नाटक-एकाँकी >> उत्तर कामायनी उत्तर कामायनीदलीप वैरागी
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विध्वंस के अंधकार में बची केवल तलाश और ठिकाने लगाने की विवश पुकार....
(पर्दा खुलने पर अंधकार। प्रकाश वृत्त एक युवक पर आता है, युवक आलोकित होता है। प्रकाश वृत्त ठहरा हुआ है। युवक भी स्थिर है। केवल संगीत चल रहा है। युवक में हल्की जुंबिश… चेतना अधिक होने पर कराहटें… अचानक उठ बैठता है। विस्फारित आँखों से अपने चारों ओर देखता है। बड़ी तत्परता से मंच पर कुछ तलाशने लगता है। अचानक कुछ क्षण के लिए मंच से गायब… कुछ अस्पष्ट प्रलाप, जैसे किसी को पुकार रहा हो। उसी हालत में मंच पर आकर तलाश जारी… अंततोगत्वा वह अपना सिर पकड़ कर खड़ा हो जाता है, जैसे अभी गिर पड़ेगा। ऐसा प्रतीत होता है कि पेट से उठे शब्द कंठ तक आकर दम तोड़ रहे हैं। लंबे सन्नाटे को तोड़ते हुए बोल उठता है।)
कहाँ गए सब के सब ?… शायद मर गए।
(अचानक भूल सुधार करते हुए)
शायद क्यों यकीनन मर गए होंगे। इस विध्वंस-यज्ञ में भला किसी के बचे रहने की उम्मीद की जा सकती है ?
(सन्नटा)
इतनी लाशों में से अपनों को कैसे खोजूँ ? पहचान हो जाए तो ठिकाने लगा दूँ। … नहीं अपने-पराए का भेद तो संकुचित हृदय के लोग करते हैं… शायद कहीं पढ़ा था यह …. मुझे सबको ठिकाने लगाना होगा।
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