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मेरे बचपन के दिन

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2120
आईएसबीएन :9789350003510

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प्रस्तुत है नारी समाज पर आधारित उपन्यास...

Mere bachpan ke din

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

तसलीमा नसरीन की इस पुस्तक में उन्होंने अपनी उन स्मृतियों को समेटा है, जिस पर आगे चलकर उनके साहित्यकार की इमारत निर्मित हुई। उन्होंने देखा है कि पाकिस्तान से मुक्ति संघर्ष छेड़ने वाला समरस समाज किस तरह धीरे-धीरे कटृरपंथियों की गुलामी में जकड़कर असहिष्णु होकर अपने उन कोमल तंतुओं से हाथ धो बैठा, जो बंगाली मानस की विशेषता थी। बचपन से ही तसलीमा नसरीन ने महसूस किया कि समाज में पुरूष और स्त्रियों के लिए अलग-अलग मानक बने हुए थे। स्त्रियाँ प्रायः दासियों के रूप में देखी जाती थीं और पुरूष मालिकों के रूप में ! धार्मिक आचार-व्यवहार भी पुरूषों के पक्ष में था, और यह आज भी है।

इस द्वैत समाज व्यवस्था और धार्मिक आडम्बर तथा उसके अवैज्ञानिक दृष्टिकोण ने बचपन से ही उन्हें इस दिशा में सोचने पर विवश किया, जिसके फलस्वरूप वे एक जुझारू लेखक के रूप में विख्यात हुईं।
साहित्य में ‘मनुष्य सत्य’ और ‘व्यक्ति स्वातंत्र्य’ की हिमायती तसलीमा नसरीन को अपने ही देश की कटृरपथीं ताकतों के षड्यंत्र के चलते बांग्लादेश छोड़कर विदेशों में शरण लेनी पड़ी, मगर उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए कोई समझौता नहीं किया। इस तरह अपने प्राणों को संकट में डालकर सच कहने और लिखने वाले लोग अब दुर्लभ होते जा रहे हैं। तसलीमा नसरीन की इस बारे में भी सराहना करनी पड़ेगी कि औरत होते हुए भी उन्होंने अपने को कमजोर नहीं समझा, बल्कि उसे अपनी ताकत बनाकर पुस्तक में उनके निजी जीवन के ऐसे कई संस्मरण हैं, जिन्हें उन जैसी दबंग लेखिका ही कहने का साहस कर सकती है। यह किताब सिर्फ एक संक्रमणकालीन समाज और देश के कालखंड का बयान ही नहीं है बल्कि अपने वक्त की सच्चाई भी व्यक्त करती है। वैज्ञानिक दृष्टि से विचारों को न परखने के हिमायती कटृरपंथी कभी सच्चाई का सामना नहीं कर सकते। तभी बांग्ला में प्रकाशित होते ही इस किताब को बांग्लादेश में प्रतिबंधित कर दिया गया। इसके साथ ही तसलीमा नसरीन के विरोधियों ने नये सिरे से उनके विरूद्ध मोर्चा खोल दिया। खुशी की बात है कि विचारोत्तेजक संस्मरणों की यह पुस्तक अविकल रूप से हिन्दी पाठकों के लिए प्रस्तुत की जा रही है।


युद्ध का वर्ष

 

 

एक

 

 

