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किर्चियाँ
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प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 18
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आईएसबीएन :8126313927 |
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5 पाठकों को प्रिय
3465 पाठक हैं
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
लेकिन इसके बिना चारा भी
क्या है?
बाहर वाले कमरे में भैया
बेठे हैं। पति को नौकरी मिली है....इस खुशी में वह उनका मुँह मीठा
कराएगी...ऐसा ही तो कहकर आयी है वह!
सिक्का
में लगा सिन्दूर पोंछते-पोंछते उसके पुराने आँचल में छेद हो गया।...लेकिन
तो भी उसे इस बात का सन्देह था....कि कहीं उसकी विवशता का अन्तिम चिड़ तो
नहीं मिट गया....सिन्दूर का वह दाग....। कहीं दुकानदार इस बात को समझ तो
नहीं जाएगा?
और सनत्...कहीं सनत् इस
बात को न समझ ले।
लक्ष्मी के नाम पर चढ़ाये
गये रुपये से बरफी मँगाकर खिलाने के बारे में...वह कोई तर्क नहीं जुटा
पायी।
लेकिन क्या कनक भी कोई
दलील दे सकती थी इस बारे में।
लपलपाती
आग के हाथों से अपने को बचाने के लिए आदमी पानी में...वह कूद पड़ता है भला?
और तब तैरना जानने और न जानने का सवाल ही कहां रह जाता है?
क्या उस समय डूब जाने का
डर होता है?
*
* *
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