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प्रकाशक :
भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशित वर्ष : 2007 |
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 18
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आईएसबीएन :8126313927 |
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5 पाठकों को प्रिय
3465 पाठक हैं
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
इन बातों...दावों और
दलीलों का सिलसिला शुरू हुआ नहीं कि दिन भर चलता
रहता
है। जयन्ती घर में नहीं रहती इसलिए वह सब सुन नहीं पाती। ईश्वर ने उसे बचा
लिया है वर्ना इतनी सारी बकवास सुनकर पागल हो गयी होती।
घर
के दो-चार गिने-चुने सदस्यों के लिए भी खाना और नाश्ते का इन्तजाम करने और
गृहस्थी सँभालने में भी सत्यित्री को इतनी झुँझलाहट होती है? इतनी अकेली
हो जाती है? अगर उसके कन्धे पर घर भर के लिए खर्चा जुटाने का भार होता तों
पता नहीं क्या होता?
जयन्ती को यह सारा कुछ
करने के लिए हाड़-तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। इस बात को अब तक किसी ने सोचा भी
है?
माँ
की स्नेहभरी दृष्टि से भले ही सम्भव न हो पाया हो एक सामान्य प्राणी की
दृष्टि से भी क्या सावित्री यह सारा कुछ देख नहीं पाती है? जिस लड़की ने
सारी गृहस्थी को खड़ा करने के लिए अपने को पूरी तरह से निचोड़ दिया है,
उसके कानों के पास ही ये सारे बेहूदे और बे-बुनियाद आरोप लगाये जाते हैं।
विषैली फूत्कार और चीख-पुकार के साथ, एक ही सुर में कभी जमराज तो कभी
भगवान को बुलाया जाता है...। पता नहीं, उसका विवेक तो नहीं मर गया!
अगर उससे कुछ कहने को जाओ
तो रो-पीटकर ऐसा तमाशा खड़ा कर देगी कि हाट-बाजार का-सा दृश्य खड़ा हो जाएगा।
इससे तो अच्छा है कि चुप
ही रहा जाए।
इस
चुप्पी की वजह से जयन्ती धीरे-धीरे दूर और दूरतर हौती चली जा रही है।
अचानक जब कभी भी वारिश उतरती है तो आजकल वह चुपचाप...बैठकर उसे निहारा
करती है। अगर वह चाहे तो बड़े आराम से रस्सी पर गीले हो रहे कपड़ों को उठा
सकती है।
अभाव
की अभिशाप-छाया में पल रही इस छोटी-सी गृहस्थी में थोड़े-बहुत कपड़े-लत्ते
के गीले हो जाने की चिन्ता जयन्ती को जरा भी विचलित नहीं कर पाती।
आजकल...उसके मन में एक निर्मम आक्रोश कुण्डली मारकर बैठ गया है। भगवान के
विरुद्ध नहीं, खुद अपनी माँ के खिलाफ।
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