युद्ध छिड़नेवाला था। हर मुहल्ले में इसी की चर्चा थी। लोग घर के दालान में, खुले मैदान में, गली के मोड़ पर, जहाँ भी इकट्ठा होते, इसी पर बहस करते। किसी के माथे पर, तो किसी की नाक के नीचे, तो किसी के खुले मुँह में, तो किसी के गालों पर, कानों पर, सिर पर आँखें ही नजर आतीं। सभी की आंखें खुली रहती थीं। उसकी आंखों के सामने लोग भाग रहे थे, अँधेरे में, उजाले में। अपने बाल-बच्चों को गोद में और अपनी गठरी वगैरह को सिर पर लादे वे दौड़ते नजर आते। सब भाग रहे थे। लोग शहर छोड़कर गाँव की ओर भाग रहे थे। मैमनसिंह शहर छोड़कर वे धोबाउड़ा, फूलपुर और नांदाइल की ओर पलायन कर रहे थे। वे अपने घर-बार, दुकान, पाठशाला, अमरावती नाट्य मन्दिर आदि सब कुछ छोड़कर नदी के उस पार धान के खेतों में, खुले मैदानों में, जंगलों में भाग रहे थे। जिन्हें अपना घर छोड़कर दो कदम हिलना भी पसन्द नहीं था वे भी बोरिया-बिस्तर लपेटने में जुट गये। गिद्धों की चोंच से मृतदेह की सुगन्ध आती थी। कबूतरों के बेचैन पंखों की फड़फड़ाहट में गोलियों की आवाज सुनाई पड़ती थी। लोग पैदल, रेलगाड़ियों से, नावों से भाग रहे थे। उनके पीछे पड़ा रह जाता था खाली मकान, आँगन के पेड़-पौधे, जलचौकी, हँसिया-हँसुआ और काली बिल्ली।

उस दिन शाम को तीन पहियोंवाली दो गाड़ियाँ हमारे घर के दरवाजे पर आकर रुकीं। उस पर सवार होकर हम लोग भी पाँचरुखी बाजार के दक्षिण के मदारीनगर गाँव की ओर रवाना हुए। शहर छोड़कर जैसे ही हम स्टीमर से ब्रह्मपुत्र पार होकर शंभुगंज में पहुँचे कि अचानक कमर में गमछा बाँधे छह नौजवान झाड़ी से उछलकर ठीक हमारे सामने सड़क पर आकर खड़े हो गए। मैं डर कर अपनी माँ से लिपट गई। भयभीत आँखों से मैंने देखा उन सभी के पास बन्दूकें थी। मैंने सोचा शायद यही युद्ध है, अचानक लोगों का रास्ता रोककर खत्म कर डालना। उन छह में से एक व्यक्ति जिसकी चमकदार काली मूँछें थीं, उसने हमारी गाड़ी के खुले दरवाजे से गर्दन बढ़ाकर पूछा, ‘‘शहर खाली करके कहाँ जा रहे हैं ? इस तरह सब चले जाएँगे तो हम लोग किसके लिए युद्ध करेंगे ? जाइए, अपने घर जाइए।’’

माँ ने चेहरे से बुर्का पलटकर छटाँक भर गुस्से में दो छटाँक निवेदन मिलाकर कहा, ‘‘यह क्या कर रहे हैं आप ! सामनेवाली गाड़ी तो निकल गई। मेरे बेटे उसी गाड़ी में बैठे हैं। हम लोगों को भी जाने दीजिए।’’
उस मुच्छड़ का दिल नहीं पसीजा। कन्धे की बन्दूक को जमीन पर पटकते हुए वह चिल्लाया, ‘गाड़ी का चक्का एक इंच भी आगे नहीं बढ़ेगा। वापस लौट जाओ।’’
गाड़ी को वापस मोड़कर उसे फेरी पर लाद कर बीड़ी सुलागते हुए धुआँ उड़ाकर उसके अधेड़ चालक ने कहा, ये सब बंगाली हैं, हमारी तरफ के ही लोग। ये पंजाबी लोग नहीं है जिनसे डरा जाए।’’ मेरा दिल बुरी तरह धड़क रहा था जैसे छह बन्दूकों से छह जोड़ी गोलियाँ निकलकर मेरे सीने में उतर गई हैं। मेरी अगल-बगल सट कर बैठी दो काले बुर्के में ढँकी महिलाओं के सूरा पढ़ने की बुदबुदाहट और तीन पहियों की घर्र-घर्र की आवाज सुनते हुए मैं जुबली घाट, गोल तालाब का तट पार कर गयी। उस वक्त हमारी धड़कन, बुदबुदाहट और घर्र-घर्र को छोड़कर कहीं और कोई आवाज नहीं थी। पूरा शहर बत्तियाँ बुझाकर रात का कम्बल ओढ़कर सो गया था।

