सदाबहार >> तितली तितलीजयशंकर प्रसाद
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प्रस्तुत है जयशंकर प्रसाद का श्रेष्ठतम उपन्यास...
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क्यों बेटी! मधुवा आज कितने पैसे ले आया?
नौ आने, बापू!
कुल नौ आने! और कुछ नहीं?
पाँच सेर आटा भी दे गया है। कहता था, एक रुपये का इतना ही मिला।
वाह रे समय-कहकर बुड्ढा एक बार चित होकर साँस लेने लगा।
कुतूहल से लड़की ने पूछा-कैसा समय बापू?
बुड्ढा चुप रहा।
यौवन के व्यंजन दिखायी देने से क्या हुआ, अब भी उसका मन दूध का धोया है। उसे लड़की कहना ही अधिक संगत होगा।
उसने फिर पूछा-कैसा समय बापू?
चिथड़ों से लिपटा हआ, लम्बा-चौड़ा, अस्थि-पंजर झनझना उठा खाँसकर उसने कहा-जिस भयानक अकाल का स्मरण करके आज भो रोंगटे खड़े हो जाते हैं, जिस पिशाच की अग्नि-क्रीड़ा में खेलती हुई तुझको मैंने पाया था, वही संवत ५५ का अकाल आज के सुकाल से भी सदय था-कोमल था। तब भी आठ सेर का अन्न बिकता था। आज पाँच सेर की बिक्री मे भी कहीं जूँ नहीं रेंगती, जैसे-सब धीरे-धीरे दम तोड़ रहे हैं! कोई अकाल कहकर चिल्लाता नहीं। ओह! मैं भूल रहा हूँ। कितने ह्रीं मनुष्य तभी से एक बार भोजन करने के अभ्यासी हो गये हैं। जाने दे, होगा कुछ बज्जो! जो सामने आवे, उसे झेलना चाहिए।
बज्जो, मटकी में डेढ़ पाव दूध, चार कंडों पर गरम कर रही थी। उफनाते हुए दूध को उतार कर उसने कुतूहल से पूछा-बापू! उस अकाल में तुमने मुझे पाया था! लो, दूध पीकर मुझे वह पूरी, कथा सुनाओ।बुड्ढे ने करवट बदलकर, दूध लेते हुए, बज्जो की आखों में खेलते हुए आश्चर्य कौ देखा। वह कुछ सोचता हुआ दूध पीने लगा।
थोड़ा-सा पीकर उसने पूछा-अरे तूने दूध अपने लिए रख लिया है?
बज्जो चुप रही। बुड्ढा खड़खड़ा उठा-'तू बड़ी पाजी है, रोटी किससे खायगी रे?
सिर झुकाये हुए, बज्जो ने कहा-नमक और तेल से मुझे रोटी 'अच्छी लगती है बापू!
बचा हुआ दूध पीकर बुड्ढा फिर कहने लगा-यही समय है, देखती है न! गायें डेढ़ पाव दूध देती है! मुझे तो आश्चर्य होता है कि उन सूखी ठठरियों में से इतना दूध भी कैसे निकलता है!
मधुवा दबे पाँव आकर उसी झोंपड़ी के एक कोने में खड़ा हो गया। बुड्ढे ने उसकी ओर देखकर पूछा-मधुवा, आज तू क्या-क्या ले गया था?
डेढ़ सेर घुमची, एक बोझा महुआ का पत्ता और एक खाँचा कंडा बाबाजी! -मधुवा ने हाथ जोड़ कर कहा।
इन सबका दाम एक रुपया नौ आना ही मिला?
चार पैसे बन्धू को मंजूरी में दिये थे।
अभी दो सेर घुमची और होगी बापू! बहुत-सी फलियाँ बनबेरी के झुरमुट में हैं, झड़ जाने पर उन्हें बटोर लूंगी।---बज्जो ने कहा। बुड्ढा मुस्कराया। फिर उसने कहा-मधुवा! तू गायों को अच्छी तरह चराता नहीं बेटा! देख तो, धवली कितनी दुबली हो गयी है!
कहाँ चरावें, कुछ ऊसर-परती कहीं चरने के लिए बची भी है?-मधुवा ने कहा।
बज्जो अपनी भूरी लटों को हटाते हुए बोली-मधुवा गंगा में घंटो नहाता है बापू! गायें अपने मन से चरा करती हैं! यह जब बुलाता है, तभी सब चली आती हैं 1
बज्जो की बात न सुनते हुए बाबाजी ने कहा-तू ठीक कहता है मधुवा! पशुओं को खाते-खाते मनुष्य, पशुओं के भोजन की जगह भी खाने लगे। ओह! कितना इनका पेट बढ़ गया है! वाह रे समय !!
मधुवा बीच ही में बोल उठा-बज्जो, बनिया ने कहा है कि सरफोंका की पत्ती दे जाना, अब मैं जाता हूँ।
कहकर वह झोपड़ी के बाहर चला गया।
सन्धया गाँव की सीमा में धीरे-धीरे आने लगी। अन्धकार के साथ ही ठंड बढ़ चली। गंगा की कछार की झाड़ियों में सन्नाटा भरने लगा। नालों के करारों में चरवाहों के गीत गूँज रहे थे।
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