सदाबहार >> तितली तितलीजयशंकर प्रसाद
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प्रस्तुत है जयशंकर प्रसाद का श्रेष्ठतम उपन्यास...
इन्द्रदेव शैला के साथ बाहर चले आये। अनवरी के लिए देर से माधुरी की भेजी हुई लौंडी खड़ी थी। वह उसके साथ छोटी कोठी में चली गई। इन्द्रदेव ने बुड्ढे को देखकर तहसीलदार को संकेत किया।
तहसीलदार अभी बुड्ढे रामनाथ की बात नहीं छेड़ना चाहता था। किन्तु इन्द्रदेव के संकेत से उसे कहना ही पड़ा- इसका नाम रामनाथ है। यह बनजरिया पर कुछ लगान नहीं देता। एकरेज जो लगा है, वह भी नहीं देना चाहता। कहता है- कृष्णार्पण माफी पर लगान कैसा?
इन्द्रदेव ने रामनाथ को देखकर पूछा - क्यों, उस दिन हम लोग तुम्हारी ही झोंपड़ी पर गये थे?
हाँ सरकार।
तो एकरेज तो तुमको देना हो चाहिए। सरकारी मालगुजारी तो तुम्हारे लिए हम अपने आप से नहीं दे सकते।
तहसीलदार से न रहा गया, बीच ही में बोल उठा अभी तो यह भी नहीं मालूम कि यह बनजरिया का होता कौन है। पुराने कागजों में वह थी देबनन्दन के नाम। उसके मर जाने पर बनजरिया पड़ी रही। फिर इसने आकर उसमें आसन जमा लिया।
बुड्ढा झनझना उठा। उसने कहा- हम कौन हैं, इसको बताने के लिए थोड़ा समय चाहिए सरकार! क्या आप सुनेंगे?
शैला ने अपने संकेत ले उत्सुकता प्रकट की। किन्तु इन्द्रदेव ने कहा चलो, अभी माताजी के पास चलना है। फिर किसी दिन सुनूंगा। रामनाथ आज तुम जाओ, फिर मैं बुलाऊँगा, तब आना।
रामनाथ ने उठकर कहा- अच्छा सरकार।
चौबेजी वटुआ लिये हुए पान मुँह में दाबे आकर खड़े हो गये। उनके मुख पर एक विचित्र कुतूहल था। वह मन-ही-मन सोच रहे थे-आज शैला बड़ी सरकार के सामने जायगी। अनवरी भी वहीं हैं, और वहीं है बीबीरानी माधुरी! हे भगवान्!
शैला, इन्द्रदेव और चौबेजी छोटी कोठी की ओर चले।
मधुबन के हाथ में था रुपया और पैरों में फुरती, वह महंगू महतो के खेत पर जा रहा था। बीच में छावनी पर से लौटते हुए रामनाथ से भेंट हो गई। मधुबन के प्रणाम करने पर रामनाथ ने आशीर्वाद देकर पूछा- कहाँ जा रहे हो मधुबन?
आज पहला दिन है, बाबाजी ने उसे मधुवा न कहुकर मधुबन नाम से पुकारा। वह भीतर-ही-भीतर जैसे प्रसन्न हो उठा। अभी-अभी तितली से उसके हृदय की बातें हो चुकी थीं। उसकी तरी छाती में भरी थी। उसनें कहा- वाबाजी, रुपया देने जा रहा हूँ। महंगू से पुरवट के लिए कहा था-आलू और मटर सींचने के लिए। वह बहाना करता था, और हल भी उधार देने से मुकर गया। मेरा खेत भी जोतता है और मुझी से बढ़-बढ़कर बातें करता है।
रामनाथ ने कहा-भला रे, तू पुरवट के लिए तो रुपया देने जाता है- सिंचाई होंगी; पर हल क्या करेगा? आज-कल कौन-सा नया खेत जोतेगा?
मधुबन ने क्षण-भर सोचकर कहा-बाबाजी, तितली ने मुझसे चार पहर के लिए कहीं से हल उधार मांगा था। सिरिस के पेड़ के पास बनजरिया में बहुत दिनों से थोड़ा खेत बनाने का वह विचार कर रही है, जहाँ बरसात में बहुत-सी खाद भी हम लोगों ने डाल रखी थी। पिछाड़ होगी तो क्या, गोभी बोने का...?
धत पागल! तो इसके लिए इतने दिनों तक कानाफूसी करने की कौन-सी बात थी? मुझसे कहती! अच्छा, तो रुपया तुझे मिला?
हाँ बाबाजी, मेम साहब ने तितली को पाँच रुपया दिया था, वही तो मेरे पास है।
मेम साहब ने रुपया दिया था! बज्जो को? तू कहता क्या हैं!
हाँ, मेरे ही हाथ में तो दिया। वह तो लेती न थी। कहती थी, बापू बिगड़ेंगे! किसी दिन मेम साहब का उसने कोई काम कर दिया था, उसी की मजूरी बाबाजी! मेम साहब बड़ी अर्च्छी हैं।
रामनाथ चुप होकर सोचने लगा। उधर मधुबन चाहता था, बुड्ढा उसे छुट्टी दे। वह खड़ा-खड़ा ऊबने लगा। उत्साह उसे उकसाता था कि महँगू के पास पहुँचकर उसके आगे रुपये फेंक दे और अभी हल लाकर बज्जो का छोटा-सा गोभी का खेत बना दे। बुड्ढा न जाने कहाँ से छींक की तरह उसके मार्ग में बाँधा-सा आ पहुंचा।
रामनाथ सोच रहा था छावनी की बात! अभी-अभी तहसीलदार ने जो रूप दिखलाया था, वही उसके सामने नाचने लगा था। उसे जैसे बनजरिया की काया-पलट होने के साथ ही अपना भविष्य उत्तपातपूर्ण दिखाई देने लगा। तितली उसमें नया खेत बनाने जा रही है। तब भी न जाने क्या सोच कर उसने कहा- जाओ मधुबन, हल ले आओ।
मधुबन तो उछलता हुआ चला जा रहा था। किन्तु रामनाथ धीरे-धीरे बनजरिया की ओर चला।
तितली गायों को चराकर लौटा ले जा रही थी। मधुबन तो हल ले आने गया था। वह उनको अकेली कैसे छोड़ देती। धूप कड़ी हो चली थी। रामनाथ ने उसे दूर से देखा। तितली अब दूर से पूरी स्त्री-सी दिखाई पड़ती थी।
रामनाथ एक दूसरी बात सोचने लगा। बनजरिया के पास पहुँचकर उसने पुकारा- तितली!
उसने लौट कर प्रफुल्ल बदन से उत्तर दिया-'बापू!'
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