|
जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
|
360 पाठक हैं |
|||||||
प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
'जड़ लेकर क्या करेंगे पिताजी? यदि जड़ से ही कुछ हो सकता, तो इस तरह दरवाजा, खिड़की बंद करके क्यों पड़े रहना होता? सारी उम्र क्या इस तरह कुएँ के मेंढक की तरह जीवन बिताना होगा। ये लोग बात-बात में हमारे घरों पर हमला करेंगे, ये लोग हमें जबह करने के आदी हो चुके हैं। इस तरह चूहे जैसा जीवन बिताने में हमें लज्जा आती है पिताजी। गुस्सा भी आता है। मैं कुछ कर नहीं कर सकता। मुझे गुस्सा आने पर क्या मैं उनके दो घर भी जला सकूँगा? क्या हमलोग मूरों की तरह ताकते हुए अपना सर्वनाश देखेंगे? कुछ कहने का, कोई मुसलमान मुझे एक थप्पड़ मारे तो क्या उसे जवाबी थप्पड़ मारने का मुझे अधिकार है? चलिए, चले जाते हैं।'
'अब तो परिस्थिति शांत होती जा रही है। इतना क्यों सोच रहे हो? आवेग के सहारे जिन्दगी नहीं चलती।'
'शांत होता जा रहा है? सब ऊपर-ऊपर से। भीतर क्रूरता ही रह गयी है।
भीतर भयंकर दाँत, नाखून निकाले हुए जाल बिछाये बैठे हैं वे। आप धोती उतार कर आज पाजामा क्यों पहनते हैं? क्यों आपको धोती पहनने की स्वतंत्रता नहीं है? चलिए चले चलते हैं।'
सुधामय गुस्से में दाँत पीसते हैं, कहते हैं, 'नहीं। मैं नहीं जाऊँगा। तुम्हारी इच्छा हो तो तुम चले जाओ।'
'आप नहीं चलेंगे?'
'नहीं, घृणा और वितृष्णा से सुधामय मुँह फेर लेते हैं।
'फिर कहता हूँ पिताजी, चलिए चले चलते हैं।' सुरंजन ने पिता के कंधे पर हाथ रखकर मुलायम स्वर में कहा। उसकी आवाज में कष्ट था, आँसू थे।
सुधामय ने पहले की ही तरह दृढ़ स्वर में कहा, 'ना'। यह 'ना' सुरंजन की पीठ पर चाबुक की तरह पड़ा।
सुरंजन असफल हुआ। वह जानता था वह सफल नहीं होगा। सुधामय जैसे कठोर व्यक्ति लात-जूता खाकर भी माटी पकड़कर पड़े रहेंगे। माटी के साँप, बिच्छू उन्हें काटेंगे, फिर भी वह मिट्टी में ही घुसे रहेंगे।
|
|||||











