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हिंदी साहित्य का पुनरालोकन

विद्यानिवास मिश्र

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1734
आईएसबीएन :81-7315-307-8

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प्रस्तुत है हिंदी साहित्य का पुनरालोकन....

Hindi Sahitya Ka Punravlokan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

हिंदी साहित्य के पुनरालोकन की आवश्यकता कई कारणों से है। विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में यह तर्क दिया जा रहा है कि खड़ीबोली का साहित्य ही इतना विशाल है कि छात्रों पर व्रज, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, राजस्थानी जैसी समृद्ध साहित्य परंपराओं से परिचय कराना अनावश्यक बोझ है। विद्यापति, मीरा, सूर, तुलसी, देव, बिहारी, पद्माकार, ठाकुर ये सभी हटा दिए जाएँ। एक तो भाषा की कठिनाई, दूसरे इन कवियों की भावभूमि भी छात्र के लिए अप्रासंगिक है। हिंदी के बाहर के विश्वविद्यालयों के ठूँठे अध्यापक का भी मान रखना है, बस हिंदी साहित्य का आरंभ नई रोशनी जब से हिंदुस्तान में आई, अर्थात् उन्नीसवीं सदी के आरंभ से माना जाय। इसके विपरीत देश के बाहर के विश्वविद्यालयों के साहित्य मर्मज्ञ कहते हैं कि हमें तो इस साहित्य की गहराई में ले चलिए, जो हमारे लिए स्पृहणीय है। केवल आधुनिक साहित्य हमारे यहाँ पढ़ाएँगें, यह तो ढेरों हमारे पास भी है। हमारे यहाँ अध्यापक के साथ कुछ रचनाकार भी जुड़ गए हैं, कुछ स्वयंभू आलोचक भी जुड़ गए हैं और आधुनिकता के नाम पर केवल बॉब-कट से संतोष नहीं।

वे क्रयूकट कराए बिना सिर की शोभा मानते ही नहीं; सिर पर कुछ भी बोझ न रहे। कोई यह नहीं स्वीकारता कि साहित्य के अध्यापन में हम परिश्रम से बचना चाहते हैं। इतिहास खैर पढ़ा देंगे, इसके कालखंड़ों के नामकरण पर भी नोट लिखा देंगे। साहित्य का मूल पाठ भाषा की गहरी पैठ माँगता है, उसमें समय बरबाद नहीं करेंगे। जानबूझकर ऐसी पृष्ठभूमि रची जा रही है कि अब यह फिर से बता देना नितांत आवश्यक हो गया है कि हिंदी साहित्य की जमीन गंगा के विशाल जलक्षेत्र की तरह कुशल किसानी के कारण अभी भी अपनी उर्वरता बनाए हुए है। उसमें कई नदियों का पानी है, कई पर्वतमालों की मिट्टी बहकर आई है। इस खुले मैदान में आँधी पानी, लू, लहराती बारिश और कुहरे की छाँह में तिप्- तिप् ओस की टपकन-यह सब इस साहित्य के परिपात्र में उपादान रहा है। यह बतलाने की जरूरत है कि हिंदी साहित्य संस्कृत साहित्य, पालि प्राकृत साहित्य और अपभ्रंश साहित्य की विरासत सँभालने के साथ-साथ उन सभी घातों-प्रतिघातों को सबने और उन्हें मोड़ने में सबसे अधिक सक्रिय भूमिका निभाने वाला रहा है। मेरा संकेत फारसी, अरबी तुर्की, मध्य एशियाई इन सब साहित्यों से हिंदी के आदान-प्रदान की ओर हैं। हिंदी क्षेत्र में उन्नीसवीं सदी तक संख्या में ही नहीं, गुणवत्ता की दृष्टि से भी सबसे अधिक समृद्ध फारसी साहित्य लिखा गया, छापा गया। फारस की केवल चित्रकला की रंगतें बदलने में देशी चित्रकला समर्थ नहीं थी, साहित्य भी फारसी कविता को नया सूफियाना रंग देने में समर्थ सिद्ध हुआ।

