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प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 18
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आईएसबीएन :8126313927 |
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5 पाठकों को प्रिय
3465 पाठक हैं
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
आहत
पौरुष
दुबली-पतली और छोटी-सी
वायनाकार देह।
रूखा-सूखा
चेहरा, तेज नुकीली दाढ़ी-मूँछ और चमड़े से मढ़ा हाड़-पंजर। लेकिन आँखों में
सारी दुनिया की पीड़ा और थकान। इस चेहरे को देखकर जवानी जैसे किसी शब्द को
इसके नजदीक नहीं लाया जा सकता...और अगर लाया भी गया तो सिर्फ हँसी ही
आएगी। छीछालेदर की इस सम्भावना के बावजूद उसने कहा था, ''कोई भी काम जब
मिलता ही नहीं है चाची...तब काम अच्छा है या बुरा, इस बात पर सोचना ही
बेमानी है। नौकरी वाला काम ही करूँगा। गले में पड़ी जनेऊ खोलकर रख
दूँगा....और क्या? ब्राह्मण होने की झूठी अकड़ छोड़नी पड़ेगी। जवानी के दिनों
में भी मामा के भरोसे कब तक बैठा-बैठा रोटी तोड़ता रहूँगा।''
तभी
उसके मुँह से जवानी की दुहाई देनेवाली बातें सुनकर मैं हँस पड़ी थी। लेकिन
दूसरे ही क्षण इसे बड़ी मुश्किल से दबाते हुए मैंने पूछा था, ''तुम्हारी
उमर कितनी है?''
उसने
जब बताया, ''पच्चीस...'' तो बेसाख्ता मेरी हँसी निकल पड़ी थी...''दो के ऊपर
पाँच...कहीं इसका आकड़ा उल्टा-पुल्टा तो नहीं हो गया? कहीं पाँच के ऊपर तो
दो नहीं?''
सचमुच
उसने पच्चीस के बदले अपनी उमर बावन बतायी होती तो मैं उस पर यकीन कर लेता।
लेकिन मेरी हँसी देखकर वह थोड़ी देर के लिए ठिठक गया। लेकिन मेरे सवाल के
पीछे छिपे संकेत को समझकर उसने सिर झुकाकर कहा, ''खाने को दो ठो दाना तक
नहीं जुटता चाची...इसीलिए शरीर की हालत इतनी खस्ता हो गयी हे।....और मामा
भी वैसे ही मक्खीचूस...।''
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