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श्रंगार - प्रेम >> कैली कामिनी और अनीता

कैली कामिनी और अनीता

अमृता प्रीतम

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :276
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1935
आईएसबीएन :9788170281634

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एक बेहद रोचक उपन्यास...

Kahin kuchh Aur

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

अनीता ‘एक थी अनीता’ उपन्यास की नायिका है, जिसके पैरों के सामने रास्ता नहीं, लेकिन वह चल देती है- कोई आवाज़ है, जाने कहाँ से उठती है और उसे बुलाती है...

कैली ‘रंग का पत्ता’ उपन्यास की नायिका है, एक गाँव की लड़की, और कामिनी ‘दिल्ली की गलियां’ उपन्यास की नायिका है, एक पत्रकार। इनके हालात में कोई समानता नहीं, वे बरसों की जिन संकरी गलियों में गुज़रती है, वे भी एक दूसरी की पहचान में नहीं आ सकतीं। लेकिन एक चेतना है, जो इन तीनों के अन्तर में एक-सी पनपती है...
वक्त कब और कैसे एक करवट लेता है, यह तीन अलग-अलग वार्ताओं की अलग-अलग ज़मीन की बात है। लेकिन इन तीनों का एक साथ प्रकाशन, तीन अलग-अलग दिशाओं से उस एक व्यथा को समझ लेने जैसा है, जो एक ऊर्जा बनकर उसके प्राणों में धड़कती है...

मुहब्बत से बड़ा जादू इस दुनिया में नहीं है। उसी जादू से लिपटा हुआ एक किरदार कहता है- ‘‘इस गाँव में जहाँ कैली बसती है, मेरी मुहब्बत की लाज बसती है’’ और इसी जादू में लिपटा हुआ कोई और किरदार कहता है- ‘‘प्रिय तुम्हें देखा तो मैंने खुदा की ज़ात पहचान ली....’’

जब कहीं कोई आवाज़ नहीं, किसी को अहसास होता है कि कुछ एक क्षण थे, कुछेक स्पर्श, और कुछेक कम्पन, और वे सब किसी भाषा के अक्षर थे...
कुछ पल ऐसे भी होते हैं, जो भविष्य से टूटे हुए होते हैं, फिर भी साँसों में बस जाते हैं, प्राणों में धड़कते हैं...
शमा की तरह जलती-पिघलती वे सोचती है- ‘‘यही तो आग की एक लपट है, जिसकी रोशनी में खुद को पहचानना है’’...

 

कैली

 

 

‘‘यह क्या कर रही है कैली ?’’ मितरो भरे हुए मटके को झुककर उठाने लगी थी, जिस समय उसने परे खाल पर बैठी हुई कैली को देखा। मटका उसने कुएँ की जगत पर ही रहने दिया और दबे पाँव कैली की पीठ की ओर आ खड़ी हुई। मितरो के दिल में था कि वह पीछे की ओर जाकर कैली की आँखें बंद कर लेगी और जब तक वह ‘मितरो-सड़ितरो’ कह-कहकर थक न जाएगी, वह मुंह से नहीं बोलेगी। परन्तु जब मितरो की भारी आँखें देखीं, तो अपने आप ही पूछा गया, ‘‘यह क्या कर रही है कैली ?’’

कैली ने उसी तरह भीगे हुए चेहरे से मितरो की ओर देखा और फिर आहिस्ता से कहा,‘‘रोटी पर से चीटियाँ उतार रही हूँ।’’
मितरों ने अपनी चुनरी के किनारे से कैली का मुंह पोंछा और हंसती हुई कहने लगी,‘‘ कभी तो सीधे मुंह बात किया कर। उलटे ही जवाब देती रहेगी !’’

