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प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 18
|
आईएसबीएन :8126313927 |
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5 पाठकों को प्रिय
3465 पाठक हैं
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
जो
नहीं है : वही
गायत्री
ने काफी देर तक अपने को आईने के सामने खड़े होकर निहारा...सामने सें...पास
से। आखिर उसके चेहरे में ऐसा क्या है? ऐसी क्या थी है कि जिसके चलते उसे
संसार के सौर मर्द उसकी और ललचायी नजर से देखते रहते हें-कम-से-कम श्रीपति
की तो यही धारणा है।
इस धारणा को क्या बदला
नहीं उना सकता, जिसके चलते श्रीपति को न तो तनिक चैन है और न गायत्री को
टुक आराम?
अवश्य
ही बदला जा सकता है! मर्द जात की आँखों में सचमुच लुभावना बने रहने की
इच्छा होने पर एक तरह के गौरव का बोध तो होता ही है। इस बात को स्वीकार
करने पर अपनी हेठी जरूर होती है लेकिन इसे पूरी तरह झुठलाना भी गलत होगा।
लेकिन गायत्री इस तरह का दावा करनेवाली सुन्दरी नहीं है और उसे इस बात का
पूरा अहसास भी है।
क्या श्रीपति को इसकी
जानकारी नहीं है? वह कार्ड अन्धा तो नहीं?
तो फिर कहीं ऐसा तो नहीं
है कि जो पति ऐसी सुन्दरी पत्नी के साथ घर-गृहस्थी चलाते हैं, उनके हृदय
में जंगल की आग दहकती रहती है?
इस
बात पर गायत्री को गुस्सा तो आता ही है, अपमान और दुख से भी वह सुलगती
रहती है। इस बेसिर-पेर की आग मैं जल-जलकर श्रीपति खाक हो जाएगा? घर में
किसी परिचित पुरुष के मिलने आते ही उसका सारा काम-काज ठप्प हो जाता है।
चाहे वह काम कितना भी जरूरी क्यों न हो? मिलने आने वाले आदमी की उम्र के
बारे में भी कुछ विचार करने की सुध-बुध तक खो बेठता है, ऐसा सनकी है वह।
अभी
उस दिन की ही तो बात है। वह अपनी आंखों की जाँच करवाने डॉक्टर के यहाँ जा
रहा था कि इसी समय ममेरे बहनोई राजेन आ गये। अपनी बेटी के विवाह का
निमन्त्रण-पत्र टेने। श्रीपति वहीं रुक गया। राजेन ठहरे बातूनी किस्म के
आदमी। लड़कों के मोल-तोल और बाजार-भाव के बारे में कहते चले गये। रुकने का
नाम नहीं और उठने की जरूरत नहीं। श्रीपति भी नहीं हिले। हालाँकि डाँक्टर
के साथ मिलने का समय पहले से तय था।
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