उसी रात को पिताजी ने फिर से उस तीन पहियोंवाली गाड़ी को पूरब के बदले पश्चिम की ओर यानी मदारीनगर के बदले बेगुनबाड़ी भेज दिया। गाड़ी में बैठी यास्मीन और छोटकू को नींद आ गई। माँ भी ऊँघ रही थीं। मेरे साथ-साथ नानी भी जगी हुई थीं। नानी के हाथों में कसकर पकड़ी हुई नीले रंग की एक टोकरी थी।
‘‘नानी इस टोकरी में क्या है ?’’
नानी ने बड़े ठंडे स्वर में कहा, ‘‘लाई-चिउड़ा, गुड़।’’
बेगुनबाड़ी गाँव पहुँचकर केले के पेड़ों से घिरे जिस घर के सामने हमारे बीड़ीखोर चालक ने गाड़ी रोकी, वह रूनू खाला की ससुराल थी।
अचनाक कई लोगों ने बाहर आकर ढिबरी के उजाले में हमें देखा।
‘‘शहर से रिश्तेदार आए हैं।’’
‘‘कुएँ से पानी निकालो।’’

‘‘भात पकाओ।’’
‘‘पान का बीड़ा लगाओ।’’
‘‘बिस्तर बिछाओ।’’
‘‘पंखा झलो।’’
बिछे हुए बिस्तर पर सभी शहरी रिश्तेदार आड़े-तिरछे लेट गए। नींद में गाफिल छोटकू की टाँग मेरी टाँग पर थी, टाँग हटाने के बाद यास्मीन के घुटने मेरे पेट पर चुभने लगे। मैं उन दोनों के बीच पिसते हुए मिनमिनाने लगी, ‘‘गावतकिए के बिना मुझे नींद नहीं आ रहा है।’’ अम्हौरी भरे शरीर पर पंखा झलते हुए माँ अपनी बात-बात पर रोनेवाली लड़की को डाँटते हुए बोलीं, ‘अब गावत किया यहाँ कहाँ मिलेगा, ऐसे ही सो जाओ।’’
डाँट खाकर सोनेवालों के बीच फँसी हुई वह लड़की चुप हो गई। उस तख्त के एक छोर पर अपने को सिकोड़े हुए नानी सोई हुई थीं। काले बार्डर की साड़ी से उनका चेहरा, प्लास्टिक की टोकरी, लाई-चिउड़ा, गुड़ सब ढँका हुआ था। चौखट पर एक ढिबरी जल रही थी। उसके मन्द प्रकाश में टिन के दरवाजे पर अपने पाँच हाथ और पाँत पाँव फैलाकर कोई भूत नाच रहा था और हुस-हुस की आवाज कर रहा था। यह देखकर दोनों घुटनों में अपना मुँह छिपाकर मैं बोली, ‘‘माँ, ओ माँ मुढे डर लग रहा है।

माँ की ओर से कोई जवाब नहीं मिला। वह भी छोटकू की तरह नींद में बेसुध थी।
‘‘नानी, ओ नानी !’’
नानी की ओर से भी कोई जवाब नहीं आया।
शराफ मामा से मैंने भूत विद्या का ककहरा सीखा था। एक रात को हाँफते-हाँफते उन्होंने घर आकर कहा, ‘‘तालाब के किनारे आज मैंनै सफेद कपड़ों में एक प्रेतनी को खड़े देखा। मुझ पर उसकी नजर पड़ते ही मैं बदहवास होकर वहाँ से भागा।’’
शराफ मामा भय से काँपते हुए रजाई में घुस गए थे, मैं भी। रात भर मैं सिकुड़ी हुई घोंघे की तरह पड़ी रही।
दूसरे दिन भी ऐसी ही घटना का शिकार होकर मामा लौटे। वे बाँस के झाड़ों के नीचे से पैदल आ रहे थे, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। तभी मामा को एक नकिहा भूत की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘अरें शंराफ कहाँ जां रहां हैं ? जरां रुंक।’ मामा फिर रुके नहीं, आँधी की तरह दौड़ते हुए घर आकर उन्होंने उस हाड़ कँपाने वाली ठंड की रात में भी गुस्ल किया। हमारी निगाह में शराफ मामा की कदर बढ़ गई। मैं, फेलू मामा, टूटू मामा आदि आधी रात तक उनके इर्द-गिर्द बैठे रहे। पारुल मामी उन्हें पंखा झल रही थीं। नानी भूत से नजरें चार करने वाली अपने बेटे के लिए सिंगी मछली के सोरबे के साथ गर्मागर्म भात लाईं। थाली के एक किनारे चुटकी भर नमक भी रखा था।

