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तितली

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2058
आईएसबीएन :81-8143-396-3

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प्रस्तुत है जयशंकर प्रसाद का श्रेष्ठतम उपन्यास...

बज्जो ने भी हाथ लगा दिया। चौबेजी किसी तरह काँखते हुए उठे।

अन्धकार के साथ-साथ सर्दी बढ़ने लगी थी। बज्जो की सहायता से सुन्दरी, चौबेजी को लिवा ले चली; पर कहाँ? यह तो बज्जो ही जानती थी।

झोंपडी में बुड्ढा पुकार रहा था-बज्जो़ ! बज्जो !! बड़ी पगली है। कहाँ घूम रही है? बज्जो, चली आ !

झुरमुट में घुसते हुए चौबेजी तो कराहते थे, पर सुन्दरी उस वन-विहंगिनी की ओर आँखें गड़ाकर देख रही थी और अभ्यास के अनुसार धन्यवाद भी दे रही थी।

दूर से किसी की पुकार सुन पडी- शैला ! शैला !!

ये तीनों, झाड़ियों की दीवार पार करके, मैदान में आ गये थे।

बज्जो के सहारे चौबेजी को छोड़कर शैला फिरहरी की तरह घूम पड़ी। वह नीम के नीचे खड़ी होकर कहने लगी-इसी सीढ़ी से इन्द्रदेव-बहुत ठीक सीढ़ी है। हाँ, सँभालकर चले जाओ। चौबेजी का तो घुटना ही टूट गया है! हाँ, ठीक है, चले आओ! कहीं-कहीं जड़ें बुरी तरह से निकल आई है-उन्हें बचाकर आना।

नीचे से इन्द्रदेव ने कहा-सच कहना शैला ! क्या चौबे का घुटना टूट गया? ओहो, तो कैसे वह इतनी दूर चलेगा ! नहीं-नहीं, तुम हँसी करती हो।

ऊपर आकर देख लो, नहीं भी टूट सकता है!

नहीं भी टूट सकता है? वाह ! यह एक ही रही। अच्छा, लो, मैं आ ही पहुँचा।

एक लम्बा-सा युवक, कंधे पर बन्दूक रखे, ऊपर चढ़ रहा था। शैला, नीम के नीचे खड़ी, गंगा के करारे की ओर झाँक रही थी-यह इन्द्रदेव को सावधान करती थी-ठोकरों से और ठीक मार्ग से।

तब तक उस युवक ने हाथ बढ़ाया-दो हाथ मिले!

नीम के नीचे खड़े होकर, इन्द्रदेव ने शैला के कोमल हाथों को दबाकर कहा करारे की मिट्टी काट कर देहातियों नं कामचलाऊ सीढ़ियाँ अच्छी बना ली हैं। शैला! कितना सुन्दर दृश्य है! नीचे धीरे-धीरे गंगा बह रही है, अन्धकार से मिली हुई उस पार के वृक्षों की श्रेणी क्षितिज की कोर में गाढ़ी कालिमा की बेल बना रही है, और ऊपर...

पहले चलकर चौबेजी को देख लो, फिर दृश्य देखना।-बीच ही में रोककर शैला ने कहा।

अरे हाँ, यह तो मैं भूल ही गया था? चलो किधर चलूँ? यहाँ तो तुम्हीं पथ-प्रदर्शक हो।-कहकर इन्द्रदेव हँस पड़े।

दोनों, झोंपडियों के भीतर घुसे। एक अपरिचित बालिका के सहारे चौबेजी को कराहते देखकर इन्द्रदेव ने कहा-तो क्या सचमुच में यह मान लूँ कि तुम्हारा घुटना टूट गया? मैं इस पर कभी विश्वास नहीं कर सकता। चौबे, तुम्हारे घुटने 'टूटने वाली हड्डी' के बने ही नहीं!

सरकार, यही तो मैं भी सोचता हुआ चलने का प्रयत्न कर रहा हूँ। परन्तु

... आह। बड़ी पीड़ा है, मोच आ गई होगी। तो भी इस छोकरी के सहारे थोड़ी दूर चल सकूँगा। चलिए-। चौबेजी ने कहा।

अभी तक बज्जो से किसी ने न पूछा था कि तू कौन है, कहाँ रहती है, या हम लोगों को कहाँ लिवा जा रही है।

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