 इस प्रकार न केवल हिंदी की अभिवृद्धि में हिंदीभाषी क्षेत्र से बाहर के लोगों का योगदान है, हिंदी का भी बहुत बड़ा योगदान दूसरे साहित्यों की अभिवृद्धि में रहा है। हिंदी न केवल दूसरी भाषाओं को परस्पर संयोजित करने का और अनुवाद के माध्यम से उन्हें दूर तक संप्रेषित करने की भूमिका निभाती रही, वह क्षेत्रीय अभियान को देशव्यापी अभियान बनाने में भी अग्रसर रही।

एक और महत्त्वपूर्ण पुनरालोकन का मुद्दा है। वह है संस्कृत और प्राकृत दोनों से छनकर आई भाषा होने के कारण और दोनों की तरह केंद्राभिमुखी भाषा की भूमिका निभाने के कारण हिंदी ने सेतु का काम किया है। वह जितनी भद्रलोक की भाषा है उतनी ही इतर की भी; बल्कि कहना यह चाहिए कि उसने ‘भद्र’ और ‘इतर’ के बीच भेद रहने नहीं दिया। न उसमें उत्तरवर्ती प्राकृत का अति सरलीकरण है, न संस्कृत की अति संश्लिष्टता। उसने समय-समय पर अपने स्वरूप को परिष्कृत भी किया, लचीला भी बनाया। वह केवल तस्सम की ओर नहीं झुकी, हठपूर्वक तद्भव की ओर भी नहीं ‘ठेठ हिंदी का ठाठ’ बस ठाठ ही बनकर रह गया। उसने लोकभाषाओं के मुहावरे निरंतर लिये। इसके कारण उसमें जीवंतता आई, खुरदरी जिंदगी का संस्पर्श आया। दूसरी ओर उसने संस्कृत की विचार शैली ली, उससे शब्द- विन्यास नए-नए ढंग से लिया।

इसके फलस्वरूप उसमें गरिमा आई। इस संतुलन का जो महत्त्व नहीं समझते, वे कभी हिंदी में उर्दू जरूरत से ज्यादा घोलकर अजनबी बनाने की कोशिश करते हैं, ताकि अजनबी के करीब पहुँच सकें और कभी वे इतनी बनावटी संस्कृतनिष्ठ शब्दावली गढ़-गढ़ के उड़लते हैं कि हिंदी को अजायबघर के लायक बना देते हैं। संतुलन का कौशल सीखने के लिए ही कबीर, विद्यापति, सूर, तुलसी, और उत्तर-मध्यकाल के व्रजभाषा कवियों या पलटूदास जैसे संत कवियों के पास जाना होगा। कैसे ‘सोहमस्मि इति वृत्ति अखंडा’ जैसी भाषा ‘फोरइ जोग कपार हमारा’ जैसी भाषा से एक ही रचना में संतुलित होती है, यह तुलसीदास को ढंग से पढ़े बिना कैसे समझ में आएगी। रहीम एक ओर लिखते हैं-

‘अच्युतचरण तरंगिनी सिव फिर मालति माल।
हरि न बनायौ सुरसरी दीजै इंदव भाल।’

(विष्णु के चरणोदक से निकली गंगा, शिव के सिर की मालतीमाला बनी गंगा ! तुम, मैं जब मरूँ तो, हरि न बनाना, मेरे भाल पर इंदु रच देना। दूसरी ओर वही लिखते हैं।

‘लहू के हाथ उपरियाँ होइगी आगि।
घर के बाट बिसरिगै गोहने लागि।’

