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प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 18
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आईएसबीएन :8126313927 |
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5 पाठकों को प्रिय
3465 पाठक हैं
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
क्यों...भला
क्यों...चारों हाथ-पाँव सलामत रहने के बावजूद भूपाल इस तरह काहिलों की तरह
क्यों पड़ा रहता है?...भूपाल अपने तई काहिल नहीं जान पड़ता...लेकिन कनक
चाहती है कि भूपाल और भी कोशिश कर देखे। पास-पड़ोस से अखबार माँगकर पढ़ने
और खाली जगहों के विज्ञापन देखने भर या कभी-कभार एकाध जगह पर साक्षात्कार
देना ही काफी नहीं है। इससे भी बढ़कर कोशिश करने त्ही जरूरत है।...रास्तों
पर घूम-घूमकर...हाथ जोड़कर लोगों के पाँव पकड़कर...कुली या मोटिया का काम
कर...रिक्शा खींचकर...जैसे भी हो...भूपाल को घर में दो पैसे कमाकर लाना
है।...
पहले
के दिनों में अपने पति के हताश और दयनीय चेहरे को देखकर कनक के सीने में
करुणा का ज्वार-सा उमडा करता था...वह चाहती थी कि भूपाल घर-संसार की तमाम
परेशानियों से मुक्त रहे। लेकिन अब उसके मन में ऐसी कोई सहानुभूति पैदा
नहीं होती।
तब
भूपाल के मुँह से किसी तरह की कोताही की बात सुनती थी तो वह उसे रोक दिया
करती थी या हँसकर उड़ा देती थी। यहाँ तक कि शास्त्र वचन का हवाला देती हुई
उसे दिलासा देती थी, ''पुरुषों के मन की दस दशाएँ होती हैं...''
वही कनक आज मौके-बेमौके
भूपाल की कोताही और लापरवाही को फटकार सुनाती रहती है। कोई बात चली नहीं
कि उसे दुरदुरा देती है।
स्नेह,
सहानुभूति, करुणा, प्रेम और ममता की सभी धाराएँ सूख गयी हैं। सूख गयी
हैं...भूख से बिलबिलाते नीरू और यर की गर्म उसाँसों की आँच में...और उसका
मन कठोर हो गया है अपमानित सनत् और सुधीर की सूनी और फीकी नजरों की चाबुक
से।
चार
बच्चों की चार जुड़वाँ आँखों का मौन तिरस्कार कनक को लगातार बींध जाता था।
बच्चों के स्नेह से भी अधिक जो बात उसके कलेजे को गहरे बींध जाती थी वह थी
खुद अपनी ही आँखों में गिरा देने वाली शरम। उसके जी में यही आता कि कैसे
वह जमीन मैं गड़ जाए...जब भात परोसकर फीकी दाल की कटोरी आगे बढ़ाने के सिवा
उसके पास कुछ भी तो नहीं रहता। धरती फटे और उसमें वह कैसे समा जाए...! उसे
एक के बाद दूसरे और आने वाले हर दिनों में 'तबीयत खराब है' का बहाना बनाना
पड़ता है...''क्या करूँ बेटे...खाना ठीक से बना नहीं पायी।''
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