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प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 18
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आईएसबीएन :8126313927 |
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5 पाठकों को प्रिय
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
और
'छाया-छवि?' जैसी है.........पड़ी रहे। ठीक ही है। बेटा जिस तरह सारे दिन
सेरो-बिसूरकर परेशान करता रहा है.........उसमें किसी सिने-पत्रिका के
पन्ने उलटने तक की फुरसत मिल सकती है भला?
प्रतिमा
ने रसोईसर में अपने लिए खाना परोसकर रखा था......थाली में भात वैसे ही पड़ा
था। महरी चिल्ला रही थी। प्रतिमा अब करे भी तो क्या? दिन भर सिर-दर्द से
वैसे ही परेशान रही है वह। सिर तक नहीं उठा पायी है। खाना कैसे खाती! वह
सारा भात महरी अपने बाल-बच्चों के लिए ले जाए।
रोज
की तरह चूल्हे में आग जलायी गयी। रात का खाना तैयार किया जाने लगा।
शक्तिपद हल्की-हल्की आँच पर परवल और आलू की बारीक कटी भुजिया और इसके साथ
गरमागरम पूड़ियाँ बहुत पसन्द करता था। आज वही बननी चाहिए। प्रतिमा को कुछ
नहीं हुआ है......वह तो ठीक-ठाक ही है।
घर के दरवाजे तक आकर
शक्तिपद के पाँव ठिठक गये। अन्दर से रोने-धोने की आवाज तो नहीं आ रही?
वह
चौकन्ना खड़ा रहा यह सोचकर कि रोने की आवाज तो सुनने को मिलेगी ही। लेकिन
उसे अपनी गलती का अहसास हुआ। तो फिर क्या हुआ? कहीं प्रतिमा अपनी सनक या
पिनक में वर्धमान तो नहीं चली गयी?......नहीं......ऐसा होता तो घर
का दरवाजा अन्दर से बन्द
क्यों होता? लेकिन ऐसी चुप्पी क्यों है भला? क्या बेहोश पड़ी है?
क्या
पता...प्रतिमा अन्दर बेहोश ही पड़ी हो? या फिर बच्चा नीचे गिर पड़ा हो और
उसका सिर फट गया हो...। छी...छी...शक्तिपद ने आज सुबह-सुबह कैसी बेवकूफी
की है!
शक्तिपद
ने धीरे-धीरे दरवाजे की कुण्डी को खड़खडाया...पहले आहिस्ता-आहिस्ता और इसके
बाद कुछ जोर से और फिर और जोर से...अबकी बार दरवाजा खुल गया। दरवाजा खोलने
वाली खुद प्रतिमा थी।
आज इतनी देर हो गयी,
प्रतिमा ने आम दिनों की तरह ही पूछा था।
देर हो गयी...।
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