काना मामू की कँटिया में खूब बड़ी-बड़ी मछलियाँ फँसती थीं। मगर मामू साबित मछली लेकर कभी घर नहीं लौटे। एक रात उन्होंने देखा कि उनके पीछे एक बिल्ली आ रही थी। काना मामू के कन्धे से मछली लटक रही थी। वे घर लौट रहे थे, अचानक उन्हें अपने कन्धे का बोझ हल्का मालूम हुआ। उन्होंने मुड़कर देखा तो पाया कि आधी मछली गायब थी। उस बिल्ली का भी अता-पता नहीं था। दरअसल वह बिल्ली नहीं थी। वह ‘मछलीभूत’ थी। बिल्ली का रूप धरकर वह मछली हड़पने आई थी।
शराफ मामा ने भोजन करते हुए हमें कानू मामू का वही किस्सा सुनाया। यह सब सुनने के बाद मेरे पोर-पोर में डर समा गया। घर के पीछे ही बाँसवन था, वहाँ मैं रात को कौन कहे दिन में भी अकेली नहीं जाती थी। साँझ ढले ही टट्टी-पेशाब भूलकर घर में घुस जाती थी। जब बर्दाश्त से बाहर हो जाता तब घर का कोई बड़ा व्यक्ति हाथ में लालटेन लेकर मेरे आगे-आगे चलता, पीछे-पीछे मैं दाएँ-बाएँ देखती हुई अपनी सारी इन्द्रियों को सजग रखकर दौड़ती हुई जाकर अपने को हल्का करके लौट आती थी।

नानी का घर छोड़कर जब मैं आमला पाड़ा के मकान में रहने के लिए आई तब मेरी उम्र सात या आठ रही होगी। मेरे पिता ने घर के नामकरण के लिए मेरे दोनों भाइयों से सलाह किया। मेरे बड़े भइया ने मकान का नाम ‘अवकाश’ रखने का सुझाव दिया, मेरे छोटे भैया ने ‘ब्लू हेवन’। हालाँकि मुझसे सुझाव नहीं माँगा गया था, फिर भी मैंने अपनी ओर से ‘रजनीगंधा’ नाम रखने का आग्रह किया। बड़े भैया के सुझाए गए नाम को ही सफेद पत्थर पर खुदवा कर काले फाटक की दीवार पर लगा दिया गया। वह मकान काफी बड़ा था। उसके खम्भों और दरवाजों पर नक्काशी की हुई थी। कमरे की छत की ओर देखने पर लगता जैसे मैं आसमान की ओर देख रही होऊँ, लगता आसमान में हरे रंग की धरन को सजा दिया गया हो। लकड़ियों के धरन पर लोहे की आड़ी चादरें थीं, लगता था जैसे रेल की पटरियाँ हों, जिस पर कू-झिकझिक करके अभी कोई रेलगाडी दौड़ेगी। बेल के पेड़ के नीचे से एक चक्करदार सीढ़ी छत तक चली गई थी। छत के नक्काशीदार रेलिंग के सामने खड़ी होने पर पूरे मुहल्ले का दृश्य नजर आता था। खुले मैदान के किनारे नारियल और सुपारी के वृक्षों की कतार थी। मेरे आँगन में आम, जामुन कटहल, अमरूद, बेल, शरीफा, जलपाई, अनार आदि के पेड़ लगे हुए थे। अपने दो बड़े भाइयों के साथ मैं तथा यास्मीन बड़ी मस्ती से पूरे घर में लुका छिपी खेलते। पीछे छूट गया था दो मील दूर एक गन्दी गली के अन्दर मछलियों से भरा तालाब, जिसके किनारे पर नानी का चौचाला घर था। कड़ईतला में अँगुली से गड्ढा करके हम लोगों का मार्बल खेल, राख के लत्ते से लालटेन की चिमनी साफ करना, जलाना, शाम होने पर अपने मामाओं के साथ चटाई पर बैठकर आगे-पीछे हिलते हुए, ‘‘नन्हीं छोटी नदी हमारी आड़ी तिरछी बहती पढ़ना, भोर का खजूर रस, भापा पीठा आदि सारी चीजें कहीं पीछे छूट गई थीं। उस मकान से भले ही और कुछ साथ न आया हो, भूतों का रोंगटे खड़े करने वाला डर जरूर साथ आया था। इस युद्ध के वक्त भी उसने बेगुनबाड़ी तक मेरा पीछा नहीं छोड़ा था। शराफ मामा अक्सर कहते, ‘‘रात खत्म होते ही भूत-पिशाच अपने-अपने स्थान पर लौट आते हैं।’’

