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महाभारत के महानायक भीष्म की कथा रंग-बिरंगे चित्रों में
उस प्राचीन युग में जब राजा की शक्ति और अधिकार केवल भगवान से ही कम माने जाते थे, युवावस्था में भी राजकुमार देवव्रत ने स्वेच्छा से राज्य को ठुकराया था। यही नहीं, भविष्य में उसकी सन्ताने राज्य के लिए झगड़ा न करें इस उद्देश्य से उसने जीवन भर ब्रह्मचर्य का पालन करने का व्रत लिया। ये दोनों निर्णय उसने किये अपने पिता, राजा शान्तनु के सुख के लिए। इन कठोर प्रतिज्ञाओं के कारण ही देवताओं ने उसका नाम रखा भीष्म।
भीष्म ने राज-पाट का त्याग किया था तथापि उस वंश में और कोई नहीं हुआ जिसने उनके समान लम्बी अवधि तक शासन की बागडोर सम्हाली हो। पहले अपने सौतेले भाइयों और फिर भतीजों की ओर से उन्होंने राज-काज चलाया। दुर्योधन के वयस्क होने तक शासन वास्तव में वे ही करते रहे। यह उन्होंने स्वेच्छा से किया यह बात नहीं है। वे तो त्याग ही चुके थे - इसके उपरान्त परिस्थितियों के कारण उन्हें राज-काज सम्हालना पड़ा। महाभारत में उन्होंने पाण्डवों के विरुद्ध दुर्योधन का साथ दिया। इसका एक कारण कदाचित् यह रहा हो कि जिस सिंहासन की उन्होंने आजीवन रक्षा की उसके प्रति उन्हें कुछ मोह हो गया हो। युद्ध प्रारम्भ होने पर वे कौरवों के सेनापति बन कर युद्ध-क्षेत्र में उतरे। वे अजेय वीर थे।
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