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उजाले अपनी यादों के

बशीर बद्र

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :115
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2126
आईएसबीएन :81-7055-458-6

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बशीर बद्र की शायरी व गजलें...

Ujaley Unki yaden Ke

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दोस्तान की दूसरी जुबानों में गजल के लिये जो इज्जत और मोहब्बत पैदा हुई है, उसमें बशीर बद्र का नुमाया हिस्सा है। जो जिन्दगी के तफक्कुर (समस्याओं) को तग़ज्जुल बनाते हैं। उनका कमाल ये है कि वो अछ्छी शायरी कर के भीमकबूल (लोकिप्रिय) हुए हैं। मेरे नजदीक इस वक्त हिन्दुस्तान में और हिन्दुस्तान से बाहर उर्द गजल की आबरू बशीर बद्र है ।
डॉ. खलीक अंजुम, दिल्ली बशीर बद्र की गजल, जिन्दगी की धूप और एहसास के फूलों की गजल है, यही उनकी शायरी की बुनियादी मिजाज है। बशीर बद्र ने गजल को जो महबूबियत, विकार (गरिमा), एतबार और वज़ाहत (सौंदर्य) दी है, वो बेमिसाल है। वशीर बद्र से पहले किसी की गजल को ये मेहबूबियत नहीं मिली। मीरो-गालिब के शेर बहुत मशहूर हैं, लेकिन मैं पूरे एतमाद (विश्वास) से कह सकता हूँ कि आलमी पैमाने पर बशीर बद्र की गजलों के अशआर से, किसी के शेर मशहूर नहीं हैं, उसकी वजह यह है कि उन्होंने आज के इन्सान के नफ्सियाति (मनोवैज्ञानिक) मिजाज की तर्जमानी जिस आलमी उर्दू के गजलिया उस्लूब (शैली) में की है, वो इससे पहले मुमकिन भी नहीं थी। इस एतराफ (स्वीकृति) में बुखल (संकोच) से काम नहीं लेना चहिये कि वो, इस वक्त दुनियाँ में गजल के सबसे महबूब शायर हैं।

यह लिप्यन्तर?


पिछले दिनों एक यात्रा के दौरान गुजरात के बड़ोदरा स्टेशन से गुज़रना पड़ा। ट्रेन वहाँ कुछ ज़्यादा ही देर तक रुकती है, इसलिए यूँ ही प्लेटफार्म पर बुक-स्टाल में सजी किताबें टटोलने लगा। अनायास ही पेपर बैक में छपी एक छोटी-सी पतली किताब हाथ में आ गई, जिसके कवर पर गुजराती लिपि में लिखा था ‘बशीर बद्र’। किताब को खोलकर देखा, कोई 60 ग़ज़लें गुजराती में छपी हुई थीं जिन्हें निदा फाज़ली ने संकलित किया था। मैं गुजराती जानता हूँ, तो वह किताब खरीद ली और बम्बई तक की यात्रा में पूरी पढ़ गया। इस किताब ने मेरे सामने डॉ.बशीर बद्र के कुछ नये रूपों को उद्धाटित किया।
डॉ.बशीर बद्र को यहाँ-वहाँ कुछ-कुछ सुना था, उनके कुछ मशहूर शेरों से मैं उसी तरह वाक़िफ़ था, जिस तरह ज्ञानी जैल सिंह, श्रीमती इन्दिरा गांधी, जुल्फिकार अली भुट्टो से लेकर एक रिक्शे वाले, ट्रक ड्राइवर और कुली, मज़दूर तक के तमाम लोगों की एक लम्बी रेंज वाक़िफ़ और प्रभावित है। मुझे मालूम था कि-

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो,
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाये।


और
दुश्मनी जमकर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे,
जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिन्दा न हों।


जैसे मशहूर शेर डॉ.बशीर बद्र ने कहे हैं और जो कुछ और मशहूर शेर उनकी उपलब्धियों में शामिल हैं, जैसे-

कोई हाथ भी न मिलायेगा जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नये मिज़ाज का शहर है ज़रा फासले से मिला करो।

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी,
यों कोई बेवफ़ा नहीं होता।
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में,
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में।


