कविता संग्रह >> आनन्द मंजरी आनन्द मंजरीत्रिलोक सिंह ठकुरेला
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त्रिलोक सिंह ठकुरेला की मुकरियाँ
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दाँत दिखाए, आँखें मींचे।
जब चाहे तब कपड़े खींचे।
डरकर भागूं घर के अंदर।
क्या सखि, गुंडा? ना सखि, बंदर।।
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वादे करता, ख्वाब दिखाये।
तरह तरह से मन समझाये।
मतलब साधे, कुछ ना देता।
क्या सखि, साजन? ना सखि, नेता।।
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रस लेती मैं उसके रस में।
हो जाती हूँ उसके वश में।
मैं खुद उस पर जाऊँ वारी।
क्या सखि, साजन? ना, फुलवारी।।
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