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यथासंभव

शरद जोशी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :423
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 20
आईएसबीएन :8126313013

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शरद जोशी की एक अनुपम कृति...

Yatha Sambhav

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रख्यात व्यंग्यकार शरद जोशी हास्य व्यंग्य जगत के महत्वपूर्ण स्तम्भ रहे हैं। यथा संभव उनकी अभूतपूर्व कृतियों में से एक है।

व्यंग्य शब्द को साहित्य से जोड़ने अर्थात् व्यंग्य को साहित्य का दर्जा दिलाने में जिन इने-गिने लेखकों की भूमिका रही है उनमें शरद जोशी का नाम सबसे पहले आने वाले लेखकों में से एक है। अपनी चिर-परिचित शालीन भाषा में वे यही कह सकते थे कि-‘मैंने हिन्दी में व्यंग्य साहित्य का अभाव दूर करने की दिशा में ‘यथासम्भव’ प्रयास किया है।’ पर सच तो यह है कि उन्होंने इस दिशा में निश्चित योगदान दिया-गुणवत्ता और परिमाण, दोनों दृष्टियों से। उन्होंने नाचीज विषयों से लेकर गम्भीर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय मसलों तक सबकी बाकायदा खबर ली है। रोज़मर्रा के विषयों में उनकी प्रतिक्रिया इतनी सटीक होती कि पाठक का आन्तरिक भावलोक प्रकाशित हो उठता। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि शरद जोशी ने हिन्दी के गम्भीर व्यंग्य को लाखों लोगों तक पहुँचाया।

प्रस्तुत कृति ‘यथासम्भव’ में उनके सम्पूर्ण साहित्य में से सौ बेहतरीन रचनाएँ, स्वयं उनके ही द्वारा चुनी हुई, संकलित हैं।

उनका यह अपूर्व अनोखा संग्रह व्यंग्य-साहित्य के पाठकों के लिए अपरिहार्य है। दूसरे शब्दों में, ‘यथासम्भव’ का हवाला दिये बिना आधुनिक भारतीय व्यंग्य साहित्य की चर्चा करना ही सम्भव नहीं है।

प्रस्तुत है इस महत्वपूर्ण व्यंग्य-संग्रह का नवीन संस्करण।

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Vinay Patidar

यथासंभव और यत्र तत्र सर्वत्र दोनों किताबें उत्कष्ट व्यंग्यों का संकलन हैं। साथ ही हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे के व्यंग्य भी अच्छे लगते हैं। मेरा पसंदीदा व्यंग्य है, वर्जीनिया वुल्फ से सब डरते हैं।

ZbdrariI ZbdrariI

शरद जोशी जी के व्यंग्यों में एक विशेष पैनापन है। काश वे आज भी होते तो उन्हें लिखने का कितना मसाला मिल जाता! यथासंभव के सारे व्यंग्य आज भी हमें सोचने पर मजबूर कर देते हैं। अभिव्यक्ति के इतने तरीके और साधन उपलब्ध हैं कि हर भारतीय मुखर हो उठा है किसी न किसी विषय पर कुछ न कुछ बोलना चाहता है।