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मोटकी एवं अन्य कहानियाँ

प्रदीप श्रीवास्तव

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 17348
आईएसबीएन :9781613018125

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प्रदीप श्रीवास्तव की नौ लम्बी कहानियाँ

कोहरे से ढकी वह सुबह ठंड से ठिठुर रही थी। कोहरा इतना कि दस-बारह क़दम आगे चल रहा आदमी भी गुम हो जा रहा था। मैं ढेर सारे ऊनी कपड़े पहने, टोपी के ऊपर मफ़लर कसे हुए था। केवल आँखें दिख रही थीं, जिस पर चश्मा लगा रखा था। लेकिन घर से निकलने के कुछ देर बाद ही मुझे चश्मा वापस जेब में रखना पड़ा। क्योंकि कोहरा इस तरह ग्लास को ढक ले रहा था कि वह ओपेक हो जाता, कुछ भी दिखाई नहीं देता।

मैं पंचर बाइक लिए पैदल ही चल रहा था। उसे स्टार्ट कर पहले गियर में हल्का एक्सीलेटर ले रहा था। इससे उसे खींचने में ताक़त नहीं लगानी पड़ रही थी। पेट्रोल पंप क़रीब एक किलोमीटर दूर था।

हवा भरवाने के बाद मुझे क़रीब पंद्रह किलोमीटर दूर दस बजे तक अपने ऑफ़िस पहुँचना था। इस घने कोहरे के चलते मैं किसी से या कोई मुझसे भिड़ न जाए, इसलिए मैंने हेड-लाइट ऑन कर रखी थी।

सड़क पर बहुत कम ट्रैफ़िक था। बहुत ही कम लोग और गाड़ियाँ दिख रही थीं। मैं जब पम्प पर पहुँचा तो हवा मशीन पर हमेशा जो लड़का मिलता था, वह नहीं मिला। पम्प के ऑफ़िस की तरफ़ देखा तो वह दरवाज़ा खोलकर आता हुआ दिखाई दिया।

उसने पूरा कंबल इस तरह लपेट रखा था कि उसकी भी केवल आँखें ही दिखाई दे रही थीं। पहिया देखते ही उसने कहा, "साहब अब इसका टायर-ट्यूब बदलवा ही दीजिए। बहुत पुराना हो गया है।"

मैं पेट्रोल, हवा के लिए हमेशा वहीं जाता हूँ, इसलिए वह बातूनी लड़का बात कर लेता है। उसकी बात सही भी थी कि, टायर-ट्यूब बदलवाने वाले हो गए हैं। मगर गृहस्थी के प्रेशर और कोरोना वायरस के तले दबी अर्थ-व्यवस्था ने नौकरी भी दबोच रखी थी। वेतन आधा मिल रहा था। किसी तरह घर, जीवन खींच रहा था। उस बातूनी से मैं क्या कहता कि, इस छह साल पुरानी बाइक से भी ज़्यादा ख़राब चल रही है गृहस्थी की हालत।

वह हवा भरने का अपना ताम-झाम सही कर रहा था और मैं तमाम कपड़ों के बावजूद कँपकँपी महसूस कर रहा था। हेलमेट बाइक की हेड-लाइट पर था, मैंने उसे भी पहन लिया। उसकी भी हालत बाइक जैसी ही थी।

मैं सड़क की ओर मुँह किए था। तभी मुझे आठ-दस क़दम की दूरी पर वह टेढ़ा जूता फिर दिखाई दिया, जो पिछले कई महीनों से, मैं जब भी समय से ऑफ़िस आता-जाता तो उसी सड़क पर दिखता था।

जिस व्यक्ति के पैरों में वह टेढ़ा जूता इतने दिनों से देख रहा था, उसके बारे में तब इतनी ही कन्फ़र्म जानकारी थी कि वह उसी कंपनी में है, जिसमें मैं हूँ। यह बात भी उस दिन जान पाया, जिस दिन कंपनी के सभी कर्मचारियों को कंपनी की युनिफ़ॉर्म पहनकर ऑफ़िस पहुँचना होता है। लेकिन वो किस विभाग में हैं, यह नहीं मालूम हुआ।

मैं जिस विभाग में हूँ उसका ऑफ़िस शहर के दूसरे छोर पर है। शहर भर में कंपनी के दर्जनों ऑफ़िस में हज़ारों कर्मचारी हैं। उनमें किसी के बारे में जानना तब-तक बहुत मुश्किल है जब-तक कि विभाग आदि की सही जानकारी ना हो।

मैं जब भी उन सज्जन को देखता तो बहुत परेशान हो जाता। उनका टेढ़ा जूता, जिसके तलवे इतने घिस गए थे कि, उन्होंने उसके नीचे टायर की पतली पट्टी जड़वा ली थी। काम बहुत रफ़ ढंग से किए जाने के कारण जूता टेढ़ा हो, आगे की ओर उठा हुआ था।

वह इतना डिस्शेप हो गया था कि, उससे उनके चलने का तरीक़ा ही बदल गया था। तरीक़े से साफ़ पता चलता था कि, वह उन्हें काफ़ी तकलीफ़ दे रहा है। उस समय मेरा ध्यान उनकी बाक़ी तकलीफ़ों की तरफ़ गया और उन तकलीफ़ों का एहसास कर मैं सिहर उठा।

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