जैसे शे’र जो 8-10 करोड़ लोगों की ज़िन्दगी के साथ चलते हुए उनकी तकरीर और गुफ़्तगू का हिस्सा बन गये हैं, भी डॉ.बशीर बद्र ने कहे हैं। मुझे सबसे ज़्यादा मज़ा तब आया जब एक सड़क-यात्रा में मेरे साथ चल रहे दोस्त ने मुझे बताया कि आगे जा रहे ट्रक के डाले पर लिखा हुआ शे’र डॉ.बशीर बद्र का है। शे’र कुछ यूँ था-

मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी


कुछ दिनों बाद मैंने एक और ट्रक के डाले पर लिखा हुआ देखा-

दुश्मनी का सफ़र एक क़दम दो कद़म,
तुम भी थक जाओगे हम भी थक जाएँगे।


लुब्बोलुबाब यह कि आम हिन्दी पाठकों की तरह मैं भी डॉ.बशीर बद्र को उर्दू का वो शायर मानता था जिसने कामयाबी की बुलन्दियों को फ़तह कर एक लम्बी रेंज़ के लोगों के दिलों की धड़कनों को अपनी शायरी में उतारा है। गुजराती में छपे इस छोटे-से संग्रह ने ही मुझे यह बताया कि डॉ.बशीर बद्र इन पन्द्रह-पच्चीस महान् उद्धरणों से आगे भी ज़िन्दगी और कविता के मज़बूत पायों के शायर हैं। इस किताब में मैंने जब उनका यह शे’र पढ़ा-

धूप के ऊँचे-नीचे रस्तों को,
एक कमरे का बल्ब क्या जाने।


तो पता लगा कि डॉक्टर साहब के वो शे’र जो मीर-ओ-ग़ालिब के शेरों की तरह मशहूर हैं, अत: अच्छे हैं ही और ग़ज़ल के सरमाये का एक अहम हिस्सा भी, लेकिन जो शे’र कल की ग़ज़ल का पैग़म्बर बनेंगे, उनसे मेरा साक्षात्कार नहीं हुआ था। मुझे यह भी लगा कि अव्वल तो डॉ.बशीर बद्र उर्दू लिपि में लिखने और छपने के बावजूद निखालिस उर्दू शायर नहीं है और दूसरी हिन्दी कविता के वर्तमान परिदृश्य में वे एक ऐसी आवश्यकता हैं, जिसके बिना यह परिदृश्य अधूरा नहीं तो कम-से कम कुछ कम अवश्य लगेगा। लगा जैसे एक ख़ास लिपि के अज्ञान की दीवारें हिन्दी के पाठकों और काव्य-रसिकों के लिए एक ऐसा कमरा बन गई हैं, जहाँ से ऊँचे-नीचे रस्तों की धूप, कमरे के बल्ब तक और कमरे के बल्ब की रोशनी, धूप के ऊँचे-नीचे रस्तों तक नहीं पहुँच पा रही है। फिर, मैंने सोचा कि गुजराती में कुछ लोगों ने दीवारें तोड़ने का यह काम अगर कर लिया है, तो हिन्दी में भी कुछ लोगों ने किया ही होगा, और किताबों की कई दुकानों को खँगाल मारा, कई शायरों के लिप्यन्तर पढ़े। वे मुझे अच्छे लिप्यन्तर लगे और उर्दू शायरी का ख़ासा लुत्फ भी मिला, लेकिन डॉ.बशीर बद्र की कोई किताब देवनागरी में नहीं मिल पाई और ग़ज़ल को हिन्दी और उर्दू के खण्डों से निकालकर महसूस करना भी सम्भव नहीं हो पाया।