(हाथ में उपला लेकर आग लेने पड़ोस में गई। स्वयं आग हो गई। घर की राह भूल गई। जिससे आग मिली थी उसी के पीछे हो ली।)
यह संतुलन हम बनावटी उपायों से लाना चाहते हैं, अपने पास सहज प्राप्त उपायों से नहीं। हिंदी एक समग्र भाषा है, एक समग्र भाव है। खड़ी बोली उसका ढाँचा मात्र है। यह सारे देश में कविता के माध्यम के रूप में, संगीत के बोलों के माध्यम के रूप में व्रजभाषा प्रचलित थी तो वह वज्रभाषा व्रज क्षेत्र की बोली पर आधृत भर थी। वहीं तो उसमें स्थानीय रंगतें ऐसी मिल गई थीं कि वह सार्वदेशिक हो गई थी। सारे देश में जो काम के बोल हैं, वे वज्रभाषा के हैं; जैसे सारे देश में ठुमरी-दादारा पूरबी के जो बोल हैं, वे अवधी-भोजपुरी के हैं। हिंदी खड़ी बोली नहीं है। यह पहचान आपको करनी हो तो मेरठ के आसपास जो भाषा रूप बोला जाता है, उसे पूर्वी उत्तर प्रदेश में बोलकर देखिए, वह समझ में नहीं आएगी। जबकि वहाँ भी पंचायत स्तर की कार्रवाई हिंदी में होती है। दिल्ली निवासी भले ही बिहारी हिंदी के अनुतान पर हँस ले, पर उस बिहारी हिंदी को समझ तो लेता ही है, भोजपुरी भले ही न समझ पाए।

हिंदी क्षेत्र में बीस-इक्कीस लोक भाषाओं के उपक्षेत्र सन्निविष्ट हैं। इनमें से प्रत्येक की अपनी एक उपमानक हिंदी है, जो स्थानीय रंग के कारण सार्वदेशिक मान्यता प्राप्त नहीं है; परंतु इन सभी उपमानकों के बीच संप्रेषणीयता का मानक रूप बनता रहता है। उसी का नाम हिंदी है। वह रूप लोगों के मन में बराबर नियंत्रक रूप में रहता है। व्यापक समुदाय तक पहुँचने की इच्छा हिंदी को संकीर्ण नहीं होने देती, न वह उसे थोड़े से शिष्ट लोगों की जुबान बनने का अभिमान पालने देती है।
भाषा स्तर पर जो ऊपर बात कही गई वही भाव स्तर पर भी लागू है। हिंदी का आंचलिक साहित्य भी परिवेश चाहे निजी रखे, पर उसे छोटे से परिवेश के माध्यम से बड़े देश की बात करता है। प्रेमचंद हों। वृदावनलाल वर्मा हों, फणीश्वरनाथ रेणु हों। इन सभी में उस बड़े देश की चिंता रेखांकित है। बरसों पहले राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन की सन्निधि में रहने का भाग्य मिला था। कुछ ढीठ हो गया था। एक दिन उनसे बातचीत हो रही थी प्रेमचंद्र के बारे में। मेरे मुँह से निकला ‘बाबूजी, प्रेमचंद्र बड़े ठस्स लगने लगते हैं। शरच्चंद्र की तरह छूते नहीं’। बाबू जी ने बड़ी मुलायमित से समझाया-‘तुम तो पारंपरिक परिवार के हो, जानते हो न कि संयुक्त परिवार में एक कर्ता होता है। वह सब परिवार जनों का हित सोचता है। उसके लिए सभी बच्चे अपने होते हैं। उसी प्रकार घर में एक पुरखिन होती है, जो सबकी माँ होती है।

यह कर्ता, यह पुरखिन घर के हर व्यक्ति का दुःख अपने ऊपर ले लेते हैं। वे कभी रोते नहीं, कभी भावोच्छवासित नहीं होते। दूसरे सदस्य रो लेंगे, कोस लेंगे, लड़ लेंगे, पर कर्ता को। पुरखिन को, इसकी अनुमति नहीं है। हिंदी की भूमिका कर्ता की है। हिंदी उपन्यास की नायिका भी रोएगी नहीं, पति के मरने पर भी संयम बनाए रहेगी, बनी रहेगी। हिंदी साहित्य का महत्त्व इस दृष्टि से फिर से समझने की कोशिश करो। मैं आज भी उनकी बात याद करता हूँ तो लगता है, साहित्य की समझदारी विश्वविद्यालयो से नहीं आती, वह देश की प्रकृति की सही समझ से आती है, साहित्य के गहरे अनुशीलन से आती है। जो लोग एकांगी भाव से तुलसी को छोड़कर कबीर की बात करते हैं वे जमाने के करीब हैं, वे सर्वहारा हैं। वे क्या जानेंगे, किस भूख की ज्वाला ने तुलसी को तपाया है। वे कभी कवितावली पढ़ेंगे। वे कभी यह मार्मिक पंक्ति पढ़ेंगे-‘नहिं दरिद्रसम दुख जग माहीं।’ वे कबीर में आक्रोश तो देखेंगे, पर हरि को बिलोनेवाली उमंग नहीं देख पाएँगे। वे विद्यापति का उत्तान श्रृंगार देखेंगे, पर ‘माधव अपरूब तोहर सिनेह। अपने बिरह अपन तनु जरजर जिवइत भेल संदेह’ की अपार व्याकुलता नहीं देख पाते।

