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रोज एक कहानी मंटो

सआदत हसन मंटो

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2122
आईएसबीएन :81-7055-142-0

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प्रस्तुत है सआदत्त हसन मंटो की कहानियाँ...

Roj ki ek kahani

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


मंटो की यह विशेषता है कि वह अपनी कहानियों में, अपने निजी दृष्टिकोण और विचार-धारा के साथ, दखलन्दाजी की हद तक पूरे-का-पूरा मौजूद रहता है। अपने पात्रों की खुशियों के साथ, वह उनकी तकलीफ और दुख भी सहता है। यही वजह है कि उनकी कहानियों में संस्मरण का हल्का-सा रंग हमेशा से झलकता है-किस्सा-गोई का वह स्पर्श, जो किसी बयान को यादगार बनाने के लिए बहुत जरूरी है।

लेकिन यह किस्सा-गोई महज दिलचस्पी पैदा करने के लिए, सिर्फ चन्द गाँठ के पूरे और दिमाग के कोरे ‘साहित्य प्रेमियों’ का मनोरंजन करने के लिए नहीं है। किस्सा-गोई का यह अन्दाज एक ओर तो आम आदमी को इस बात का अहसास कराता है, कि मंटो उनके साथ है, उनके बीच है, वह सारे दुख-सुख महसूस कर रहा है, जो आम आदमी की नियति है, दूसरी ओर यह भी बताता है कि यह कहानियाँ मंटो ने लिखी हैं कि पाठक यह जानें की उनकी नियति क्यों ऐसी है, जिससे वे अपनी नियति को बदलने के लिए मुनासिब कार्रवाई कर सकें।

यही वजह हैं कि मंटो, अपने चारों ओर झूठ, फरेब और भ्रष्टाचार से पर्दा उठाकर, समाज के उस हिस्से को पेश करता है, जिसे लोग स्वीकार करने से कतराते हैं, या फिर ‘ऐसा तो होता ही है’ के-से अन्दाज में एक उदासीन मान्यता दे कर, नजर-अन्दाज कर देते हैं।

लेकिन व्यक्ति और लेखक-दोनों रूपों में अपनी भूमिका ईमानदारी से निभाने की जिम्मेदारी महसूस करते हुए, मंटो न ही तो कतरा सकता है और न ही इन सब को नजर-अन्दाज ही कर सकता है वह इस सारे भ्रष्टाचार के रू-ब-रू होकर, उसकी भर्त्सना करता है। लेकिन वह कोरा सुधारक नहीं है, वरन एक अत्यन्त भाव-प्रवण, संवेदनशील व्यक्ति है, इसलिए वह समाज के इस गर्हित पक्ष रंडियों, भड़वों, दलालों, शराबियों-में दबी-छपी मानवीयता की तलाश करता है। वह समाज के निचले तबके के लोगों की ओर मुड़ता है और उनके ‘आहत अनस्तित्व’ को छूने के लिए अपने ‘प्राणदायी हाथ’ बढ़ाता है।


रोज़ एक कहानी और मंटो


सृजनात्मक लेखन में प्रतिभा बड़ी और बुनियादी चीज़ बेशक है, लेकिन कम कला-क्षमता वाले लेखकों के हाथ में बेजान-सी हो जाती है। ठीक है कि प्रतिभा के बिना कोरा अभ्यास दूर तक साथ नहीं देता और जिसे अभ्यास कहते हैं, देखा जाए तो वह रचना कौशल ही है। उर्दू में इसे ‘मश्के-सुखन’-कहने का अभ्यास या कौशल कहा गया है। इसे शायरी या कथा-कथन की महारत भी कहा जा सकता है। दरअसल प्रतिभा और अभ्यास मिलकर सृजन को उच्च स्तर तक ले जाते हैं, ले जा सकते हैं।

किसी बड़ी कृति के संदर्भ में यह कहना मुश्किल है कि प्रतिभा का रोल कहाँ खत्म हुआ और अभ्यास या रचना-कौशल ने कहाँ पाँव जमाने शुरू किए। दोनों एक-दूसरे में घुल-मिलकर, मिल-जुलकर, ही रचना को सँवारते, निखारते और कृति को आकार देते हैं। यह एक ऐसा खेल है जिसके एक नहीं कई रंग हैं, एक नहीं कई ध्वनियाँ हैं, एक नहीं कई कोण हैं। प्रतिभा और अभ्यास के इस खेल को हर लेखक अपने-अपने तरीके से खेलता है-कभी खुद को तो कभी कृति को केंद्र में रखकर। ऐसे लेखक भी हैं जो अपनी रचना प्रक्रिया की भनक तक नहीं पड़ने देते-कहते कुछ हैं, दिखाते कुछ हैं और करते कुछ और ही हैं। किसी लेखक की रचना प्रक्रिया के रहस्यों को इन सबके बीच से ही पाना होता है।

