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प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 18
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आईएसबीएन :8126313927 |
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5 पाठकों को प्रिय
3465 पाठक हैं
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
कनक
ने झाड़ू-पोंछा करने वाली नौकरानी को पहले ही हटा दिया था जबकि नौकर खुद
काम छोड़कर, चला गया था। कनक ने यह भी सोचा था कि धोबी का बँधा-बँधाया
चक्कर हटा देने पर शायद कुछ बचत हो लेकिन साबुन और सोडा खरीद पाना भी बड़ा
कठिन हो गया है।...धीरे-धीरे और एक-एक करके नाश्ता और जलपान...चाय और भात
के संग-साथ जुड़े रहने वाले दूसरे उपकरण धीरे-धीरे गायब होते चले गये और अब
सिर्फ दाल से ही गुजारा हो रहा है। गनीमत है कि अभी भी उसे 'दाल' कहा जा
रहा है अगर उसे 'जल' कहा जाता तो कोई गुस्ताखी न होती।
अपनी
खातिर न सही लेकिन बच्चों के चेहरे की तरफ देखकर कनक के जी में आता है कि
वह दीवार पर सिर पटककर अपनी जान दे दे।...चीख-चिल्लाकर रोया भी नहीं जा
सकता। लोक-लाज का लिहाज न होता तो वह कभी-कभार बुक्का फाड़कर अवश्य ही रो
लेती।
कैसा हो गया था
यह...असहाय और अभिशप्त जीवन!
उसने
इतनी पढ़ाई-लिखाई भी नहीं की थी कि अपने तई कुछ कमाने-धमाने की कोशिश करती।
निम्न मध्यवर्ग की घर-गृहस्थी जिस तरह चला करती है उसी तरह दिन कट रहे
हैं। किशोरावस्था से लेकर जवानी तक और जवानी से...अधेड़ावस्था की ओर।
शिल्पकला या दस्तकारी का काम भी उस स्तर तक नहीं सीख पायी कि उसकी बदौलत
कोई सुविधा जुटा पाती। आखिर वह करे भी क्या? उसमें काम करने या सीखने की
जितनी क्षमता थी, वह सब वह पहले ही कर चुकी है...अब शंख की शाखा और
प्लास्टिक की जुड़वाँ चूड़ियों को धो-धोकर पीने से कहीं किसी का पेट भरता है?
तकलीफ
के ये दिन कैसे भी नहीं कटते! एक-एक दिन एक साल की तरह बीत रहे हैं। ऐसा
नहीं है कि वह सिर पर सवार दिनों को बाल की लटों की तरह झटक दे। उसे एक-एक
घण्टे और घण्टों में बँधे एक-एक मिनट और सेकेण्ड को झेलना था। स्कूल से
वापस आते ही भात खाने देने का लालच दिखाकर बच्चों का मुँह सुखाये बैठे
देखना भी वह किसी तरह झेल रही थी लेकिन जब स्कूल की फीस चुकाये न जाने के
अपराध में उन्हें वहाँ अपमानित कर घर वापस भेजा जाने लगा तो वह जैसे
तिलमिला उठी थी।
और तभी एकदम सै कातर होकर
उसने भैया को चिट्ठी लिखी थी।
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