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आनंदमठ - 1773 के संन्यासी विद्रोह पर आधारित बंकिमचन्द्र का उपन्यास चित्रकथा के रूप में
भारतीय कथा-साहित्य में आनन्द मठ का विशिष्ट स्थान है। 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में इस अनुपम कृति को इतना सराहा गया कि इसके रचयिता बंकिमचन्द्र चटर्जी को भारत का वाल्टर स्कॉट माना जाने लगा। इस बंगला कृति के अनुवाद हिन्दी, उर्दू, कन्नड़, तेलुगु और मलयालम में प्रकाशित हुए।
आनन्दमठ में बंकिम बाबू ने देशप्रेमी सन्तानों के संगठन का बड़ा ही सजीव चित्रण किया है। इस संगठन के सदस्यों ने मातृभूमि की सेवा के लिए अपने घर-द्वार तक त्याग दिये थे और वे 'सन्तान' कहलाते थे। महेन्द्र युवक जमींदार--अपना अकाल-पीड़ित गाँव छोड़कर पास के शहर को रवाना होता है। रास्ते में सिपाही उसे गिरफ्तार कर लेते हैं। भवानंद नामक सन्तान उसे छुड़ाकर अपने गुप्त केन्द्र आनन्दमठ में लाता है। रास्ते में वह उसे माँ के बारे में बताता है, जो 'सुजलां सुफलां' अर्थात् नदियों और फलों से परिपूर्ण है। "तुम माँ का गुणगान कर रहे हो? माँ है कौन?" महेन्द्र पूछता है।
"मेरी भूमि, मैं उसका पुत्र हूं, उसकी सन्तान," भवानंद कहता है। वह उस माँ के दुर्भाग्य पर शोक प्रकट करता है, जो 60 करोड़ रक्षक हाथ होते हुए भी बन्दिनी है (उन दिनों भारत की जनसंख्या लगभग 30 करोड़ थी)।
20वीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में आनन्दमठ ने बंगाल में क्रांतिकारी राष्ट्रीयता की आग फैलाने में बहुत योग दिया।
सन्तानों के आदर्श से प्रेरित होकर बंगाल के कितने ही युवक घरबार त्यागकर गुप्त संगठनों में शामिल हुए।
सन्तानों का गीत 'वन्दे मातरम्' स्वाधीनता और असहयोग आन्दोलन के दिनों में लाखों कण्ठों से ध्वनित-प्रतिध्वनित हुआ और बहुतों ने 'वन्दे मातरम्' गाते गाते अंग्रेजों की पुलिस की लाठियों की मार सही।
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