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मधुशाला

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1859
आईएसबीएन :9788170283447

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बच्चन जी की बहुचर्चित मधुशाला...

Madhushala

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अग्रणी कवि बच्चन की कविता का आरंभ तीसरे दशक के मध्य ‘मधु’ अथवा मदिरा के इर्द-गिर्द हुआ और ‘मधुशाला’ से आरंभ कर ‘मधुबाला’ और ‘मधुकलश’ एक-एक वर्ष के अंतर से प्रकाशित हुए। ये बहुत लोकप्रिय हुए और प्रथम ‘मधुशाला’ ने तो धूम ही मचा दी। यह दरअसल हिन्दी साहित्य की आत्मा का ही अंग बन गई है और कालजयी रचनाओं की श्रेणी में खड़ी हुई है।
इन कविताओं की रचना के समय कवि की आयु 27-28 वर्ष की थी, अत: स्वाभाविक है कि ये संग्रह यौवन के रस और ज्वार से भरपूर हैं। स्वयं बच्चन ने इन सबको एक साथ पढ़ने का आग्रह किया है।
कवि ने कहा है : ‘‘आज मदिरा लाया हूं-जिसे पीकर भविष्यत् के भय भाग जाते हैं और भूतकाल के दुख दूर हो जाते हैं...., आज जीवन की मदिरा, जो हमें विवश होकर पीनी पड़ी है, कितनी कड़वी है। ले, पान कर और इस मद के उन्माद में अपने को, अपने दुख को, भूल जा।’’

 

मधुशाला के सर्वप्रथम कवि-सम्मेलन
के सभापति का संस्मरण

 

(पन्द्रहवें संस्करण से)

 

[‘मधुशाला’ का पन्द्रहवाँ संस्करण प्रकाशित हो रहा है। इस अवसर पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए मैं उन सब लोगों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करना चाहता हूँ जिन्होंने मेरी इस कृति की लोकप्रियता बढ़ाने में सहायता दी है। ग्यारहवें संस्करण के साथ पहली बार मैंने एक छोटी-सी भूमिका दी थी। बारहवें-तेरहवें और चौदहवें संस्करण के साथ ‘मधुशाला के पच्चीस वर्ष’ शीर्षक से श्री अक्षय कुमार जैन (संपादक, नवभारत टाइम्स) का एक संस्मरण 1933 के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के उस कवि-सम्मेलन के संबंध में दिया गया था, जिसमें ‘मधुशाला’ सर्वप्रथम पढ़ी गई थी, और जिसमें वे विद्यार्थी-श्रोता के रूप में उपस्थित थे।
इस नये संस्करण के साथ उस कवि-सम्मेलन के सभापति, प्रोफेसर मनोरजंन प्रसाद सिन्हा का एक संस्मरण दे रहा हूँ। आशा है, इससे पाठकों का मनोरंजन होगा।

 

बच्चन

 

मेरे छोटे भाई परम प्रिय बच्चन ने एक छोटी-सी इच्छा व्यक्त की, अपने एक पत्र में। लिखा उसने मेरे पास :
‘‘जो ‘मधुशाला’ आपके सभापतित्व में सर्वप्रथम सर्वसाधारण के सामने पढ़ी गई थी उसके तेरह संस्करण हो चुके हैं। मेरी यह इच्छा हैं कि उसके संबंध में आपका एक संस्मरण किसी संस्करण के साथ दूँ।’’
‘मधुशाला’ के ग्यारहवें संस्करण की भूमिका में बच्चन ने लिखा है कि ‘‘लगभग एक लाख लोग उसे पढ़ चुके होंगे। मैंने कब समझा था कि मेरा कहना सच ही हो जाएगा :

 

कभी न कण भर खाली होगा
लाख पिएँ, दो लाख पिएँ।’’

 

‘मधुशाला’ के प्रेमियों की ओर से मैंने भी अपनी बात उनके सामने रख दी थी-अपनी तथाकथित पैरोडी में, जिसे ‘मधुशाला’ की प्रथम पैरोडी होने का गौरव प्राप्त हुआ था :

 

लाख पिएँ दो लाख पिएँ
पर कभी नहीं थकनेवाला;
अगर पिलाने का दम है तो
जारी रख यह मधुशाला।

 