यही इसकी जटिलता है। सआदत हसन मंटो जैसे लेखक को लें जिन्होंने प्रतिभा और अभ्यास के इस मिले-जुले और अजीबोग़रीब खेल को अपनी शर्तों, पर अपनी तरह खेला है। एक जगह उन्होंने लिखा है कि शराब की तरह अफ़साना लिखने की उन्हें लत पड़ी हुई है। अफ़साना न लिख पाने की सूरत में उन्हें महसूस होता है कि जैसे उन्होंने कपड़े न पहने हुए हों या गुसल न किया हो या शराब न पी हो। मंटो ने जो कालजयी कहानियाँ लिखी हैं, उन्हें देखते हुए उनका यह मानना ‘मैं अफ़साना नहीं लिखता, हकीकत यह है कि अफ़साना मुझे लिखता है’’, सही लगता है। देखने की बात यह है कि यहाँ मंटों और अफ़साना एक साथ हैं। अहमियत अफ़साने की ही है, पर मंटो भी कम नहीं हैं। इसमें शक नहीं कि उन्होंने लगातार लिखते हुए अपनी प्रतिभा और कला को कहानियों में निचोड़ दिया और कहानियों में जहाँ वे सृजन की बुलंदियों को छूते रहे, वहीं औसत साधारण-सी दिखने वाली कहानियों में भी जिंदगी की सच्चाइयाँ गूँथते रहे और अफ़सानों में अपने सृजनात्मक व्यक्तित्व के हर पहलू को इस तरह उजागर करते रहे, गोया ज़िंदगी की जुर्राब के धागों को उधेड़ रहे हों।

1990 में मैंने ‘सआदत हसन मंटो की कहानियाँ’ और 1991 में ‘सआदत हसन मंटो’ के नाटक जैसी दो बड़ी किताबें संपादित की थीं, जिनकी हिंदी और उर्दू के साहित्यिक क्षेत्रों में व्यापक चर्चा रही। पाठकों का एक बड़ा समुदाय इन कहानियों और नाटकों से विचलित, उद्धेलित और प्रेरित होता रहा है। भारतीय भाषाओं और विश्व की कई भाषाओं के रचनाकारों तक जब ये कहानियाँ अनूदित होकर पहुँचीं तो वे मंटो की कहानी कला से बेहद प्रभावित हुए। मैं स्वयं उनकी कहानियों से रचनात्मक स्तर पर बिंधा रहा हूँ-कभी ‘एक अग्निकांड जगहें बदलता’ जैसी लंबी कविता लिखते हुए तो कभी ‘टोबा टेकसिंह’ से प्रेरित होकर ‘नो मैंस लैंड’ नाटक लिखते हुए। बहरहाल, मंटो भारतीय उपमहाद्वीप की अंतश्चेतना (साइकी) का स्थाई हिस्सा बन चुके हैं। यह तो है ही कि हम उन्हें बीसवीं शताबदी के एक बड़े लेखक की हैसियत से आज भी अपने साथ महसूस करते हैं। इसमें संदेह नहीं कि आने वाली पीढ़ियाँ अपने समय और परिस्थिति में उनकी कहानियों के नए पाठ तैयार करेंगी।

विश्व-संदर्भ में और भारतीय संदर्भ में भी कहानीकार के नाते मंटो का जायजा लेने की कोशिश उनकी केवल शिखर समझी जाने वाली कहानियों के सहारे संभव नहीं है। इसके लिए ज़रूरी है कि उनकी शिखर कहानियों के साथ-साथ नितांत साधारण समझी जाने वाली कहानियों और उनके ऐसे कथा दौरों (जब उन पर सर्वाधिक दबाव रहे) को भी ध्यान में रखा जाए। ऐसी कुछ कहानियाँ और दौर जब मेरी नजर से गुजरे तो मुझे लगा कि इनके जरिए मंटो को, उनकी कहानियों, रोज़मर्रा की उनकी मनःस्थितियों और रुझानों को एक साथ समझने में मदद मिल सकती है।