कैली चुप हो गई। फिर मितरो ने अपने-आप ही अनुमान लगाया और पूछा, ‘‘लखेशाह वाली बात बनी है कि नहीं ?’’
कैली ने वक्र दृष्टि से मितरो की ओर देखा और कहने लगी, ‘‘बात बन गई है अरी बैरन, बन गई है ! तुम अपनी काली ज़बान से यही तो माँग रही थीं।’’

‘‘जा री पगली ! सारी उम्र राज करना और साथ ही मेरी काली ज़बान को असीसें दिया करना।’’
‘‘असीसें न दूंगी कुछ और... लगा था मेरे मुंह से कुछ निकलने...’’
‘‘निकाल ले जो तूने मुंह से निकालना है, ऐसी दिल की भड़ास दिल में ही क्यों रखती है ?’’
‘‘मैंने क्या कहना है !’’ कैली ने उच्छ्वास लिया और फिर कहा, ‘‘माँ कहती है, लड़कियाँ कुछ नहीं मुंह से बोलतीं, उनकी तो जन्म से ही ज़बान कट जाती है।’’

‘‘अरी रहने दे नखरे, इसी कटी हुई ज़बान से तू एक चीज़ मांगेगी तो बत्तीस हाज़िर होंगी।’’
‘‘तेरा दिल काहे का बना हुआ है मितरो ? लोहे का या पत्थर का ?’’ ‘‘सोने का।’’
‘‘सच कहती है मितरो तेरा दिल सोने का है।’’ कैली ने एक नज़र मितरो की ओर देखा, जैसे वह नज़र से कसौटी पर सोने को परखने लगी हो। फिर कहने लगी, ‘‘तभी तो तू सोना बेचने पर आ गई। बेच दे इस दिल को, वह ‘चालीस चक वाला बनिया अच्छा मूल्य डालेगा।’’

‘‘मैं तुम्हारी तनज़ को समझती हूँ कैली !’’ मितरो ने एक तिनका पकड़कर दांतों से काटा और फिर ज़बान से परे थूकती हुई कहने लगी, ‘‘यदि तुम्हें उस ‘रंगड़’ से इतनी सहानुभूति है, तो तू उसका घर बसा दे न !’’
‘‘मैंने भीलनी की तरह तेरे जूठे बेर तो नहीं खाने चंदरी ! तुझे शर्म नहीं आती ऐसा कहती है !’’
‘‘हां, कैली जिसके घर दाने उसके पगले भी सियाने ! अब कल को तूने लखेशाह की शाहनी बन जाना है, मेरे जैसी को तो तूने बेशर्म ही कहना है। तू इज़्ज़तवाली, आबरूवाली....’’
‘‘निगोड़ी...’’

‘‘तू तो चाहती है कि मैं उस रामगढिये के घर जाकर सारी उम्र बुरादा जलाती रहूं।’’
‘‘यह बुरादा नहीं तेरे से जलना; तुम कटोरे में गोंद घोल लिया करना, और गोंद से उस बनिये के पैसे जोड़ती रहना...’’
‘‘अब तुझे बातें बहुत आ गई हैं कैली ! तुझे पैसे जुड़े-जुड़ाए जो मिल गए !’’
‘‘अगर इतनी जलन है मितरो, तू उस लखेशाह के साथ तू ही फेरे ले ले !’’
‘‘अरी रहने दो बातें, हाथ में आई हुई गद्दी कौन छोड़ता है !’’
‘‘चल फिर यह भी अज़माकर देख ले मितरो। तू मेरा मरी का मुंह देखे यदि...’’ मितरो ने जल्दी से कैली के मुंह पर हाथ रख दिया, और कहने लगी,

‘‘मैं तेरा जीती का मुंह ही देखूंगी- शाहनी बनी का मुंह। अच्छा यह बता, भला मासी ने तुझे अभी दिखाया है कि नहीं ?’’
‘‘देख आई हूं, जी भर आई हूं मुंह देखकर।’’
‘‘रानी को पसन्द नहीं आया लगता ?’’
‘‘अच्छा था, खमीरी रोटी जैसा। हजामत पता नहीं कौन-से नाई से बनवाकर आया था। छोटे-मोटे बाल इस तरह दिखाई देते थे, जैसे रोटी को चीटिंयां चढ़ी हुई हो !’’

