कहानी संग्रह >> कारा काराविवेक मिश्रा
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"विवेक मिश्र : जीवन के गहन संघर्षों, अस्तित्वगत सत्यों और बदलती दुनिया के मौन संताप के कथाकार।"
पापा बिना किसी से कोई शिकायत किये, धीरे-धीरे मुस्कराते हुए, अपनी यादों को अपनी पलकों में समेटे, अपने अकेलेपन में सिमटते हुए, धीरे-धीरे आँखें मूंद रहे थे। उस एकान्त में कोई आवाज नहीं पहुँच रही थी। जो आवाजें वहाँ पहुँच भी रही होंगी ये इतनी ठण्डी थीं कि उनसे पिघल के कोई शब्द नहीं बन सकता था। उनके होंठ कुछ कहने के लिए खुले थे पर वे जैसे कुछ कहते-कहते रह गये थे। या उनके होंठों से जो शब्द निकले थे, वे बच्चों की हँसी बनके पुरानी किसी तस्वीर में छुप गये थे। लग रहा था दिव्य प्रकाश माथुर, सौम्या, रोहित और नील के पापा बड़े दिनों के बाद गहरी नींद में सो गये हैं। – इसी पुस्तक से विवेक मिश्र उन कहानीकारों में हैं जो सिर्फ़ कथानक और किरदारों को रचकर छुट्टी नहीं पा लेते बल्कि जीवन की गहनतम अनुभूतियों को भी कथाविन्यस्त करते चलते हैं। इसलिए स्वाभाविक ही उनकी कहानियों में एक दार्शनिक पुट दिखाई देता है। इन कहानियों में जीने के संघर्ष के विकट रूप जगह-जगह मौजूद हैं लेकिन यह संघर्ष सिर्फ रोज्जमर्रा का नहीं है, अस्तित्वगत भी है। यातना, दर्द और घुटन भोगती जिंदगियों की दास्तान कहती ये कहानियाँ घर-परिवार के परिवेश के अलावा अधिकतर अस्पताल जैसी चिन्ता और सन्ताप भरी जगहों पर घटित होती हैं। ये वो क्षण होते हैं जब आदमी न सिर्फ़ मृत्यु की अटल सच्चाई का क़रीब से सामना करने के लिए अभिशप्त होता है बल्कि जीवन को भी पहले से कहीं ज्यादा शिद्दत से महसूस कर पाता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि विवेक मिश्र जीवन के दारुण सच के कथाकार हैं। उन्होंने अवैध रेत खनन, विस्थापन, और विकास के नाम पर, भ्रष्टाचार के जरिये होने वाली जमीन की लूट जैसे मसलों पर भी कहानी लिखी है। लेकिन यहाँ भी नदी और पानी उनका खास सरोकार है। उनकी कहानियों में जो शोक और सन्ताप के स्वर सुन पड़ते हैं उनके पीछे अस्तित्व के संकट का बोध है और कहना न होगा कि इसमें पर्यावरण का संकट भी शामिल है। उनके कहानी-संग्रह कारा की कहानियों में गहराई भी है और पठनीयता भी।
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