मंटो की रचना प्रक्रिया पर बहुत कम लिखा गया है, उस पक्ष पर तो बिल्कुल नहीं, जब वे रोज़ एक कहानी लिखते थे। रोज़ लिखी जाती ये कहानियाँ बहुचर्चित या बड़ी बेशक न हों, लेकिन रोज़ लिखी जाने की एकमात्र वजह से इनकी तरफ ध्यान आकृष्ट होना स्वाभाविक है। मेरे विचार में मंटो के रचना मन को समझने के लिए अन्य बातों के साथ-साथ इन कहानियों का संदर्भ लेना ज़रूरी है। उनकी कहानियों के दो ऐसे दौर हैं, जब वे रोज़ एक कहानी लिखते थे। आप इन्हें उनकी कहानियों के दो सिलसिले भी कह सकते हैं-पहला सिलसिला : 23 जुलाई, 1950 से 31 जुलाई, 1950 तक यानी ‘गोली’ से ‘शारदा’ तक कुल सात कहानियाँ और दूसरा सिलसिला : 11 मई, 1954 से 1 जून, 1954 तक यानी ‘बाई-बाई’ से ‘अनारकली’ तक कुल उन्नीस कहानियाँ। सवाल है कि ऐसी क्या बाध्यता थी कि उन्हें रोज़ एक कहानी लिखनी ही पड़ती थी ? क्या कहानी कहने के भीतरी, रचनात्मक दबाव उनसे रोज़ एक कहानी लिखवाते थे ? क्या पत्रिकाओं के तकाजों से तंग आकर वे रोज़ कहानी लिखने बैठ जाते थे ? क्या बीवी-बच्चों की ज़रूरतों को पूरी करने के लिए या शाम को शराब पीने की तलब उनसे ऐसा करवाती थी ? क्या वे इतने खस्ता-हाल हो गए थे रोज़ पीने के लिए उन्हें रोज़ कुआँ खोदना पड़ता था ? इन सवालों का सीधे-सीधे कोई एक जवाब नहीं हो सकता। संभव है कि कहानी लिखने के भीतरी दबाव और संपादकों के तकाज़े मिलकर उन्हें रोज़ एक कहानी लिखने की तरफ धकेल देते हों। जल्दबाजी में किसी निर्णय पर पहुँचने से पहले अच्छा यह होगा कि हम जाने कि मंटों इस बारे में क्या कहते हैं ?

‘मैं अफ़साना क्योंकर लिखता हूँ’ लेख में अपनी रचना-प्रक्रिया की सलवटों को खोलते हुए वे एक जगह लिखते हैं : ‘‘अनलिखे अफ़सानों के दाम पेशगी वसूल कर चुका होता हूँ, इसलिए बड़ी कोफ्त होती है। करवटें बदलता हूँ। उठकर अपनी चिड़ियों को दाने डालता हूँ। बच्चों को झूला झुलाता हूँ। घर का कूड़ाकरकट साफ करता हूँ। जूते नन्हें जूते जो घर में जहाँ-तहाँ बिखरे होते हैं, उठाकर एक जगह रखता हूँ। मगर कमबख्त अफ़साना जो मेरी जेब में पड़ा होता है, मेरे जेहन में नहीं उतरता और मैं तिलमिलाता रहता हूँ।’’ मंटो के इस वक्तव्य से दो बातेंब ड़ी साफ हैं : एक अफ़साना उन्हें लिखना ही है क्योंकि वे अनलिखे अफ़साने के दाम पेशगी वसूल कर चुके हैं। इसीलिए वे अफ़साना लिखने के लिए तड़प रहे हैं, तिलमला रहे हैं। बाहरी दबावों की वजह से एक नैतिक संकट (अनलिखे अफ़साने के दाम पेशगी वसूल कर चुकना) से उनका घिरे होना उन्हें मजबूर करता है कि वह कहानी लिखें। ध्यान कीजिए, रोटी और कला यहाँ परस्पर उलझे हुए हैं। मैं क्या लिखता हूँ’ में एक स्थल पर वे कहते भी हैं : ‘‘रोटी और कला का संबंध प्रकटतः अजीब-सा मालूम होता है, लेकिन क्या किया जाए कि खुदावंद ताला को यही मंजूर है। वह खुद को हर चीज़ से निरपेक्ष कहता है-यह गलत है। वह निरपेक्ष और निर्लेप हरगिज नहीं है। उसको इबादत चाहिए और इबादत बड़ी ही नर्म और नाज़ुक-सी रोटी है, बल्कि यों कहिए चुपड़ी हुई रोटी है, जिससे वह अपना पेट भरता है।’’ रोटी और कला के इस अजीब से संबंध को अपने स्नायु तंत्र पर झेलते हुए, रोज़ एक अफ़साना लिखने की मजबूरी को भी मंटो ने एक कलाकार की हैसियत से निभाया है-ईमानदारी और सच्चाई के साथ, बिना कोई समझौता किए।