‘‘अच्छा तभी रो रही थी तू, और कह रही कि मैं रोटी पर से चीटिंयां उतार रही हूं ! अरी, चुपड़ी हुई भी और दो-दो भी ! चीटिंयां झाड़कर रोटी तो मिल जाएगी, पर उसको किसी ने क्या करना –उस बांके को जिसके घर रोटी भी न हो।’’
‘‘सच मितरो मेरी माँ के घर तो तुम्हें पैदा होना चाहिए था मैं तो वहां ऐसे ही गलती से पैदा हो गई।’’
‘‘मासी भी तो यही कहती थी न ?’’

‘‘हां, यही कह रही थी, तेरेवाली बात। कह रही थी- मर्द का मुंह नहीं देखते, मर्द की जेब देखते हैं।’’
‘‘मेरी मासी ने दुनिया देखी हुई है।’’

‘‘तुम्हें इतनी ही दिलों की कदर है तो मुँह फाड़कर ‘न’ कर दो।’’ ‘‘फिर जोर पर ‘न’ करूं ? यदि तेरी तरह मेरा भी कोई चाहने वाला होता, मैं मुंह फाड़कर ‘न’ कर देती।’’
‘‘इतना ही करने पर आई है तो ढूंढ ले न एक आशिक।’’
‘‘आशिक तो परमात्मा का दर्शन है मितरो ! न मिले तो बारह वर्ष तपस्या करने पर भी नहीं मिलता।’’ कैली की आँखें भर आईं।

मितरो ने सिर नीचा कर लिया, फिर आहिस्ता-आहिस्ता एक तिनके को दांतों से तोड़ती हुई कहने लगी, ‘‘मैं झूठ नहीं कहती कैली ! तू और ‘बख्शा’ एक ही मिट्टी के बने हुए हो।’’
‘‘शुकर है कि आज तूने इसका नाम लेकर बात की है, नहीं तो तू नाज़िनीं हमेशा उसे ‘रंगड़’ कहकर ही बात करती है। अच्छा, क्या कहने लगी थी कि मैं और बख्शा एक ही मिट्टी के बने हुए हैं...’’
‘‘यही कि तुम दोनों को मनुष्यों में ईश्वर दिखाई देता है।’’

‘‘मुझे अभी तक तो किसी में दिखाई दिया नहीं, पर मेरे अन्दर ऐसा महसूस होता है कि यदि ईश्वर कहीं दिखाई दे सकता है तो बस इस चेहरे में से, जिसे मनुष्य प्यार करता है।’’ कैली ने आंखें बन्द कर लीं, फिर चौंककर मितरो के चेहरे की ओर देखने लगी, ‘‘तुमने बहुत बड़े कर्म किए हैं मितरो, जो तेरे चेहरे में से किसी को भगवान दिखाई देता है !’’
‘‘उसे दिखाई देता होगा, मुझे तो दिखाई नहीं देता।’’ मितरो ने कहा और हंसने लगी...

कैली मितरो की ओर देखती रही। लगा-जाने इस हंसी से मितरो का मुंह टेढ़ा हो गया था। भरे हुए मन से कहने लगी। ‘‘अरी निकर्मी, तेरी आंखें हैं कि झाड़ियों में लगे हुए डेले, जो तुझे उसमें से कुछ दिखाई नहीं देता ?’’
‘‘न उसका घर न बाहर, कैली ! वह तो आप चाचे की रोटियां तोड़ता है। कल को मुझे कहां से खिलाएगा ?’’
‘‘बावरी तू उसकी तिजोरियां देखती है, उसके हाथों की कला नहीं देखती !’’

