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श्रंगार - प्रेम >> जिद्दी

जिद्दी

इस्मत चुगताई

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2093
आईएसबीएन :81-8143-065-4

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प्रस्तुत है एक दुःखांत प्रेम कहानी

Ziddi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘जिद्दी’ उपन्यास एक दुःखद प्रेम कहानी है जो हमारी सामाजिक संरचना से जुड़े अनेक अहम सवालों का अपने भीतर अहाता किये हुए है। प्रेम संबंध और सामाजिक हैसियत के अन्तर्विरोध पर गाहे-बगाहे बहुत कथा कहानियाँ लिखा जाती रहीं हैं लेकिन ‘जिद्दी’ उपन्यास इनसे अलग विशिष्टता रखता है।
यह उपन्यास हरिजन प्रेम का पाखण्ड करने वाले राजा साहब का पर्दाफाश भी करता है, और साथ ही औरत पर औरत के जुल्म की दास्तान भी सुनाता है।

‘जिद्दी’ उपन्यास के केन्द्र में दो पात्र हैं-पूरन और आशा। पूरन एक अर्द्ध-सामंतीय परिवेश में पला-बढ़ा नौजवान है जिसे बचपन से वर्गीय श्रेष्ठता बोध का पाठ पढाया गया है। कथाकार ने पूरन के चरित्र का विकास ठीक इसके विपरात दिशा मे किया है। उसमें तथाकथित राजसी वैभव से मुक्त अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के निर्माण की जिद है और वह एक जिद्दी की तरह अपने आचरण को ढाल लेता है। आशा उसके खानदान खिलाई (बच्चों को खिलाने वाली स्त्री) की बेटी है। नौकरानी आशा के लाजभरे सौन्दर्य का पूरन आसक्त हो जाता है। वर्गीय हैसियत का अन्तर इस प्रेम की त्रासदी में बदल जाता है। पूरन की जिद उसे मृत्यु की ओर धकेलती है। पारिवारिक दबाववश उसका विवाह शान्ता के साथ हो जाता है और इस तरह दो स्त्रियों-आशा और शान्ता का जीवन एक साथ उजड़ जाता है। यहीं इस्मत चुगताई स्त्री के सुखों और दुःखों को पुरुष से अलग करके बताती है, ‘‘मगर औरत ? वो कितनी मुख्तविफ होती है। उसका दिल हर वक्त सहमा हुआ रहता है। हँसती है तो डर के, मुस्कराती है तो झिझक कर।’’ दोनों स्त्रियाँ इसी नैतिक संकोच की बलि चढती हैं।

जिद्दी के रूप में पूरन के व्यक्तित्व को बड़े ही कौशल के साथ उभारा गया है। इसके अलावा भोला की ताई, चमकी, रंजी आदि के घर के नौंकरों और नौकरानियों की संक्षिप्त उपस्थिति भी हमें प्रभावित करती है। इस्मत अपने बातूनीपन और विनोदप्रियता के लहजे के सहारे चरित्रों में ऐसे खूबसूरत रंग भरती हैं कि वे सजीव हो उठते हैं एक दुःखान्त उपन्यास में भोला की ताई जैसे हँसोड़ और चिड़चिड़े पात्र की सृष्टि कोई बड़ा कथाकार ही कर सकता है। छोटे चरित्रों को प्रभावशाली बनाना मुश्किल काम है।

‘जिद्दी’ उपन्यास में इस्मत का उद्धत अभिव्यक्ति और व्यंग्य का लहजा बदस्तूर देखा जा सकता है। बयान के ऐसे बहुत से ढंग और मुहावरे उन्होंने अपने कथात्मक गद्य में सुरक्षित कर लियें हैं जो अब देखें-सुने नहीं जाते। इस उपन्यास में ऐसी कामयाब पाठनीयता है कि हिन्दी पाठक इसे एक ही बार में पढ़ने का आनन्द उठाना चाहेंगे।

