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प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 18
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आईएसबीएन :8126313927 |
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5 पाठकों को प्रिय
3465 पाठक हैं
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
वहाँ
जाकर देखा तो पाया कि वहाँ एक काला चींटा है...जी-जान से चिपका है बैटे की
सबसे छोटी-उँगली के पोर से। दस महीने के बच्चे के लिए यह काला चींटा किसी
केंकडे या बिच्छू से कम नहीं। बेटे को चुप कराने में उसे अपनी माँ की मौत
का दुख भूल जाना पड़ा। और बच्चे के उनींदे हो जाने पर अचानक उसे लगा कि
सारे घर में किसी चीज के जलने की बू फैल गयी है और तब प्रतिमा को याद आया
कि शाम के समय रसोई बनाने की मेहनत बचाने के लिए इसी समय चूल्हे पर चने की
दाल चढ़ा आयी थी। 'अच्छा ही हुआ, उस दाल का मुँह काला हो गया। बुझती हुई
चूल्हे की आग भी बुरे वक्त में ही बदला लेती है।
दाल
भले ही जल जाए लेकिन चूल्हे पर चढ़ी देगची भी जल जाए, ऐसा सोच लेने पर तो
नहीं चलेगा। अभी पिछले दिनों चार-पाँच पुरानी साड़ियों के बदले उसने इसे
खरीदा था।
बच्चे
को गोद में लिये-लिये ही उसने देगची को नीचे उतारा और रसोईघर पर साँकल
चढ़ाकर वह वापस चिट्ठी के पास ही बैठ गयी। उसे फिर हाथ में इस तरह उठा लिया
जैसे कि और कोई बात उसमें पढ़ने से रह तों नहीं गयी! और अचानक पता चलेगा
कि प्रतिमा अब तक कुछ गलत ही पढ़ती रही।
लेकिन नहीं तो...कहीं कोई
गलती नहीं थी।
प्रतिमा
की माँ सचमुच गुजर चुकी हैं। वर्धमान के उस घर में और यहीं-वहाँ हर जगह
ढूँढ़ते रहने के बावजूद अब प्रतिमा उन्हें फिर कभी देख नहीं पाएगी। पिताजी
कब के...बचपन में ही स्वर्ग सिधार गये उसे याद नहीं।...ले-देकर माँ ही
उसके लिए सब कुछ थीं।
तो फिर...सारा कुछ खत्म
हो गया।
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