‘‘इतनी क्या कला है कैली ! एक आरी से वह लकड़ियां चीर-चीरकर कौन-से महल खड़े कर लेगा ? यही तीन रूपये रोज के ही तो कमाने हैं उसमें सारी उमर ! साथ ही न जात, न बिरादरी। मैं खत्रियों की लड़की, वह बढ़इयों का बेटा ! उधर माँ-बाप से झूठी हो जाऊं, झूठी क्या, सारी जिंदगी मिलने से भी जाऊं, और उधर...’’ मितरो चुप हो गई।
‘‘और उधर बुरादा जलाती रहूं !...कह दे न जो कहने लगी थी।’’ कैली ने रूककर कहा।

‘‘तू मज़ाक तो करती है कैली ! पर रोटी मैंने दिल का आटा गूंधकर तो नहीं पकानी !’’
‘‘दिल का आटा तूने काहे को गूंधना है मितरो। दिमाग को चीरकर दिमाग को चीरकर उसका सालन बनाना।’’
‘‘न इतनी चोटे मार कैली-सड़ैली ! मुझे भी छूत का रोग लग जाएगा।’’ और फिर निमानी-सी होकर मितरो बोली, ‘‘वह निगोड़ा बख्शा जब ऐसी बातें करता है, धर्म से कई बार मेरा दिल घिरने लगता है...’’

‘‘नहीं, नहीं कुछ नहीं होता तेरे दिल को यह भी कोई रक्त-मांस का दिल है, जो घिरने लगे ! यह तो सोने का दिल है- इसे छूत का रोग नहीं लग सकता। यह जूठा भी नहीं होता, धो-धोकर उस बनिये को जा देना !’’
मितरो की हंसी छूट गई, ‘‘अच्छा कैली ! तेरा और बख्शे का जोड़ा कैसा रहे ! अगर मैं बख्शा तुझे सौंप दूं, तुम दोनों मिलकर हवा में एक महल डाल लेना, रात को सिर के नीचे चांद का तकिया रख लेना और दिन को सूरज का ! आशिकों को भूख तो लगती नहीं !’’

‘‘तू पागल है मितरो ! यह भी कोई ज़र-ज़मीन है जो तू मेरे आगे बेच देगी ? प्यार तो खुदा के दर से मिलता है, और इसके लिए प्राणों की बोली देनी होती है।’’

‘‘फिर तू लखेशाह कैसे मिल गई ? तू तो किसी फटे हाल आशिक को मिलनी चाहिए थी।’’
‘‘यह मेरी किस्मत मितरो ! इस जन्म में तो मेरे मां-बाप ने लखेशाह का कुछ नहीं देना था, पर शायद पिछले जन्म में कुछ देना था, उसने ब्याज-दर-ब्याज मेरे मां-बाप के किले से गाय न खोल ली !’’ और कैली को रूआई आ गई।

 

दो

 

 

बाप रे, एक मेरा कहना मान ले
मुझे ‘रामरत्न’ वर दे दे
बेटी, ‘रामरत्न’ ने सिर पर सेहरा बांध लिया

जाने बागों में क्योड़ा खिल उठा !...
सुहाग-गीतों के कान तो जरूर होते हैं, पर आंखें नहीं होतीं। जब भी कोई सिर पर सेहरा बांध कर खड़ा हो जाता है, इन गीतों को वह ‘रामरत्न’ ही दिखाई देता है। लखेशाह ने भी जब कैली से विवाह करने के लिए सिर पर सेहरा बांधा तो सुहाग-गीतों ने अपनी आदत के अनुसार गाना शुरू कर दिया, ‘‘बेटी, ‘रामरत्न ने सिर पर सेहरा बांध लिया...’’ और लखेशाह ने लोकगीतों के द्वारा अपना नाम ‘रामरत्न’ रखवाकर कैली ब्याह ली।

चाहे कैली एक लोकगीत की ज़बानी कहती रही थी, ‘‘बाप रे, मुझे इस घर में देना जहां सास के सात बेटे हों; बाप रे, तेरा पुण्य होगा !’’ पर बाप के कान शायद बहरे थे; इसे यह बात कुछ उलटी-पुलटी सुनाई दे गई...