पूरन


पानी जान तोड़ कर बरस रहा था। मालूम होता था, आसमान में सूराख हो गए हैं। सच भी है कब से तना खड़ा है, सड़ गल कर सूराख हो जाना क्या तअज्जुब ? कई रात बरसता रहा और सुबह से बरस रहा था। जोर-जोर से गोया भर-भर समन्दर पानी को कोई पूरी ताकत से जमीन पर पटख रहा हो। दीवारों के घर तो कभी के पानी के तमाँचों से बेदम होकर बैठ गए। छप्पर गीली दाढ़ियों की तरह बाँसों और बल्लियों से झूल पड़े और घर वाले पेड़ों के नीचे दुबक बैठे। मगर पानी जैसे उनसे छेड़ कर रहा था। कोई पेड़ भी पत्थर के सायबान तो न थे, जो पानी पत्तों को चीर फाड़ कर सरों पर न गिरता। वैसे भी जैसे कोई चुल्लू भर-भर कर पेड़ों के भी नीचे उलीच रहा था। परनालों की वावेला से और भी होशो-हवास गुम थे, और फिर रात आ रही थी। घटाटोप सियाही गाढ़ी होती जा रही थी। गटर तेजी से लुढ़क रहे थे।
 आशा माँ को आखिरी घूँट पानी के देने की कोशिश कर रही थी। माँ तो जाने कब मर गई थी, पर यह नानी ही माँ-बाप सभी कुछ थी, अब नानी भी चल-चलाव पर तुली थी, और बाप बेकार निखट्टू-सा था। एक दिन स्टेशन के पास मरा हुआ पड़ा मिला। नानी बहुत कुछ उसे देती थी, पर अब वह भी बूढ़ी हो चली थी। बात ये थी कि वह राजा साहब की खिलाई1 रह चुकी थी, और राजा साहब के बाद उनके बेटों को भी इन्हीं सूखे-मारे घुटनों पर वही सड़ी-पुरानी लोरियाँ दी थीं जो वह उनके बाप को दे चुकी थी। पर वह खर्राच थी और फिर कोई जागीर थोड़े ही मिल गई थी। जेवर थोड़ा-थोड़ा करके खाया, बर्तन रखने की जरूरत ही कौन सी थी। उम्र भर राजा साहब के यहाँ रही और

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1.    बच्चों को खिलाने वाली औरत, धाय

बुढ़ापे में कौन सोने के थाल लगाता है। कई साल से महल के कोने में पड़ी सड़ रही थी। राजा साहब ने अज़राहे-हमदर्दी उसे पेंशन देकर गाँव भेज दिया। कुछ भी था, उसे सुकून था कि वह अपने गाँव में मर रही थी। अपना गाँव कहाँ, गाँव तो राजा का ही था।

‘‘नहीं आया, अभी नहीं आया’’ आशा समझी, बुढ़िया यमदूत को याद कर रही है, मगर वह पूरन के बारे में सोच रही थी। पूरन राजा साहब का सबसे छोटा लड़का था। वह अच्छा-खासा, सात बरस का हो चुका था, तब भी बूढ़ी अम्मा के साथ ही सोता था और हर इतवार को गाँव बड़े भाई के साथ आया करता था। और आज तो इतवार था। बुढ़िया जाने क्यों, उसका इंतज़ार कर रही थी और इसीलिए ठहरी हुई थी वरना इसे कायदे से तो बहुत पहले मर जाना चाहिए था।
‘‘रंजी की माँ कहाँ है। गई ?’’ बुढ़िया फिर जागी।
‘‘हाँ अम्मा ! क्या बुला लाऊं। मींह बहुत पड़ रहा है, नहीं...पर है बड़ी...वह...ऐसे...छोड़ गई।’’
साँस घुटी जा रही थी। ‘‘क्या मींह बहुत पड़ रहा है।’’

