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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


रमोला ने तिरस्कार का उत्तर तो पहले सें ही तैयार कर रखा था लेकिन वह इस व्यग्य के लिए तैयार न थी। वह एक बार तो सकते में आ गयी लेकिन दूसरी बार जैसे सुलग उठी। विपबुझे स्वर में बोली, ''ज्यादा घबराने की जरूरत नहीं है। अचानक उस खबर के बारे में जानकर वह कोई पागल नहीं हो गयी। यह ठीक है कि वह दो दिन से चुप्पी साधे बैठी है लेकिन अपनी बेहयाई छिपाने के लिए। और मौत की यह खबर उसके लिए कोई नयी बात नहीं थी, उसने ठीक मौके पर ही सब कुछ सुन लिया था। लेकिन तुम्हारी इन जैसी मौसियों और बुआओं के श्रीचरणों मैं कोटि-कोटि बार नमस्कार करने कौ जी चाहता है। अपने इकलौते और जवान बेटे की मौत की खबर तक को एक सिरे से हजम कर जाने वाली और पिछले छह महीनों से उसी बैटे का नाम ले-लेकर जो औरत नौटंकी कर सकती है उसे और कहीं नहीं-तुम्हारे ही घर में देखा है मैंने।"

विभूति को ये सारी बात बड़ी अजीब-सी जान पड़ी। लेकिन रमोला के कुटिल और विद्रूप तेवर को देखकर उसे दूसरा कोई सवाल करने की इच्छा नहीं हुई...लेकिन उस चेहरे को तकते रहने पर उसके मन में अचानक बात जरूर कौंध गयी-ऐसै चेहरे और तेवर वाली औरत के साथ वह पिछले उन्नीस वर्षों से घर-संसार चलाता आ रहा है! बड़ा हैरानी की बात है! सचमुच!

लेकिन थोड़ी देर पहले सुनी कहानी भी कम आश्चर्य में डालने वाली नहीं है। और इस रहस्य का पर्दा अन्ना मौसी के सिवा कौन उठा सकता है भला!

...पहले तो वह कमरे मैं नजर ही नहीं आयी।...फिर बाद में वह उसी जंग खाये 'और उधड़े रंग वाले बक्से के पीछे दीख पड़ा। जहाँ तक सम्भव हो...अपने आपको सबकी निगाह से बचाती हुई।...चोर की तरह। विभूति को देखते ही उसने अपने आपको और भी सिकोड़ लिया।

विभूति उसी बक्से पर ही बैठ गया। उसने बिना भूमिका के कहा, ''अपने घर जाओगी मौसी?'' ''घर?''...अचानक मौसी को जैसे तिनके का सहारा मिला। उसने बड़ी बेचैनी से चिरौरी-भर स्वर में कहा, ''हां बाबा...वहीं जाऊँगा। दो दिनों से सोचती रही रे...पर कुछ तय नहीं कर पयिा। वही कर...जैसे भी हो...मुझे मेरे घर भिजवाने का कोई इन्तजाम कर दे।...वहाँ जाकर किष्टो के नाम गला फाड़-फाड़कर थोड़ा रो तो लूँ।...मैं महापापिनी हूँ रे...बेट की मौत का दुख हजम करके...पिछले छह महीनों से हँड़िया भर-भर भात भकोस रही हूँ रे...और यह सब देखकर ऊपर बेठा किष्टो कैसे खिल-खिलाकर हँस रहा होगा। अपनी टूटी मड़ैया में छाती कूट-कूटकर मैं उस पाप का प्रायश्चित्त करूँगी रें...।''

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