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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


अभी-अभी तो बर्तन साफ करके उठी है जयंती। गन्दे कपड़े-लत्ते का अम्बार पड़ा है.? और नल से पानी कब का गायब हो चुका है।

मिनू ने दादी पर तरस खाकर चूल्हे में आग सुलगायी थी। चूल्हे ने भी ढेर सारा धुआँ उगला लेकिन फिर पता नहीं ठण्डा क्यों पड़ गया, ईश्वर ही जाने।

डस बीच जयन्ती नहाकर आ चुकी थी और चूल्हे के मुँह पर हाथ से पंखा झल रही थी। उसका हाथ अकड़ गया था। बर्तनों में एक बूँद पानी नहीं भरा गया था...अगर चूल्हा सुलग गया तो वह उस पर भात वाली हाँडी आखिर क्योंकर चढ़ाएगी?

''अरे भात बना कि नहीं?'' तभी बिजन बाबू ने सवाल दोहराया।

''भात आखिर बन जाएगा कैसे?''

पिता की आपा-धापी से जयन्ती की देह में आग-सी लग जाती है लेकिन वह कहे भी तो क्या? साढ़े दस बरन चुके हैं, इस बात से भी आँखें नहीं मूँदी जा सकती। अब कलकत्ता शहर मे तालाब या पोखर तो है नहीं...लेकिन ट्यूबबेल लगे हुए हैं-यह भी सरकारी दया का ही नमूना है जो कि लड़ाई के दिनों की तैयारी की धुंधली याद जगाती है।

छोटी-सी बाल्टी लेकर मिनू पानी लाती रही कम-सं-कम पन्द्रह-एक बार।

किसी तरह लाज रह गयी।

सिर्फ भात और दाल की थाली-कटोरी सबके सामने रखते-रखते कब और किस तरह दिन के दो बज गये, डस जवन्ती समझ ही नहीं पायी।

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