बुढ़िया को फ़िक्र हुई कि अब जलाई कैसे जाएगी !
‘‘हाँ, आशा सहमी हुई धोती का किनारा मरोड़ रही थी।
‘‘और जाने रंजी की माँ कहाँ मर गई’’ न जाने रंजी की माँ पर इतनी ममता क्यों आ रही थी। रंजी वैसे तो रंजीत, और सिंह बनियापन छिपाने को लगाया गया था मगर कहलाते ‘अबे रंजी’ थे। और यह वालिदा साहिब खिरया की दुल्हन मोती की बहू और राम भरोसे की बीवी और न मालूम कितनी जगहें बदल चुकी थीं। पर सब कमबख़्त मर-खप गए और उनमें से किसी एक की यादगार रंजी थे। समाज में उनकी हैसियत भी थूर के दरख़्त की सी थी, ज़्यादा कारआमद बनने का उनमें जज़्बा ही नहीं था। कमसिनी में कुछ दिनों हीजड़ों की टोली में जा घुसे और रंजी की माँ को सारा दिन मुहल्ले वालों को गालियाँ तक़सीम करने में गुज़र जाता। न जाने क्यों, वह बज़िद थीं कि हीजड़ों की टोली में नहीं बल्कि नौटंकी में गया है जो छोटा-मोटा थियेटर होता है। कुछ भी हो रंजी की निभी नहीं और वह पिट कर भाग आये और अब गाँव भर में नग्मा सराई के लिए मशहूर थे और एकदम बाग़ियना ख़यालात कुजा1 हीजड़ों में थे और कुजा अब
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1.    कहाँ, कभी
अव्वल नंबर के गुंडों में शुमार किए जाते थे। कुछ भी था मगर वालिदा साहिबा तो सर उठा कर चलती थीं।
बुढ़िया की बेक़रारी बेकार न गई और वह बोरा ओढ़े आन पहुँची।
‘‘कहाँ चली गईं थीं।’’ बुढ़िया मौत के फ़रिश्ते की तरह गुर्राई।
‘‘ए ज़रा देखने गई थी। रंजी लौटा कि नहीं। लछमी की माँ के गई थी, हरामी न जाने कहाँ मरा है जा के।’’

‘‘हूँ चाहे मैं मर जाती।’’ बुढ़िया अकेली आशा के सामने नहीं मरना चाहती थी कि कहीं उसका दिल न हिल जाए रंजी आशा पर आशिक़ थे। बुढ़िया को पहले तो बहुत बुरा लगा। मगर फिर सर घुमा कर देखा तो कौन से हीरे जड़े थे और यह भी बात थी कि रंजी लुच्चा होगा अपने घर का। आशा से छेड़ करने की उसमें कभी हिम्मत न हुई, आशा बाहर भी कब जाती थी ? बुढ़िया साँप बनी उसकी हिफ़ाज़त कर रही थी। सारा काम रंजी की माँ रिश्वत में कर रही थी, और रंजी जब कभी आता गधे की तरह सर झुका कर बैठ जाता, बुढ़िया राज़ी ही थी, पर अभी नहीं। अभी आशा थी ही कितनी, दो साल हुए तो उसने बाक़ायदा धोती पहननी शुरू की वरना लहंगा पहने ज़रा-सी बच्ची लगती थी, मगर रंजी की माँ की राय में लहंगे साड़ी से कुछ नहीं होता जब वह इतनी थीं तो बच्चे गिर चुके थे और तीसरा वारिद होने को था।

