के बीच-बीच में कोई बस धूल उड़ाती जाया करती थी। जामुन के पेड़ों पर तोतों के झुंड दिखाई दे रहे थे। बीच-बीच में वे उड़ रहे थे।

आसपास फैले मैदान की ओर इशारा कर बहनजी ने कहा, ‘‘परसों यहीं मेला लगेगा। बहुत भीड़ लगती है। लोगबाग दूर-दूर से बड़ी श्रद्धा से आते हैं।’’ आखिर बीराजी है वह ! उसके साथ रहनेवाला हर व्यक्ति प्रभावित हो जाता है।’’
‘‘बहनजी, यह तो बिलकुल सच है। जब से मैं यहाँ आई हूँ, मैं भी वही महसूस कर रही हूँ। बता नहीं सकती कि कहाँ, लेकिन उनके अस्तित्व का अहसास हो रहा है।’’
इसके बाद बहनजी ने अनेक बातें बताईं। सिर्फ भगतसिंह की ही नहीं, अपनी भी। पाकिस्तान बनने से पहले 9 अगस्त को वे पचास साठ औरतों को साथ लेकर अमृतसर चली आई थीं।
मैंने पूछा, ‘‘और आपके बच्चे ? बच्चों के पिताजी ? वे किस प्रकार यहाँ आए ?’’
‘‘वे तो छह महीनों के बाद मिले। वे भी अपने साथ कई लोगों को बचाकर लाए। लेकिन मैंने अपने बड़े बेटे को कुछ दिन नहीं रखा।’’
‘क्यों ?’’

‘‘जानबूझकर। जमानत के तौर पर। क्योंकि उस समय सब बड़े-बड़े लोग अपने अपने बच्चे, अपने आदमी और पैसा, सामान-असबाब लेकर भाग रहे थे। इसलिए असाधारण हिंदुओं को संकटमुक्त करनेवाला, उनको सहारा देनेवाला कोई नहीं था। मेरा बेटा बहुत बीमार था। मेरे भीतर की माँ मुझे उसे साथ ले जाने के लिए बराबर कह रही थी। लेकिन मेरा समाज के साथ भी कुछ रिश्ता था। हमारे खानदान में सबसे पहले औरों का खयाल रखने के संस्कार दिए गए थे। वैसी शिक्षा दी गई थी। तब मैंने उन डरी हुई माँ-बहनों से कहा, ‘मैं इस लड़के को यहाँ छोड़कर जा रही हूँ। फिर से आकर पहले आप लोगों को ले जाऊँगी और बाद में इसे ले जाऊँगी।’’
‘आखिर भगतसिंह की बहन सोहती है !’’ मैंने मन ही मन कहा।
वचन निभाते हुए अमृतकुँवर तीन बार पाकिस्तान जाकर अनेक लोगों को सही-सलामत ले आईं-और वह भी किस स्थिति में, जानते हैं ? छोटे बच्चे के समय उनके पाँव भारी थे। उन्होंने कहा, ‘‘हम अपनी लड़कियों को ले आए, लेकिन उनकी कुछ औरतों को वापस भेज दिया।’’

‘‘उनको क्यों लौटा दिया ? अब तक उन्होंने हमारी कितनी सारी बहू-बेटियों का अपहरण किया है !’’ मैं यों ही कह गई।
वे गंभीर हुईं। कहा, ‘‘नहीं-नहीं, बहनजी, तुर्की औरतों को कभी हम अपने घर में नहीं रखते।’’
‘‘आखिर क्यों ?’’
‘‘क्योंकि वे जिन बच्चों को पैदा करेंगी, वे कभी हमारे देश का भला नहीं करेंगे। तुर्की औरतों के साथ संबंध रखना महापाप है, धर्मद्रोह है, देशद्रोह है। हमारे ग्रंथ साहब में भी यही लिखा है।’’
डूबते सूरज के रक्तिम-सुनहरे प्रकाश में स्वदेश और स्वधर्म के गर्व से उज्जवल बने उस वीर कन्या का गोरा-गोरा मुखमडल और अधिक प्रदीप्त दृष्टिगोचर होने लगा। सफेद बाल, तेजस्वी चमकीली आँखें, गोल चेहरा, साधारण सफेद पंजाबी पहनावे में कर्तव्यशालिनी अमृतकुँवर की ओर देखकर मेरा भी मन गर्व और परमादकर से भर आया। यह नारी जब से इस दुनिया में आई है तब से खादी के सिवा किसी भी कपड़े का स्पर्श इसके शरीर को नहीं हुआ है।

भगतसिंह के निधन के बाद तो वह अधिक ही विरागिनी बन गईं। रंगीन कपड़ों का त्याग तो उसी समय उन्होंने किया। उस श्वेतवसना, गौरांगी वीरांगना के मजबूत हाथ पर कृपाण के चिह्न है और पिंडली पर उसके प्रिय बीराजी द्वारा चुभोए होल्डर के निशान। गले के पास मोमबत्ती से दागने का निशान है और हथेली पर छुरी के घावों के निशान हैं। इस महिला का तन और मन दोनों मजबूत हैं और यह बड़े गर्व के साथ बहादुरी के निशान जतन कर रही हैं। वहाँ से उठने को मन नहीं चाहता था, जाना नहीं चाहती थी; लेकिन अँधेरा फैल जाने के कारण उठना पड़ा। चलते समय भगतसिंह की प्रतिमा की ओर देखते हुए अमृतकुँवर ने भर्राए स्वर में कहा, ‘‘एक बार पिताजी ने बीराजी को पीटा। उस समय बेबे गाँव गई हुई थी। उसने सुना और तुरंत पैदल लाहौर गई। जवान बेटे को पीटा, इस बात पर पिताजी से लड़ी। लेकिन...लेकिन उसके उसी बेटे को विदेशियों ने मारा-जान से मार डाला-उस समय बेबे कुछ नहीं कर सकी। बदला नहीं ले सकी। किसी की जान नहीं ले सकी।’’



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