सुबह आँख खुलने पर मैंने पाया कि कमरे में पाँच टाँगों वाला भूत गायब हो गया था, टीन की सुराख से कमरे में धूप घुसकर कमरे को गर्मा रही थी। आँगने में पीढ़ा बिछाकर माँ, नानी और रुनू खाला की सास बैठी बातें कर रही थीं। इसके पहले मैं अपना शहर छोड़कर कहीं नहीं गयी थी। सिर्फ एक बार रेल के चक्के की ताल पर ‘झिक्किर झिक्किर मैंमसिंह ढाका जाने में लगते कितने दिन’ कहते-कहते ढाका पहुँची थी। जहाँ विशाल लाल मटियार मैदान के पास बेड़े मामा रहते थे। मैं वहाँ खुले आकाश में पतंग की तरह उड़ती मेघ बालिकाओ से लुकाछिपी खेलती। चबूतरे पर बैठकर पिसे कोयले से दाँत माजती हुई सोचती लड़ाई बुरी चीज नहीं है। मेरे स्कूल में अचानक छुट्टी हो गई थी। मैं अपने घर की छत पर बैठकर दिन-रात गुड़ियों से खेलती। बस, हवाई जहाज का शब्द सुनते ही वहाँ वहाँ से भागना पड़ता, जहाँ माँ हमारे कानों में रूई ठूँसकर हमें पलंग के नीचे भेज देतीं और बुदबुदाते हुए सूरा पढ़ने लगती थीं। बाद में जमीन में एक लंबा गड्ढा खोदा गया था, जिसमें बम गिरने की आवाज होते ही हम सभी शरण ले सकें। अस्पताल में बम गिरने के बाद शहर को सुरक्षित न समझ कर पिताजी ने हमें दो गाड़ियों में लादकर गाँव भिजवा दिया था। एक गाड़ी मेरे दोनों बड़े भाइयों, शराफ मामा, फेलू मामा, टूटू मामा को लेकर मदारीनगर चली गई, दूसरी गाड़ी बेगुनबाड़ी पहुँच गई। पिताजी इस वायदे के साथ शहर में अपने मकान में रह गए थे कि हालत ज्यादा खराब होने पर वे भी अपने घर में ताला लगाकर चले आएँगे।

कुँए के पानी से कुल्ला करके मैंने गहरी सांस खींची। हवा में नीबू की पत्तियों की गन्ध थी। यहाँ पर अब पिताजी की नजरें टेढ़ी नहीं थीं, बात-बात पर डाँट-डपट नहीं थी, जब-तब पिटने का अन्देशा नहीं था। जीवन में भला इससे ज्यादा आनन्द और क्या हो सकता था। मैंने खुश होकर सोचा, आज गाँव की सड़क पर हवा के साथ वहाँ के सघन पेड़ों की छाया में लताओं के साथ मस्ती में नाचूँगी। वहाँ सेम की लतरो में कितने ही सेम लगे थे। उन्हें कौड़े की आँच में भूनकर खाऊँगी और गाँव के किसानों को दावत देकर उन्हें बाटूंगी। आहा !
‘‘छोटकू चल दुकान से इमली खरीद लाएँ।’


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