‘‘अपनी-अपनी उठान है।’’ बड़ी बी जब अच्छी थीं तो उनकी हिम्मत से मरऊब होकर कहती थीं, ‘‘आशा मेरी धान-पान है’’ और रंजी की गैंडे जैसी मटक देख कर सहम जाती है।
रंजी बुरा भी न था। हुस्न का मुक़ाबला तो हो नहीं रहा था। ठिगना ज़रूर था और बत्तीसी ज़रा लौटी हुई सी थी बजाय नीचे के दाँतों के ऊपर के दाँत अंदर थे और ठोड़ीं ज़रा आगे को थी, जब हँसता था तो मालूम होता था किसी ने गला उल्टा कर दिया है और होंठ तो दोनों एक जैसे सपाट ही थे। नाक थोड़ी नीची और वसीअ1 थी मगर आँखों में रस था और बाल जैसे आजकल बड़े लोगों में जिसे देखो गंजा होता चला जाता है पर हफ़्तों न धोने के बाइस धूल में अटे हुए।
‘‘पूरन नहीं आया।’’ रंजी के ज़िक्र से उक्ता कर रुख़ पलटा।
‘‘ए लो वह इस पानी में आएंगे, बड़े आदमी किसी के भी ना होते सच
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1.    चौड़ी
तो यह है।’’
बुढ़िया में दम होता तो वह इतना लड़ती कि रंजी की माँ पस्त हो जाती। अंधी कहीं की कोढ़न ! और जो वह जो हर इतवार आता था तो क्या उसे दिखाई न देता था। आते ही वह अचार की हंडिया टटोलता और उम्दा घी की फ़रमाइश करता। उम्दा घी और लड़ाई के ज़माने में, भला किधर से आए न जाए। ये लड़ाई में घी का क्या ख़र्च है ? तोपों में भर-भर कर मारते होंगे। भला घासलेट क्यों नहीं भरते ? आदमी तो खाए घासलेट और तोपें। और फिर उन्हें नाश्ता कराने में तो हल्कान हो ही जाती।

‘‘मम्मी मेरा तोस’’, निर्मल चिल्लाता सूखा मारा इंसान।
‘‘और मेरा दूध’’, दूध पी-पी कर शीला कचौरी हो गई।
और सब से छोटा भैया हलक के आख़िरी कोने से चिंघाड़ मारता, ‘‘बीच में भाभी कुश्ती लड़ती।’’
‘‘देखो मम्मी ये मेरा पापड़ खा गई’’, निर्मल मिनमिनाता।
‘‘ले अपना पापड़...मंगते’’, शीला पापड़ मुँह पर मार देती।
‘‘देखो मम्मी’’, निर्मल फ़र्याद करता है।
‘‘सूखे टिड्डे।’’
‘‘मोटी भैंस।’’

‘‘तुम सूखे टिड्डे हवा में एक दिन उड़ जाओगे।’’
‘‘और तू मोटी कुप्पा एक दिन ठपाक से फट जाएगी बस।’’
‘‘किनया..अलन।’’ निर्मल और शीला एक दूसरे का खूब मुँह नोचते और निहायत मुहब्बत से काढ़ी हुई फ्राक पर दूध छलक जाता। और निर्मल का तोस उसकी कोहनी में चिपक जाता-तब भाभी चिंघाड़ती।
 
क्या अंधेर है निर्मल के बच्चे। यह चटापट निर्मल की रानों पर थप्पड़ मारती और शीला की कमर में धमोके लगाती। और जो उसी असना1 में कहीं पूरन आ जाता तो बस भोंचाल का मजा आ जाता। वह आते ही निर्मल के अछू लगवा देता और शीला की तोंद में उँगलियाँ टहलाता और भैया के मोटे-मोटे गाल इतने मसलता के ख़ून झलक आता।
‘‘हट वहाँ से आया बड़ा।’’ भाभी छोटे-छोटे हाथों से पूरन को धकेलती। ‘‘ले के मेरे बच्चे के गाल लाल हो गए।’’ मगर पूरन उसे और भींचता और वह

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1.    बीच, दरमियान
हँसता। ‘‘देख लो भाभी हंस रहा है।’’
‘‘है न बेहया।’’
‘‘हाँ बिल्कुल अपनी माँ की तरह।’’ पूरन उसे हवा में उछालता और साथ-साथ भाभी का जी उछलता।
‘‘हाय पूरन...मेरा बच्चा...’’वह साँस रोक लेती और जब पूरन उसे लिटा कर उसका मुँह दिखाता तो भैया हँसता ही होता, और अगर आशा कोई चीज़ लेकर आती या कोई काम करती होती तो पूरन कह उठता-

‘‘चलता दुकान भी चलती और फिर जब सब खा पी चुकते तो दूसरा धंधा इख़्तियार किया जाता है।’’

वही बड़ों का ख़्वान्चा लगाया, दिन भर चख-चख कर ही खत्म कर लिया। सिगरेट, बीड़ी की दुकान दोस्त यार फूँक गए। जेब के दाम भी गये।