मुझे याद है कि मेरी उस रचना से लोगों का काफी मनोरंजन हुआ था और मेरा विश्वास है कि आज भी ‘मधुशाला’ के पाठकों का उससे कम मनोरंजन न होगा। उन दिनों जब मैं कवि-सम्मेलनों में जाया करता था तो अक्सर लोगों की फर्माइश हुआ करती थी, ‘‘मनोरंजन की, ‘मधुशाला’ की पैरोडी सुनाइए !’’
वही थी मेरी प्रथम प्रतिक्रिया और आज भी मेरी वही प्रतिक्रिया है। मैंने बच्चन की पैरोडी नहीं की थी- पैरोडी की थी ‘मधुशाला’ की। मेरी मधुशाला वस्तुवादी मधुशाला है-बच्चन की रहस्यवादी मधुशाला नहीं। मधुशाला के ये दो पहलू हैं, और इस ख्याल से कि उस दूसरे पहलू की ओर भी लोगों का ध्यान रहे, मेरी उस रचना की सृष्टि हुई जो मेरी विडम्बना ही थी।
‘मधुशाला’ के प्रेमियों के लिए मैं अपनी पैरोडी की कुछ रुबाइयों को भी उद्धृत कर देता हूँ, इस विश्वास के साथ कि इससे उनका भी उतना मनोरंजन होगा जितना कि उनके पूर्व-श्रोताओं का हुआ था।

 

भूल गया तस्बीह नमाजी,
पंडित भूल गया माला,
चला दौर जब पैमानों का,
मग्न हुआ पीनेवाला।
आज नशीली-सी कविता ने
सबको ही बदहोश किया,
कवि बनकर महफ़िल में आई
चलती-फिरती मधुशाला।
रूपसि, तूने सबके ऊपर
कुछ अजीब जादू डाला
नहीं खुमारी मिटती कहते
दो बस प्याले पर प्याला,
कहाँ पड़े हैं, किधर जा रहे
है इसकी परवाह नहीं,
यही मनाते हैं, इनकी
आबाद रहे यह मधुशाला।
भर-भर कर देता जा, साक़ी
मैं कर दूँगा दीवाला,
अजब शराबी से तेरा भी
आज पड़ा आकर पाला,
लाख पिएँ, दो लाख पिएँ,
पर कभी नहीं थकनेवाला,
अगर पिलाने का दम है तो
जारी रख यह मधुशाला।

 

मुझे धुँधली-सी स्मृति है उस कवि-सम्मेलन की, जिसमें पहली बार बच्चन ने अपनी ‘मधुशाला’ सुनाई थी-दिसम्बर, सन् 1933, शिवाजी हाल, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय। जहाँ तक याद है कवि-सम्मेलन के साथ-साथ हिन्दी गल्प-सम्मेलन भी था। कवि-सम्मेलन के सभापति थे हमारे गुरुवर हरिऔधजी, किन्तु उनके न आने के कारण अथवा आकर चले जाने के कारण (ठीक याद नहीं) मुझे ही सभापति का आसन ग्रहण करना पड़ा था। उन दिनों में वहीं अंग्रेजी विभाग में प्राध्यापक था किन्तु हिन्दी में रुचि होने के कारण पाँच सवारों में मेरी भी गिनती हुआ करती थी। और कई कवियों ने उस सम्मेलन में अपनी रचनाएँ सुनाई थीं, किन्तु दो नवयुवक कवियों की रचनाएँ लोगों ने विशेष रूचि के साथ सुनीं। एक थे नरेन्द्र शर्मा जो उन दिनों प्रयाग विश्वविद्यालय में एम.ए. के विद्यार्थी थे और दूसरे थे बच्चन जो उन दिनों प्रयाग के ही किसी विद्यालय में अध्यापन करते थे।

दिन बच्चन का ही था। मस्ती के साथ झूम-झूमकर जब उसने अपने सुललित कण्ठ से ‘मधुशाला’ को सस्वर सुनाना शुरू किया तो सभी श्रोता झूम उठे। नवयुवक विद्यार्थी ही नहीं, बड़े-बूढ़े भी झूम उठे। स्वयं मेरे ऊपर भी उसका नशा छा गया था। तब यह सुध कहाँ थी कि उसके दूसरे पहलू की ओर देखता अथवा उसकी पैरोडी करता। बस, स्वर-लहरी में लहराना, मद की मस्ती में झूमना और हर चौथी पंक्ति के अन्त में जब ‘मधुशाला’ का उच्चारण हो तो बरबस गायक के साथ स्वयं भी उसकी आवृत्ति करना; और यह बात प्राय: प्रत्येक श्रोता के साथ थी।

कवि-सम्मेलन समाप्त हुआ। सब अपने-अपने आवास-स्थान की ओर चले-‘मधुशाला’ की धुन में, ‘मधुशाला’ की लय पर ‘मधुशाला’ गुनगुनाते। मैं भी चला गया अपने क्वार्टर की ओर उसी की धुन गुनगुनाता। और तब आया अपने सामने ‘मधुशाला’ का दूसरा पहलू। और तभी वे पंक्तियां भी आईं जिन्हें पहले उद्धृत कर चुका हूँ। शाम को सम्मेलन समाप्त हुआ और रात-भर मैं उसकी धुन में रहा-सुबह तक खुमारी रही। इस प्रकार वह पैरोडी बनी।

