लोगों की राय
कहानी संग्रह >>
किर्चियाँ
किर्चियाँ
प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
|
पुस्तक क्रमांक : 18
|
आईएसबीएन :8126313927 |
|
5 पाठकों को प्रिय
3465 पाठक हैं
|
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
केशव
राय को डइन सारी बातों की खबर नहीं थी। उन्होंने तो बस इतना ही देखा कि वह
लड़का पता नहीं कैसे अपनी माँ की घेरेबन्दी से छिटककर यहाँ तक आ गया है।
गीली बहती नाक...पेट मैं
जोंक...बाँह पर ताबीज और गले में बघनखा।
अचानक
केशव राय के मन में एक खूँखार हिंस्र भाव पैदा हुआ। प्रतिशोध की यह आग
गैर-कानूनी, सभ्यता-विरोधी और मानवता के सर्वथा विपरीत थी। गले में बघनखा
डाले उसकी गौरैया जैसी गर्दन को अपने नाखूनी पंजों से दबोच लेने की एक
अजीब-सी हवस उठी थी उनके मन में।
बस आधे मिनट का हइा? तो
काम था।
सिर्फ तीस सेकेण्ड में
उसका सबसे बड़ा शत्रु ढेर हो जाएगा।
केशव
राय ने चारों तरफ देखा। बदली घिरी दुपहरिया और तेज चलती हवा ने गाँव-जवार
के लोगों को घर के अन्दर बैठे रहने को मजबूर कर दिया था। आस-पास किसी आदमी
की छाया तक नहीं थी। वह रास्ता वैसे भी सुनसान पड़ा रहता था और आज तो यहाँ
से वहाँ तक एकदम खाली पड़ा था। केशव के जबड़े किटकिटाकर तालु से चिपक गये।
उसके हाथों के साथ दसों उँगलियों के नाखूनों में एक अजीब-सी हरकत हौने
लगी। हथेलियों में मचल रही एक नामालूम बहशी ताकत धीरे-धीरे पूरे तन-बदन
में फैल गयी और उस बच्चे की घिनौनी देह को मोड़-मचोड़कर पोखर के कंजे पानी
में फेंक देने को तड़प उठी।
यही तो मौका था।
किसी को पता तक नहीं
चलेगा।
इस
केंचुए को एक ही झटके में कुचलकर पोखर मैं फेंक दिया जाए और वह लौटती
ट्रेन से कलकत्ता लौट जाएँ तो कैसा रहे? वहाँ किसी भरोसे के परिचित के
यहाँ टिक जाएँ, यह बहाना बनाकर कि काम बहुत ऊगटा हे और निपटाकर ही जाना
है। बस...फिर क्या है...किला फतह।
...Prev | Next...
मैं उपरोक्त पुस्तक खरीदना चाहता हूँ। भुगतान के लिए मुझे बैंक विवरण भेजें। मेरा डाक का पूर्ण पता निम्न है -
A PHP Error was encountered
Severity: Notice
Message: Undefined index: mxx
Filename: partials/footer.php
Line Number: 7
hellothai