हाँ जो रंजी किसी करम का हो जाए तो बुरा नहीं।
‘‘देखा जाएगा अम्मा, पहले अच्छी तो हो जाओ।’’ बुढ़िया को अच्छे होने से कोई दिलचस्पी ही न थी और होगी भी तो मौत की सख़्त जल्दी थी। और जब आशा को सिसकता छोड़कर बुढ़िया चल दी तो पूरन की फ़रमाइश धरी रह गयी।
रंजी की माँ इतनी चीख़ी कि आशा भी सहम कर चुप हो गई। ऐसे सोग करने वाले भी कौन थे, पेड़ सूख गया तो पत्तियाँ भी इधर-उधर बिखर गईं। आशा जिंदगी के नए रास्ते पर चलने के लिए पूरन की मोटर में राजा साहब के यहाँ चल दी। रास्ते भर वह कोने में दुबकी आँसू पोंछती रही। पूरन को उसकी तरफ़ देखने की हिम्मत भी न हुई कि कहीं वह और न रोने लगे।

मगर जब आशा महल में पहुँची तो उसका धड़कता हुआ कलेजा ज़रा के ज़रा थम गया। राजा साहब ने मुहब्बत से हाथ फेरा और माता जी ने पास बैठा लिया। मगर भाभी। भाभी ने तो कलेजे से लगा लिया। कम उम्री में ग़म और वह भी बूढ़ी नानी का। ज़रा से दिनों में ख़त्म हो गया और साथ की दूसरी नौकरानियों, कामकाज और भाभी के बच्चों की मुहब्बत में और भी कुछ ज़्यादा न रहा, और आशा एक सीधी पुरसुकून ज़िंदगी गुज़ारने लगी।

भाभी


आशा के न कोई भाई था न बहन। फिर भाभी का तो सवाल ही क्या था। मगर वह जब कभी घर की चंचल और ख़ुशमिज़ाज बहू को देखती उसका दिल मुहब्बत से लरज़ उठता। भाभी का क़द मुन्ना-सा गुड़िया जैसा था, और वैसे ही छोटे-छोटे कमज़ोर हाथ, मगर वह शरीर कितनी थी और क़हक़हे कैसे गूंजते थे जैसे चाँदी के मोती आपस में टकरा रहे हों। वह किसी तरह भी तो तीन बच्चों की माँ नहीं मालूम होती थी। निर्मल से थोड़ी ही बड़ी तो लगती थी और निर्मल भी जब पैदा हो गया था तभी भाभी को सीधे पल्ले की साड़ी भी पहननी न आई थी, और शीला भैंस की भैंस ! फूल जैसी माँ की कितनी फूली कुप्पा बेटी थी इतना खाती थी कि माँ तो तीन दिन में न खा सकती और सबसे छोटा भैया तो बस ग़ज़ब था, हाँ वह ज़रा भाभी का बेटा लगता था क्योंकि उस पर ही वह फ़िदा थी।

यह बेतुके बच्चे और पति महाराज तो बस बृद्ध का मुजस्समा1 थे। जितना बीवी हँसती उतना ही वक़्त वह चुप रहते। किसी बनिए की परछाई पड़ गई थी बस सिवाय गाँव की देखभाल के और कुछ नहीं बस मुस्कुरा देते थे और भाभी ? हर वक़्त तीतरी की तरह उड़ती फिरती। उसके पति महाराज के मिजाज में जमीन और आसमान का फर्क़ था। मगर ऐसे ही सुकून से निभ रही थी जैसे जमीन आसमान की निभ रही है उनकी बला से बीवी छोटी, कम उम्र और ज़िद्दी थी वह सास का कहना बस कुछ ऐसा ही मानती, ज़रा-सी बात पर रूठ जाती, मुँह फुलाकर घंटों रोती, देवर से शिकायत कर देती, यहाँ तक कि ससुर की लाड़ली होने की वजह से सास की शिकायत ससुर से भी हो जाती वह थी भी तो उनसे उम्र में छोटी। हाँ और देवर से तो हर वक़्त उसकी लड़ाई
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1.    प्रतिमा
होती, शादी हो कर आई तो पहला प्यार देवर से शुरू हुआ और पहली लड़ाई भी उससे हुई और उसने शर्म करना तो किसी से सीखा ही नहीं।
सुबह ही सुबह यह रंगीन भाभी उठ बैठती और बच्चों पर सफ़ाई का हुक्म सादिर कर देती। हाँ तोपें ही हुईं, सुर्ख़ अंगारा जैसे दहानों की तोपें ! ज़रा बोलो आग उगलने लगें ये गोरे ! लो ये घी के ज़िक्र पर गोरे कहाँ से आन टपके।
हाँ तो पूरन हर इतवार आता था। आज बूढ़ी खिलाई को उसका इंतज़ार था, तो मींह बरसने पर तुल पड़ा।