कैली जब ससुराल गई, उसने देखा उसकी सास का बेटा तो एक ही था- वही लखेशाह, पर उसकी सौत के बच्चे तीन जरूर थे। और कैली सोचने लगी कि तीन के स्थान पर पूरे सात भी होते तो क्या हर्ज था ! वैसे दूसरे ही दिन कैली को पता लग गया कि यदि उसकी सौत का पहला बेटा भी जीवित रहता और बीच की लड़की चेचक निकलने से मर न जाती, और दो बेचारे सतमासे ही न चल बसते, तो असल में पूरे सात ही होने थे...
विवाह के सारे गीत इस तरह उल्टे हो गए जाने किस्मत ने भूल से फुलकारी का उलटा ओर सिर पर ले लिया हो, और सारी गांठे और टांके ऊपर की ओर आ गए हों...

कैली का मुंह जुठारते हुए लखेशाह की इधर-उधर की तथाकथित बहिनों ने जिस दिन यह गीत गाया- ‘‘भाभी एक, ननदें चार, मुंह जुठारें बारो-बार।’’
उसके तीन दिन बाद जब वे ननदें चुनरी-मिठाई लेकर अपने-अपने घर चली गईं, तो कैली लखेशाह के तीनों बच्चों को मूढ़ों पर बैठाकर बारी-बारी उनके मुंहों में निवाले देने लग गई।

बड़ा लड़का चाहे आठ-नौ वर्ष का था और मुंह में कौर लेने योग्य नहीं था, पर कैली जब से आई थी वह नाराज़ बैठा था। पिछले तीन दिनों से उसने रोटी की थाली की ओर देखा भी नहीं था, इसलिए कैली उसे बांह से पकड़कर मूढ़े पर बैठा, और कौर तोड़कर उसके मुंह में डालने लग गई थी...

उससे छोटा लड़का छः वर्ष का था। वह जब डेढ़ वर्ष का था, घुटनों चलते हुए वह छत पर से गिर गया था और एक ईंट की नोक उसके सिर में लग गई थी। बड़ी कठिनाई से वह बच तो गया था और उसकी उमर अपने रास्ते चल पड़ी थी, परन्तु उसकी दिमागी हालत वहीं खड़ी रह गई थी। बोलते समय उसकी ज़बान हकलाती थी, और सुनते समय भी उसे बात पूरी तरह समझ में नहीं आती थी। वह खुद रोटी खा लेता था, पर बुरी तरह कमीज़ पर दाल गिरा लेता था, सारे मुंह पर सालन लगा लेता था, इसलिए कैली उसकी बांह पकड़ उसे मूंढ़े पर बैठा, कौर तोड़कर उसके मुंह में डालने लग गई थी।
सबसे छोटी लड़की चार वर्ष की थी। उसके दायें हाथ पर कितने ही दिनों से एक फोड़ा हो रहा था। विवाह की भीडभाड़ में कई बार उसका हाथ दुःख गया था जिसके कारण फोड़े की टीस बहुत बढ़ गई थी और उससे अब रोटी का ग्रास तोड़कर खाया नहीं जा रहा था। इसलिए कैली उसे अपने हाथों से खिलाने लगी।

बड़े लड़के का नाम सोहन था, उसका रंग सांवला था, इसलिय सभी उसे ‘काला’ कहकर बुलाते थे। छोटे का नाम किसी ने रखा ही नहीं था, जब से उसकी ज़बान हकलाने लगी थी, सारे उसे ‘लोला’ कहकर बुलाने लगे थे। छोटी लड़की की आंखों में सब्ज-सी झलक थी, इसलिए सभी ने शुरू से ही उसका ‘बिल्लो’ नाम रख दिया था।