एक बार एक दोस्त ने मंटो से पूछा : ‘‘मंटो साहब, आप नावल क्यों नहीं लिखते ?’’ मंटो साहब का जवाब था : ‘‘यहाँ रोज़ पीने को पैसा चाहिए। रोज़ अफ़साना लिखते हैं। मुआवजा मिल जाता है, अब नावेल कौन लिखे ?’’
यह अजब विरोधाभास है कि जो मंटो पैसे के लिए अफ़साने लिखते थे, उनके लिए पैसे की कोई अहमियत नहीं थी। रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए उन्हें पैसा चाहिए था, लेकिन आत्म-सम्मान की क़ीमत पर नहीं। एक बार मंटो ने अमेरिकी पॉलिसी की नुक्ताचीनी करते हुए चचा ‘साम’ के नाम से कई पत्र लिखे थे, जिससे उन दिनों बवंडर-सा उठ खड़ा हुआ था। तब पाकिस्तान में अमेरिका के हाई कमिश्नर ने मंटो को संदेश भिजवाया : अगर तुम हमारे अखबार के लिए लेख लिखो तो तुम्हें एक लेख पर पाँच सौ रुपए पारिश्रमिक दिया जाएगा।’’

मंटो को समझते देर न लगी कि यह उनको खरीदने की, उनकी जुबान पर ताला लगाने की कोशिश है। आर्थिक परेशानियों से घिरे होते हुए भी उन्होंने साफ इंकार कर दिया : ‘‘मंटो फरोख्त नहीं हो सकता।’’
मंटो की विसंगतियों और अंतर्विरोधों को, उनकी जिंदगी और साहित्य के रिश्तों को समझे बिना यह कहना बेमाने है कि वह ज़िंदगी भर पीते रहे और बेकायदा ज़िंदगी बसर करते रहे। पीने और जीने और लिखने की उनकी परिस्थितियों को सिर्फ सतह पर देखते हुए नहीं समझा जा सकता। उनकी ज़िंदगी की बाहरी भीतरी सच्चाइयों में दूर तक झाँकते हुए वहाँ पहुँचा जा सकता है, जहाँ ज़िंदगी और मौत एक ही सिक्के के दो पहलू नज़र आने लगते हैं। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने एलिस के नाम खत में इस तरफ संकेत किया है : ‘‘बात यह है कि जब आर्थिक हालत की वजह से फ़न और ज़िंदगी एक-दूसरे से टकरा रहे हों तो दोनों में से एक की कुर्बानी देनी पड़ती है।’’

26 कहानियों के जो दो सिलसिले यहाँ दिए जा रहे हैं, वे मंटो की कहानी कला के अंतिम दौर के हैं। दूसरे सिलसिले के छह महीने बाद उनका निधन (18 जनवरी, 1955) हो गया था। यही वह दौर है जब वे बेतहाशा पीने लगे थे-इतनी कि उनका जिगर छलनी हो गया था, लेकिन इसकी उन्हें परवाह नहीं थी। ध्यान दीजिए, इस दौर में वे लगातार लिखते रहे रोज़ एक कहानी। वे ताउम्र ज़िंदगी को कहानी में और कहानी को ज़िंदगी में ढूँढ़ते रहे। मंटो की इन कहानियों का अनुवाद श्री शंभु यादव ने किया है। श्री देवेंद्र इस्सर और डॉ. सादिक ने अनुवाद कार्य को देखा पड़ताला है-मंटो की भाषा, खास अंदाज और शैली को ध्यान में रखते हुए। अपने इन मित्रों का मैं हृदय से आभारी हूँ।


-नरेंद्र मोहन


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