‘‘वाह तुझे क्या मालूम आएगा वह ज़रूर। ज़रा देख तो कहीं...।’’
‘‘ए है कहीं भी नहीं आया।’’
रंजी की माँ उठने के डर से मारे जल्दी से बात टालने लगी।
‘‘कुछ खाया भी ? क्या हाल हो गया है...।’’
उसने चाहा बुढ़िया को मौत की याद दिला कर धमकाये। इंतजार की चंद घड़ियाँ ही गुजरीं थीं कि राजा साहब के मोटर की आवाज़ आई। बुढ़िया में जैसे थोड़ी देर के लिए दम आ गया, वह मोटर की आवाज़ को ख़ूब पहचानती थी। मोटरे आतीं ही कब थीं गाँव में, और ज़रा-सी देर में पूरन सड़े-भुसे पलंग पर मुहब्बत से बुढ़िया के पास बैठ गया।
‘‘अम्मा यहाँ ठीक इलाज नहीं हो रहा है तुम्हें लेने आया हूँ।’’

बुढ़िया तो जाने को तैयार थी, मगर कोई पूरन से भी ज़बरदस्त उसे तेजी से घसीट रहा था।
‘‘अब तो परमात्मा के चरनों में चली बेटा...।’’
‘‘कैसी बातें करती हो, और तुम तो कहती थी कि पूरन की बहू लाऊँगी, उसका बेटा खिलाऊँगी और फिर अब परमात्मा से छुट्टी लेकर आऊँगी, बस आज ही चलो वहाँ तुम्हारा इलाज यूँ हो जाएगा।’’ पूरन ने चुटकी बजा कर कहा।
‘‘अब मेरा इलाज दुनिया के किसी डाक्टर से न होगा, मेरी बात सुन।’’
‘‘नहीं अम्मा तुम...
‘‘सुन मेरे लाल ! आशा मेरी...मेरी बच्ची, मैंने इसे बड़ा खिलाया है, बड़ी प्यारी बच्ची है, उसे राजा साहब के चरणों में पहुँचा देना, उसे दुःख न देना-...मेरी... और कहीं अच्छा लड़का ढूँढ़ कर उसका ब्याह कर देना, अब उसके दुनिया में तुम्हीं लोग हो।

पूरन मौत के आसार भी न पहचानता था। ‘‘तुम ख़ुद ही चलो।’’
‘‘मैं...मैं तो जाऊँगी, मगर..रंजी ढंग का होता।’’
‘‘रंजी दुकान करने की सोच रहा है, बनिए ने वादा किया है। रंजी की वालिदा बोली, दो दिन में चल निकलेगी।’’
हालांकि रंजी कई दुकानें कर चुके थे मगर जितने दिन माल...
‘‘भाभी आशा अपनी नौकर तो नहीं, वह काम क्यों करती है ?’’
‘‘काम क्या हम नहीं करते।’’