कैली जब काले, लोले और बिल्लो को रोटी खिलाने बैठी, तो वह एक ढकने में विवाह की बची हुई मिठाई निकालकर ले आई। वह बच्चों का मुंह मीठा कराने लगी थी, जब लखेशाह ने जल्दी से कहा, ‘‘मैंने कहा, यह मिठाई रहने दे, यह तो अभी चार दिन काट जाएगी। पिछले अन्दर देख, एक टीन और पड़ा हुआ है उसमें मेरे भाई के विवाह की मिठाई बची पड़ी है, पहले उसे बरत ले।’’

यह लखेशाह का कौन सा भाई था ? उसका विवाह हुए कितने दिन हुए थे ? कैली को कुछ पता नहीं था। पर कैली ने जब पिछले अन्दर से मिठाई का टीन ढ़ूंढ़ा, पत्थर जैसी सूखी हुई मिठाई को देखकर उसे ख्याल आया कि हो न हो, अब वह ढकने में मिठाई डालकर ले जाएगी तो लखेशाह कहेगा, ‘मैंने कहा, यह मिठाई रहने दे, यह तो अभी दो दिन काट जाएगी। पिछले से पिछले अन्दर देख, एक टीन और पड़ा हुआ है, जिसके बीच मेरे बाप के विवाह की मिठाई बची हुई है- पहले उसे बरत ले...,

 

तीन

 

 

कैली की सुहाग-सेज के नीचे आठ ईंटें रखी हुई थीं- चारों पायों के नीचे दो-दो ईंटें। क्योंकि एक लोहे का संदूक, जिसमें सब बहीखाते की किताबें पड़ी थीं, लोगों के गिरवी रखे हुए जेवर पड़े थे, और बाप-दादाओं के समय के आभूषण थे, चारपाई के नीचे पूरा नहीं आता था, इसलिए लखेशाह ने चारपाई के पायों के नीचे दो-दो ईंटे रखकर चारपाई को ऊंचा कर लिया हुआ था।

शायद चारपाई कुछ ढीली हो गई थी, कैली के चारपाई पर बैठते ही लोहे के संदूक की एक नोक उसे लगी और मितरो की कही हुई एक बात कैली के मन में चुभने लग गई- ‘अच्छा कैली, तेरा और बख्शे का जोड़ कैसा रहे ! अगर मैं बख्शा तुम्हें सौप दूं, तुम दोनों मिलकर हवा में एक महल बना लेना, रात को सिर के नीचे चांद का तकिया रख लेना..., और कैली मन-ही-मन में मितरो को याद कर कहने लगी, ‘बख्शा तो मेरे भाई की तरह है मितरो ! उसकी ओर तो मैं कभी आंख भरकर भी नहीं देख सकती, पर कोई खुदा मुझे मेरा हम उमर देता, तो सचमुच मैं सिर के नीचे चांद का तकिया रखकर सोती... यह देख बावरी, अब सिर के नीचे कैसा तकिया है...,

सारी रात कैली को लखेशाह की कुर्ती में से एक अजीब-सी गन्ध आती रही। फिर घबरा-घबराकर पता नहीं किस समय उसकी आंख लग गई। सूरज निकल आया था, जिस समय कैली को उसकी सौतेली बेटी ने कंधे से हिलाकर जगाया, ‘‘बापू ने आज कचहरी जाना है, जल्दी, और वह लस्सी मांग रहा है।’’
कैली ने जब तकिए से सिर उठाकर अपने सिर का कपड़ा ठीक किया, उसे अपने दुपट्टे में से एक अजीब गंध आई। उसने चौंककर अपना दुपट्टा उतार दिया, पर दूसरे ही क्षण उसने मन पर काबू पा लिया और तकिये पर पड़े दुपट्टे को उठाने के लिए झुकी।

