नारी विमर्श >> महिला मृदुवाणी महिला मृदुवाणीगरिमा श्रीवास्तव
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"साहित्य में स्त्री की अनसुनी आवाज़ों के माध्यम से इतिहास की पुनर्व्याख्या।"
यह तय है कि शोध और आलोचना की अपनी सीमायें होती हैं और यह बात रामविलास शर्मा जैसे आलोचकों पर भी लागू होती है जिन्होंने पूरे साहित्येतिहास में एक भी स्त्री-रचनाकार को उल्लेखनीय नहीं माना, जबकि भक्ति और रीति काल में हमें स्त्रियों की पूरी परम्परा मिलती है जो रचनारत थीं। लेकिन क्या कारण है कि बरसों तक मीरा, सहजोबाई और ताज सरीखी दो-चार के अलावा इतिहास की किताबों में स्त्रियों का ज़िक्र नहीं किया गया ? जिन स्त्रियों ने लिखा भी वे अक्सर दूसरों के नाम से या छद्म नामों से छपीं। क्या हम इसके मनो-सामाजिक कारणों को बतौर पाठक और आलोचक देख पाने में सक्षम होते हैं, जबकि हर युग की आवश्यकतानुसार इतिहास भी पुनर्व्याख्या की माँग करता है। ऐसे में नवजागरण ही नहीं प्रत्येक दौर की स्त्री रचनाशीलता की पुनर्व्याख्या होनी चाहिए। समाज और सत्ता से स्त्री के बदलते सम्बन्ध, उसके लेखन के भीतर छिपी हुई दुविधाएँ, जो दरअसल उसकी ईमानदारी का परिचय देती हैं, सर्वोच्च सत्ता को लौकिक रूप में पहचानने की कोशिश, अपने नाम की जगह ‘अबला पतिप्राणा’ जैसे पदों का प्रयोग, वर्तमान संदर्भों में विवेचन करके ही स्त्री साहित्येतिहास की मुकम्मल समझ विकसित की जा सकती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रीतिकाल के संदर्भ में कहा था कि इसमें मौलिकता का अभाव है। नवजागरण के दौर में कई आन्दोलनों के सामने आने से मौलिकता एक आलोचनात्मक पद के रूप में विकसित हुई। इतिहास को देखने और इतिहास में शामिल होने योग्य विषयों की सारवस्तु बदली। हमने मौलिकता की सामाजिक भूमिका को देखना शुरू किया, साथ ही समाज को एक आलोचनात्मक दलील (क्रिटिकल आर्गुमेंट) के रूप में देखने की कोशिश भी। भक्तिकाल की तरह इस दौर के रचनाकारों में भी लोकचिन्ता अपनी पूरी अकादमिक ईमानदारी के साथ दिखाई पड़ती है।
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