‘‘बड़ा काम करती हो, बच्चों को पीटना और इसके सिवा तुम्हारे लिए क्या काम है मगर आशा कोई नौकर है।’’
‘‘काम करने से कोई नौकर नहीं हो जाता और फिर आशा को ब्याह कर जाना है, वहाँ क्या नौकर लगे होंगे। ग़रीब घर की लड़की।’’
‘‘क्यों ग़रीब घर की लड़की से क्या होता है, वह ग़रीब घर क्यों ब्याह कर जाएगी।’’
‘‘ग़रीब घर नहीं ब्याह कर जाएगी तो पूरन सिंह जी, तुम कहीं से उसके लिए शहज़ादा ढूँढ़ लाना।’’ वह ऐसे ज़ोर से कहती कि सभी तो सुन लें और पूरन डर जाता।
‘‘मैं ये थोड़े ही कहता हूँ भाभी, तुम तो चीख़ने लगती हो, न जाने तुम्हारा गला क्यों इतना चौड़ा है।’’ पूरन नीची आवाज़ से कहता और भाभी का बदला भैया ग़रीब के गालों और शीला की तोंद से लेता।

छोटे भैया


बड़ी बुढ़ियाँ कहती हैं तय्या मिर्चें ज़्यादा खा लो तो पेट में जो बच्चा होता है वह बिल्कुल तेज़ मिर्च पैदा होता है। जब पूरन पैदा होने की था तो शायद बड़ी बहूजी ने मिर्चें चाबीं थीं, बस उसे तो किसी कल क़रार ही नहीं था जब तक कॉलेज में रहा ख़ैर। छुट्टियों में तूफ़ान आता था मगर अब तो वह दो साल से घर पर ही किसी मुक़ाबले के इम्तिहान की तैयारी कर रहा था। यह ख़ब्त भले-चंगे को न जाने कहाँ से हो गया था, घर की जायदाद इतनी थी कि बैठ कर सात पीढ़ियाँ मज़े से खातीं मगर कॉलेजों में लड़कों के दिमाग़ गाँव से घबरा जाते हैं दरअसल क़सूर अपने गाँव का है, वहाँ है ही क्या सिवाये मालगुजारी के, जिसमें किसी का दिल लगे। बेवक़ूफ़ गधों से बदतर इंसान, मैले, बदहंगम1 टूटे-टेढ़े झोपड़ें, सड़ांधी पगडंडियाँ गन्दे नाले और उपलों की भयानक क़तारे नीममुर्दा मवेशी और मलगुजे बच्चे, भला क्या दिल लगे ?
हाँ तो पूरन की बोटी-बोटी बेकल थी सारा दिन वह भाभी से उलझता बच्चों को छेड़ता, छोकरियों से मज़ाक़ करता और चुपके-चुपके बड़े भैया पर जुमले कसा करता।

‘‘भाभी ! सुनते हैं कि भाई साहब जब दुनिया में तशरीफ़ ला रहे थे तो काली बिल्ली रास्ता काट गई, बस देख लो।’’
‘‘हू...नहीं तो तुम्हारी तरह...हाथ ही टूटेंगे। मेरी बच्ची का पेट क्या पत्थर का बना है कि सुबह से चुटकियाँ ले रहे हो।
‘‘तुम्हें तो अपने बच्चों की पड़ी रहती है, बच्चों के बाप की नहीं।’’
‘‘भई बच्चे कौन मना करता है हर साल। मगर पति महाराज सुबह से

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1.    कुरुप
पड़े खाता टटोल रहे हैं...’
‘‘भाभी मैं कहता हूँ कभी तो हँसते ही होंगे भाई साहब। कभी अकेले में तो...।’’
‘‘ऐसी जूती मारूँगी पाजी....।’’
अकेले में हँसने के ख़याल से ही भाभी लाल पड़ जाती।
बड़े भाई ही नहीं क्या वह नौकरों को छोड़ देता था ? चमकी को तो बाक़ायदा चपतें लगाता। शेव करते में साबुन उसके मुँह पर मल देता, उसकी चुटिया पाये से बाँध देता। वह तो ख़ैर जवान छोकरी थी और खिल भी जाती थी छेड़छाड़ से मगर भोला की ताई का और उसका भला क्या जोड़ था वह ग़रीब टूटे-फूटे काट-कबाड़ की तरह कोने में पड़ी रहती थी ढंग से सूझता भी न था, जाड़ों में तो ख़ैर पुराना स्वेटर या कोट पहन लेती होगी। मगर चिलचिलाती गर्मी में तो उसके कुर्ते ही फांस लगते थे। दालान में धूप भी आ जाती थी और कोठरी में घमस बला की, इसलिए वह टूटा हुआ पंखा लिए दालान में ही ऊँघा करती। पूरन उसके पास जा बैठता।

