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प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 18
|
आईएसबीएन :8126313927 |
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5 पाठकों को प्रिय
3465 पाठक हैं
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
ऐसी
ही छोटी और न्यून घटना को और उसके अस्फुट वक्तव्य को संवादों में गढ़ते हुए
और बीच-बीच में पात्रों की मानसिकता को पढ़ते हुए अपनी प्रतिक्रिया से
'जादुई कलम' में अभिव्यक्त किया है। यह कहानी निश्चय ही किसी परिचित
हास्य-व्यंग्य लेखक की पाठकीय नियति को रेखांकित करती है। इस कहानी का
कथाधार लगभग उसी प्रसिद्ध कहानी जैसा है-जिसमें सर्कस का एक हँसोड़ पात्र
अपनी तमाम परेशानियों के बावजूद अपनी जीविका के निर्वाह के लिए
हँसते-हँसाते रहने और दम तोड़ देने को अभिशप्त है। यहाँ तक कि वह इस खेल
में अपनी जान भी दे देता है। ऐसी ही समानान्तर स्थिति में लेखिका ने प्रौढ़
प्रेम की संवेदना को पृष्ठभूमि में रखते हुए कथा-साहित्यकार सरोजाक्ष बाबू
की उस व्यर्थचेष्टा को मार्मिक ढंग से व्यंजित किया है, जिसमें एक बार
किसी पात्र या व्यक्ति की स्वीकृत भूमिका को बदला नहीं जा सकता। प्रेम
जैसे गम्भीर विषय की अनदेखी करते हुए, प्रेमिका के प्रस्ताव की अनसुनी
करते हुए हास्य-व्यंग्य लेखक पर यह दबाव है कि वह प्रस्तावित विशेषांक के
लिए जल्द-से-जल्द अपनी हास्य-कहानी तैयार कर भेज दें। यह विडम्बना लेखक के
जीवन की अभिशप्त परिभाषा बन जाती है और वह अपनी 'जादुई कलम' के हाथों एक
बँधुआ मजदूर बनकर रह जाता है। इसी तरह 'ठहरी हुई तसवीर' कहानी माँ और
पुत्र के सम्बन्ध को नये सिरे से और सर्वथा एक नये आयाम में प्रस्तुत करती
है। हवाई दुर्घटना में मारे गये पुत्र की स्मृति को प्राणपण से काये रखने
के लिए एक माँ (शाश्वती) की तपस्या जब एक स्मृति-मन्दिर के रूप में आकार
ग्रहण कर चुकी होती है और जब उसकी प्रतिष्ठा की शुभ घड़ी आ जाती है तब उसे
यह सूचना मिलती है, उसका पुत्र जीवित है। अपने अपंग और अपाहिज हो गये बेटे
के आगमन की सूचना पाकर वह आनन्दित नहीं बल्कि विचलित हो उठती है। उसे लगता
है उसकी सारी प्रतीक्षा, पीड़ा और अब स्मृति मन्दिर की प्रतिष्ठा से पूरी
होने वाली तपस्या को उसके पुत्र ने व्यर्थ कर दिया है। बड़े अप्रत्याशित
ढंग से माँ की सत्ता और इयत्ता और माँ तथा पुत्र-दोनों के बीच के तनाव को
उजागर करने वाली यह कहानी अपनी अन्विति में सर्वथा अनूठी और अछूती है।
पति-पत्नी
के बीच आये दिन होने वाली तकरार और झड़पों को लेकर न जाने कितनी कहानियाँ
लिखी गयी होंगी। इस संकलन में भी 'ऐश्वर्य', 'पद्मलता का सपना', 'जो नहीं
है, वही', 'वहम', 'हथियार', 'सीमा-रेखा', और 'अभिनेत्री' जैसी कहानियाँ इस
दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। आशापूर्णा देवी ने सामान्य नारियों की
विशिष्ट मानसिकता को सामान्य सन्दर्भों में और प्रतिकूल परिस्थितियों में
रखकर देखा है। 'ऐश्वर्य' कहानी में जहाँ पति पर स्नेह भरा अधिकार है वही
उसके कदाचार की अनदेखी करते हुए, पारिवारिक स्थितियों पर और उसकी मर्यादा
पर पर्याप्त अंकुश रखना भी नारी की जिम्मेदारी है। अगर संयुक्त परिवार के
ढाँचे को बनाये रखना और उसे टूटने से बचाना है तो बाहरी हस्तक्षेप को बिना
किसी प्रतिकार के, हँस-हँसकर झेलना होगा तभी 'ऐश्वर्य' की दूसरे शब्दों
में, अपने सम्मान की रक्षा की जा सकती है।
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