कैली को तकिये के गिलाफ में से एक अजीब गन्ध आई। वह दो पैर पीछे हट गई और उसने अपने मन को ठहराने के लिए लड़की के कंधे पर हाथ रखा।

लड़की की कमीज़ में से भी कैली को एक अजीब-सी गंध आई... चौके में गई, जल्दी से लस्सी विलोनी शुरू कर दी। लस्सी को छानने के लिए उसने जब पास दरवाजे पर रखा कपड़ा पकड़ा, उस कपड़े से भी कैली को एक अजीब गन्ध आई...
कैली को समझ नहीं आ रही थी कि आखिर लखेशाह की गन्ध उसके सिर के दुपट्टे में से गुजरती, तकिये के गिलाफ में से निकलती और लड़की की कमीज़ में से होती हुई, इस लस्सी छाननेवाले कपड़े तक कैसे आ गई थी...

दोपहर को चौके-बर्तन से खाली होकर कैली ने लस्सी को छानने वाला कपड़ा, बच्चों के कपड़े, तकिये का गिलाफ सब कुछ इकठ्ठा कर लिया, सिर का दुपट्टा उतारते हुए उसने लखेशाह को कहा कि वह अपने गले की कुर्ती भी उतार दे, वह महरी को साबुन की एक टिक्की देकर सारे धुला लेगी...

‘‘महरी ससुरी ने तो कपड़ों का कुछ भी बाकी नहीं छोड़ना। डंडा मार-मार बटन तोड़ देगी और साबुन अलग बहाएगी। ये ससुरी इतना साबुन बहाती है...’’ लखेशाह ने जल्दी से कहा।
कैली चुप रह गई। फिर लखेशाह ने कहा, ‘‘अन्दर साबुन का चूरा पड़ा हुआ है। कड़ाही में पानी गर्म करके लड़की को साबुन उबाल दे, वह दो हाथ मार लेगी।’’

कैली ने समझा कि लखेशाह ने कपड़े धोने का काम जो लड़की को सौंपा है, यह वास्तव में कैली को इशारा है कि वह आप कपड़े धो ले, नहीं तो भला चार वर्ष की बच्ची से कहीं कपड़े धोए जा सकते थे, और उसे यह भी अच्छा-भला पता था कि लड़की का हाथ दुखता है। कैली ने कड़ाई में साबुन का चूरा उबाल लिया। महरी से दो मटके पानी मंगवा लिया और कच्चे खुरे पर पत्थर की सिल रखकर कपड़े धोने लगी....

लखेशाह बैठक में बैठकर असामियों से बात कर रहा था, जब उसके कानों में कपड़े धोने की आवाज़ आई। लखेशाह भागता हुआ आया, ‘‘मैंने कहा तुम यह क्यों कर रही हो ! लड़की से कहो, ससुरे छोटे-छोटे चार तो कपड़े हैं...’’
उस बच्ची से भला कपड़े धोए जाते ! मुझे क्या है ! मैं धोए जा रही हूं और वह चारपाई पर सूखने के लिए डालती जाती है।’’ कैली ने अहिस्ता से कहा और उसके भीतर एक हल्की-सी खुशी हुई कि यह पहला अवसर था जब लखेशाह ने उसके साथ जरा हमदर्दी की बात की थी....

लखेशाह फिर खड़ा रहा। कैली जब साबुन के पानी में कपड़ा भिगोती और उसके ऊपर थपनी मारती, लखेशाह के दिल पर जाने कोई चोट लगती। दो मिनट उसने अपना मुंह बंद रखा, परन्तु फिर उससे रहा न गया, ‘‘मैंने कहा, तू आप सियानी है, तेरे हाथों में सोने के गोखरू पडे़ हुए हैं- उतनी तो कपड़ों की मैल नहीं खुरनी, जितना सारा सोना खुर जाएगा।’’