‘‘ऐ भोला की ताई ये जवानी क्यों खाक़ में मिला रही हो।’’
बुढ़िया सिर्फ घिन्ना कर देखती और मुँह फेर लेती कि शायद बेरुख़ी से बात टल जाए।
‘‘मैं कितना कहता हूँ तुमसे कि...भई अभी उम्र ही क्या है।’’
‘‘अरे हट इधर-मैं क्यों...।’’
‘‘यही तो तुम्हारी निठुराई मुझे पसन्द नहीं, मैं कहता हूँ।’’
‘‘क्या कहता है ?’’ भोला की ताई की आवाज़ बुड्ढे मुरदुवे जैसी थी।
‘‘अरे ! यही कहता हूँ..कि...कि तुम कुर्ता क्यों नहीं पहनती हो’’, वह कोई क़ाबिले-एतिराज़ बात न पाकर ही कहता।
बुढ़िया चटाई से डटी रहती पर जवान छोकरियाँ यह सुनकर शर्म से गड़ जातीं। भाभी भी बात टालने को दूसरी तरफ़ मुतवज्जा हो जाती जैसे उसने सुना ही नहीं।

‘‘अरे क्या पहनूँ’’, अब बुढ़िया फ़लसफ़ा छाँटती।
‘‘क्यों नहीं पहनो कहो तो मैं ला दूँ दो-चार पोलके ?’’
‘‘चल पोलकों के सगे।’’ बुढ़िया की बदमिज़ाजी कम न होती। कितना कहता हूँ, ‘‘भोला की ताई की मेंहदी लगाया करो, सुरमा काजल’’। छोकरियाँ हँसती और भोला की ताई मोटी-मोटी गालियाँ बड़बड़ाती।
‘‘यह तो चुड़ैलें तुमसे जलती हैं भोला की ताई’’ और वह आहिस्ता-आहिस्ता उसके पास खिसकता।
‘‘अरे क्यों मुझ पर चढ़ा चला आए है, उधर हट बेटा।’’
‘‘मुझे बेटा कहती है ?’’ पूरन संजीदगी से बुरा मानता।

‘‘हाँ भैया ज़रा गर्मी है उधर बैठ।’’
‘‘अरे भैया कहती हो मुझे ?’’ पूरन और भी बिगड़ता।
‘‘बेटा न कहूँ, भैया न कहूँ तो क्या ख़सम कहूँ तुझे ?’’ और बुढ़िया मोटी मोठ मुग़ल्ला ज़ात सुनाती।
‘‘मैं तो कहता हूँ फेरे करा लो मुझसे। क्या होगी तुम्हारी उम्र ?’’
‘‘अरे क्यों शामत आई है तेरी, ‘‘हरामी’ ’’, बुढ़िया भर्रायी हुई आवाज़ से गुर्रायी।
‘‘भोला की ताई जब गालियाँ देती हो तो बस जी चाहता है कि मुँह चूम लूँ वाह...वाह।’’
और फिर गालियों को ग़ैर मुआस्सिर पाकर भोला की ताई मारने पर तुल जाती। लौंडियाँ, बांदियाँ लपेट में आ जातीं और वह उन सबको नंगी-नंगी बातें कहतीं। यहाँ तक कि पूरन भी झेंप कर भाग खड़ा होता।

बुढ़िया बड़ी बहूजी के पास फ़रियाद लेकर जाती तो छोटी बहू उल्टा छेड़ने लगती।
‘‘अरे भोला की ताई कर लो न ऐसा क्या बुरा है ये लड़का।’’
मगर भोला की ताई कुछ ऐसी बातें कहती कि छोटी बहू सुनने से पहले ही दूसरे कमरे में चली जाती।
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1.    निष्प्रभावी


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