इसी प्रकार जो लोग कबीर को अकवि मानकर अलग कर देते हैं कितने अनमोल अनुभव से वे वंचित हो जाते हैं, वे क्या समझेंगे। कबीर और सूर तुलसी की मिलनभूमि है। भक्त जनोचित आचार का निर्मल रूप, उसकी अनदेखी करें तो उनका संदेश आधा ही हाथ में आएगा। वे मुक्ति की बात करते हैं। मुक्ति से ऊपर जाकर बडे व्यापक भाव में सहभागिता या भक्ति की बात करते हैं; पर वे लोक के लिए करते हैं, अपने लिए नहीं और उनका सामाजिक विधान इसी व्यापक भाव पर बना है। वह अस्ति सापेक्ष है, वह निरा भौतिक नहीं। ऐसी ही खंडित दृष्टि का शिकार हुआ है उत्तर मध्य युग का श्रृंगारी काव्य। कुछ प्रसिद्ध आलोचकों ने अपने युग के मानदंडों से प्रभावित होकर या आतंकित होकर इस युग के श्रृंगारी काव्य को ओछा और हेय घोषित क्या किया कि बिना पढ़े लोग इस साहित्य की रसवत्ता से विमुख हो गए। पंत भले ही इस काव्य को। बल्कि और आगे जाकर सूर के काव्य को भी, कोसें, पर इतिवृत्तात्मकता से ऊपर पाने के लिए उन्होंने अपने सादृश्य विधान, अप्रस्तुत विधान इसी कविता से लिये हैं।

वे ही बिंब हैं। पंतजी के यहाँ आए, इसलिए वे आध्यात्मिक चेतना बन गए। प्रसाद और निराला ने, नवीन ने तो मुक्त भाव से इस कविता के सौष्ठव से भरपूर लिया है। ‘अँखियन की बंदनवार तनी’ (देव) को ‘छाए पलक पर प्रान कि बंदनवार बने तुम’ निराला से जोड़कर देखिए, तो लगेगा कि यह नकल नहीं, यह देखने का एक जातीय प्रकार है। देव और निराला मूलतः एक ही जातीय बोध के कवि हैं। कविता नई जमीन तोड़ती जरूर है, पर जमीन तोड़ने की प्रविधि उसकी नई नहीं होती और जो जमीन तोड़ती है, वह भी कभी तोड़ी गई होती है, बाद में चाहे बंजर छोड़ दी गई हो। कविता आकाश की ओर बढ़ती जरूर है, पर आकाश में पैदा नहीं होती। वह पैदा होती है जमीन में। पुनरालोकन इसलिए आवश्यक है कि हिंदी निर्धारित के कालखंड कोई मेंड़ नहीं है, एक-दूसरे से विच्छिन्न नहीं हैं। वे उत्तरोत्तर काल प्रवाह दबते-उभरते जाते हैं। छायावादी कविता के बाद यदि शरीर नई सार्थकता के साथ लौटता है, वहाँ ‘अमरुशतक’, ‘गाथासप्तशती’ का शरीरी श्रृंगार कहीं-न-कहीं है। उसी प्रकार अज्ञेय में कालिदास या भावभूति का क्लासिकी रूप कहीं-न-कहीं जागता है। ‘दुःख सबको माँजता है’, कहीं-न-कहीं, ‘दुःख संवेदनायैव रामे चैतन्यमर्पितम्’ की अनुगूँज है। इस प्रसुप्त निरंतरता को समझे बिना हिंदी साहित्य की यात्रा ठीक तरह से नहीं समझ में आएगी।

वाराणसी,
गुरु पूर्णिमा, 1056

विद्यानिवास मिश्र



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