उपन्यास >> साँप साँपरत्नकुमार सांभरिया
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"'साँप': हाशिए के जीवन का यथार्थ, संघर्ष की जिजीविषा और उम्मीद की रोशनी।"
आजादी प्राप्ति के बाद चार पंचवर्षीय योजनाओं की अवधि कम नहीं होती। परिवर्तन की बाट जोहते समुदाय यह नहीं जानते कि उन पर किनकी निगाह जाएगी और उनके दिन कब बहुरेंगे। राजनीतिक लोकततन्त्र तो आ चुका है, लेकिन उसको सार्थक और टिकाऊ बनाने वाले सामाजिक लोकतन्त्र को अभी समुन्नत होना है। रत्नकुमार सांभरिया का उपन्यास ‘साँप’ इसी उपेक्षित, कमदेखे, अनदेखे पहलू को सामने लाता है।
उपन्यास की कथाभूमि घुमन्तू समुदायों के जीवन से निर्मित है, परन्तु इसे प्राणवान बनाते हैं वे प्रयास जो स्थिति को बेहतर बनाने के मकसद से किये गये हैं। मदारी, कलंदर, बाजीगर, सपेरे आदि ‘धरती बिछाते हैं, आकाश ओढ़ते हैं।’ लखीनाथ सपेरे के अकुण्ठ व्यक्तित्व, पारदर्शी स्वभाव, दृढ़शील और करुणा मिश्रित कर्त्तव्य परायणता से कोई भी प्राणी उसकी ओर आकर्षित हो सकता है, मिलनदेवी तो सहज संवेदनशील हैं। त्याग और स्वार्थ, प्रेम और कृतज्ञता के सन्तुलन पर टिका लखीनाथ और मिलन का नाता ऐसा रसायन तैयार करता है जिसे कोई नाम दे पाना कठिन है।
पुलिसतन्त्र की बेरहमी, सत्तातन्त्र की बेरुखी और धनतन्त्र की बेमुरव्वती का योग सामाजिक लोकतन्त्र के लिए घातक है। ‘जन मन समिति’ की कोशिशें अन्ततः सफल होती हैं और नाउम्मीदी के घटाटोप में आखिरकार उम्मीद की लौ फूटती है। हिन्दी साहित्य में बहुप्रचलित साठोत्तरी मोहभंग इस उपन्यास में पलटी मार गया दिखता है। जिन घुमन्तुओं के रहने का कोई ठिकाना नहीं था उन्हें पक्की कालोनी मिलती है। अपनी परिणति में उपन्यास का आशावादी होना लेखक की वस्तु योजना की सार्थक फलश्रुति है। ‘साँप’ के कथा-विन्यास में यथावसर अस्मितावादी आग्रहों की अभिव्यक्ति है बावजूद इसके पात्रों के चरित्र में अप्रत्याशित परिवर्तन के प्रलोभन से उपन्यासकार स्वयं को भरसक बचाता चलता है। कसी हुई रचनात्मक भाषा, जीवनानुरूप अनूठी, अनचीन्ही, भावगर्भित शब्द सम्पदा ‘साँप’ को यादगार पाठ बनाती है।
– बजरंग बिहारी तिवारी
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