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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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भूमिका

पिछले साठ सालों में अपनी एक सौ सत्तर से भी अधिक औपन्यासिक कृतियों द्वारा अपने सर्व भारतीय स्वरूप को निरन्तर परिष्कृत और गौरवान्वित करने वाली लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी 8 जनवरी, 199० को अपने सक्रिय जीवन के 8० वर्ष पूरे कर नौवें दशक में पदार्पण कर रही हैं। बंकिमचन्द्र, रवीन्द्रनाथ और शरत्चन्द्र के बाद बंगाल के अन्दर और बाहर तथा महिला लेखिकाओं में सर्वप्रथम लेखिका के रूप में आशापूर्णा का नाम ही एक ऐसा सुपरिचित नाम है जिसकी हर कृति पिछले पचास सालों में एक नयी अपेक्षा के साथ पढ़ी जाती रही है और जो अपने पाठक को एक नये अनुभव के आलोकवृत में ले जाती है। यह आलोक-वृत्त परिक्रम-मात्र नहीं होता उसमें नयी प्रेरणा और दिशा भी होती है।

आशापूर्णा देवी की लेखिका का लेखन-संसार उनका अपना या निजी संसार नहीं है। वह हम सबके घर-संसार का ही विस्तार है। इस संसार को वह नयी-नयी जिज्ञासा के रूप में देखती रही हैं-कभी नन्ही-सी बिटिया बनकर तो कभी एक किशोरी बनकर, कभी नयी-नवेली दुलहन के रूप में तो कभी अपनी कोख में एक नयी-दुनिया लेकर ममतामयी माँ के रूप में, तो कभी बुआ-मौसी-मामी या चाची की भूमिका में...प्रौढ़ गृहिणी बनी घर-संसार का दायित्व सँभाले तो कभी...दादी...नानी और असहाय वृद्धा बनी किसी अभिशप्त काल-कोठरी में पड़ी सारे समाज के बदलाव को चुपचाप झेलती हुई।

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