मैं एक पैरोडिस्ट अथवा विडम्बक अवश्य हूँ, किन्तु कवि नहीं हूँ-ऐसी ही मेरी मान्यता है। कवि-हृदय प्रधान होता है, मैं मस्तिष्क प्रधान हूँ। कवि भाव-प्रधान होता है, मैं बुद्धि-प्रधान हूँ। भावुक अवश्य हूँ किन्तु भावुकता में बह नहीं जाता। स्वान्त:सुखाय के साथ लोकहित का भी ख्याल हो आता है। भावों से प्रेरित अवश्य होता हूँ किन्तु तुक बैठाता हूँ। ललित कण्ठ का वरदान मुझे भी मिला है, इससे कवि-सम्मेलन में मेरी रचनाएँ भी लोग चाव से सुना करते हैं, किन्तु एक युग बीत गया मुझे कवि-सम्मेलनों से किनाराकशी किए हुए। लिखता बराबर, पर कम, रहा हूँ, छपवाता और भी कम रहा हूँ। इसी प्रकार मुद्दत से साहित्यिक समारोहों से मेरा संन्यास-सा ही रहा है। लेकिन आज भी मन-ही-मन अनुभव करता हूँ कि पुरानी बात गई नहीं है।

उस शाम बच्चन को सुनकर नवयुवक पागल हो रहे थे। पागल मैं भी हो रहा था किन्तु वह पागलपन उसी प्रकार का न रहा। यह गिलहरी कुछ दूसरा ही रंग लाई; और वह रंग प्रकट हुआ दूसरे दिन के कवि-सम्मेलन में जो केवल ‘मधुशाला’ का सम्मेलन था-बच्चन का और मेरा सम्मेलन था-‘मधुशाला’ का सर्वप्रथम कवि सम्मेलन-केवल ‘मधुशाला’ का। बच्चन ने अपनी अनेकानेक रुबाइयाँ सुनाई थीं और मैंने केवल आठ। बच्चन आदि और अन्त में थे और मैं था मध्य में, इण्टरवल में, जब सुनाते-सुनाते वे थक-से गए थे और शीशे के गिलास में सादे पानी से गले की खुश्की मिटा रहे थे।

बात ऐसी हुई कि पहले दिन बच्चन ने जब ‘मधुशाला’ सुनाई थी तब सम्मेलन में उतने विद्यार्थी न थे। जब उसकी शोहरत फैली और अनेकानेक कण्ठों से छात्रावासों में तथा इधर-उधर ‘मधुशाला’ की मादक पंक्तियाँ निकलने लगीं-हवा में थिरकने लगीं- तो जिन लोगों ने न सुना था वे भी पागल हो गए- जिन लोगों ने सुना था वे तो पागल थे ही, बस सभी का आग्रह हुआ कि एक बार फिर बच्चन जी का कविता-पाठ हो-केवल बच्चनजी का-केवल ‘मधुशाला’ का। किन्तु किसी भी सम्मेलन के लिए प्रिंसिपल की अनुमति आवश्यक थी। विद्यार्थी प्रिंसिपल ध्रुव के यहाँ पहुँचे। ध्रुवजी ने कहा कि यदि कोई प्रोफेसर उस सम्मेलन का सभापतित्व करना स्वीकार करें तो उन्हें आपत्ति नहीं होगी।

लड़के मेरे पास आए और मैंने तुरन्त अपनी स्वीकृति दे दी क्योंकि तब तक मेरी भी आठ रुबाइयाँ तैयार हो चुकी थीं और सर्वसाधारण के समक्ष आने को मचल रही थीं। आर्ट्स कालेज के उस हाल में, जो कालेज-भवन की दूसरी मंजिल पर ठीक जीने के पास अवस्थित है, जमकर सभा हुई, कहीं तिल-भर जगह नहीं थी। कमरे का कोना-कोना तो भरा ही हुआ था, बाहर दरवाजों के सामने भी अनेकानेक विद्यार्थी थे।

मैंने सभापति का आसन ग्रहण किया और बच्चनजी तथा उनकी कविता का परिचय देते हुए यह भी कह दिया कि मेरे ऊपर भी ‘मधुशाला’ का असर हुआ है और जहाँ बच्चनजी ने 108 रुबाइयाँ लिखी हैं वहाँ मैंने भी आठ रुबाइयाँ लिख डाली हैं जिन्हें मौका मिलने पर सुना दूँगा।

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