कैली ने चौंककर लखेशाह की ओर देखा, फिर कपड़ों में से बहती मैल की धार की ओर, और फिर हाथों में पड़े हुए सोने के गोखरूओं की ओर। और कैली ने आहिस्ता से दोनों गोखरू उतारकर लखेशाह के हाथ में दे दिए... लखेशाह जब गोखरूओं की जोड़ी सँभालकर ले गया, कैली को याद आया कि उसके गाँव में नवविवाहिता लड़की को उसकी सखियां एक गीत के बोल में छेड़ा करती थीं, जिसका भाव था- ‘यह बाजूबन्द बहुत बुरा जे़वर है, आलिंगन करते छनक पड़ता है।’ और कैली की आंखें भर आईं, इन गीतों की रचना करते समय बाजूबन्द को बुरा कहा होगा, उसे यह नहीं पता था कि जब कोई मैल भरे कपड़े धोने लगता है, जे़वर उस समय भी बुरे हो जाते हैं।’’

 

चार

 

एक तो काले का रंग कुदरती काला था, पर उसका बहुत-सा रूप उसकी ज़िदों ने बिगाड़ा हुआ था। आज भी कैली इस काले के हाथों परेशान हो रही थी, जिस समय उसके मायके से एक कारिन्दा कैली के लिए एक पत्र लेकर आया।

कैली ने उसे बैठने के लिए पटरी दी और मां-बाप की कुशल-क्षेम पूछते छोटी लड़की की कंघी करने लगी। पत्र पढ़ने की जाने उसे कोई जल्दी नहीं थी। इससे पहले भी कैली को अब्बासपुर से मां-बाप के दो संदेश आ चुके थे, पर वह जब से विवाह का पहला फेरा डालके आई थी, पुनः गाँव में नहीं गई थी।

‘‘कैली बेटी ! मां तो बड़ी उदास हुई है, तूने कैसा पत्थर का दिल कर लिया है !’’ कारिन्दे ने पिन्नियों की पिटारी कैली के आगे रख दी और रूमाल के कोने में बँधा हुआ पत्र खोलने लगा।

और फिर कारिन्दे ने कैली को उसकी प्रिय सहेली का वास्ता दिया, ‘‘पर इस बार तो तुझे जाना ही होगा बेटी। ये घरों के काम-काज तो चलते ही रहते हैं। मितरो का ब्याह जुड़ गया है। कल भट्टी रखी जानी है यह लो पत्र, मितरो ने भी इस पर दो अक्षर लिखे हुए हैं, और मुझे अलग से मिलकर कहती थी- कैली मेरे थोड़े लिखे को बहुत समझे और जल्दी आने की करे।’’
‘‘मितरो का ब्याह ! किसके साथ ?’’ कैली चौंक पड़ी और उसने बांह आगे कर कारिन्दे के हाथ से पत्र ले लिया।
‘‘वही चालीस चकवालों के लड़के के साथ-काफी दिनों से बातचीत चल रही थी।’’ कारिन्दे ने जब यह कहा, कैली का सारा उत्साह खड़ा हो गया। उसने बंद का बंद पत्र मूढ़े के पास रख दिया, और बायें हाथ की उंगली पर लड़की के बालों को लपेटती हुई दायें हाथ से उसकी उलझनों को संवारने लगी।

कारिन्दा जब लस्सी पानी पीकर बाहर की बैठक में लखेशाह के मुनीम के पास जा बैठा, कैली ने एक नज़र से पत्र पढ़ा और फिर अपने काम में लग गई। वह लड़की को कंघी कर चुकी थी, बड़े को नहलाकर उसके कपड़े बदल चुकी थी, और अब उसने कुछ दुलार से और कुछ झिड़क से काले की बांह पकड ली,

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जैसे लगता है कि हमारी अपनी कहानी हो। अमृता जी की कहानी हमें अपने मोहजाल में फँसा लेती हैं। मैने कई बार पढ़ी है। उम्दा कहानी।

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