जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
लेकिन सुरंजन कह नहीं सका। रत्ना दो सीढ़ियाँ उतरकर बोली, 'फिर आइएगा। आपके आने से लगा कि बगल में खड़ा होकर सहारा देने वाला कोई एक तो है। एकदम अकेली नहीं हो गयी।'
सुरंजन स्पष्ट समझ रहा था कि परवीन के लिए उसके मन में जैसा होता था, वह चंचल गौरैया उसे जिस तरह सुख में बहाकर ले जाती थी, उसी प्रकार के सुख की अनुभूति उसे अब भी हो रही है।
सुरंजन सुबह चाय के कप के साथ अखबार भी उठाता है। आज उसका मन बहुत अच्छा है, रात में नींद भी अच्छी आई। वह अखबार पर आँखें फेरने के बाद माया को बुलाता है।
'क्यों रे, तुझे हुआ क्या है! इतना मन मारकर क्यों रहती हो?'
'मुझे क्या होगा! तुम ही तो चुप हो गये हो। एकबार भी पिताजी के पास जाकर नहीं बैठते।
'मुझसे वह सब देखा नहीं जाता। अच्छा, माँ ने रुपये क्यों नहीं रखे? उनके पास बहुत रुपया है?'
'माँ ने गहना बेचा है।'
'यह काम उसने बहुत अच्छा किया। मैं तो गहना-वहना बिल्कुल पसंद नहीं करता।'
‘पसंद नहीं करते हो? परवीन आपा के लिए तो मोती जड़ी अँगूठी खरीद दिये थे!'
'वह कच्ची उम्र थी, मन रंगीन था, उतनी बुद्धि नहीं थी, इसलिए!'
'अब बहुत पक गये हो?' माया हँसकर बोली।
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