इसी दौरान सापेक्ष के ग़ज़ल विशेषांक के सम्पादन में सहयोग का मौक़ा मुझे मिला। मेरा तबादला भी भोपाल हो गया, जहाँ मुझे पता चला कि डॉ.बशीर बद्र भोपाल में ही मेरे आफ़िस से करीब दो सौ गज की दूरी पर रह रहे हैं। मैंने सोचा कि क्यों न हिन्दी ग़ज़ल पर उनका एक इन्टरव्यू कर लिया जाये। डॉ.साहब ने अपनी बीमारी के बावजूद बात करने के लिए सहमति दे दी और इन्टरव्यू के शुरूआत में ही मैंने उन्हें यह कहकर छेड़ दिया कि वे उर्दू के एक बड़े शायर है, ‘‘हिन्दी ग़ज़ल पर अपनी टिप्पणी करें।’’ मेरी बात पूरी होने से पहले ही प्रतिवाद के स्वर और कुछ रूखे अन्दाज़ में उन्होंने कहा कि मैं उर्दू-हिन्दी भाषा का शायर नहीं हूँ, मैं सिर्फ़ ग़ज़ल की भाषा का शायर हूँ। इस तरह शुरूआत में ही उन्होंने मुझे चेता दिया कि बातचीत सिर्फ़ ग़ज़ल पर होगी, हिन्दी ग़ज़ल या उर्दू ग़ज़ल पर नहीं। फिर तो बातों का एक लम्बा सिलसिला चल पड़ा और उसमें एक मज़ेदार मौक़ा तब आया जब मैंने उन्हें उनके बहुत पढ़े जाने वाले मशहूर शेरों के बारे में छेड़ दिया। चिढ़ते तो डॉ.साहब कभी नहीं हैं, लेकिन एक हल्की-सी रुखाई ज़रूर उनके स्वर में कौंधी और उन्होंने पूछा, ‘‘मैं अपने इन मशहूर शेरों की धौंस में क्यों आऊँ ?’’ फिलहाल इस इन्टरव्यूह के दौरान हिन्दी कविता और उर्दू शायरी पर लम्बी बातचीत हुई। डॉ.साहब ने पूरी जिम्मेदारी के साथ यह दावा भी किया कि ग़ज़ल का आने वाले कल का बड़ा शायर अब हिन्दी में ही पैदा होगा और यह आशा भी व्यक्त की कि सिन्धी, गुजराती, मराठी की तरह कल अंग्रेज़ी में भी ग़ज़लें कही जायेंगी और इस बात का अफ़सोस भी जाहिर किया कि उन्हें देवनागरी पढ़ने का अच्छा अभ्यास नहीं होने के कारण वे हिन्दी कविता के अध्ययन और लुत्फ से महरूम रह गये हैं।

इस बातचीत के दौरान उन्होंने अपनी कुछ ऐसी ग़ज़लें सुनाई जो न तो देवनागरी में छपी हैं, न मुशायरों में सुनी गई हैं। एक ग़ज़ल का शे’र कुछ यूँ था-
सड़कों, बाजारों, मकानों, दफ्तरों में रात-दिन
लाल-पीली, सब्ज़ नीली, जलती-बुझती औरतें।


हिन्दी की ग़ज़ल की परम्परा में, जो उर्दू से ही आई है, डॉ.बशीर बद्र का स्थान मीर तकी मीर की विरासत है। यों तो आज ग़ज़ल को हिन्दी के दायरे में देखना ही अनुचित है, क्योंकि सांस्कृतिक आदान-प्रदान के युग में मात्र लैपिकीय प्रयोग के प्रति यह दृष्टिकोण संकीर्ण और अप्रासंगिक ही है। भाषाओं के सम्मिश्रण से जब भाषिक विकास होता है, तो यह सम्मिश्रण केवल शब्दों का ही नहीं, वरन् उन भाषाओं के पीछे की कमी समूची सांस्कृतिक अवधारणाओं का होता है। इस प्रक्रिया में एक भाषा दूसरी भाषा के नज़दीक केवल अपना स्थूल शब्दकोष लेकर नहीं आती, बल्कि एक पूरी की पूरी दुनिया अपने साथ लेकर आती है। उर्दू का हिन्दी में प्रवेश कोई आकस्मिक घटना नहीं है, यह भारत में स्वातंत्र्योत्तर काल में विकसित हुई एक संस्कृति की कथा है। कठिनाई यह है कि हम जिस तरह खड़ी बोली की कविता-यात्रा में उर्दू अदब के किंचित प्रभाव को भी विचार में नहीं लेते, उसी तरह हिन्दी ग़ज़ल की प्रकृति का फ़ैसला करते वक़्त पूरी गम्भीरता से दुष्यन्त कुमार के पीछे भी नहीं जाना चाहते। आज आम बोलचाल में उर्दू अंग्रेजी का प्रयोग अबोध विधि व निष्कपट भाव से कुछ इस प्रकार हो रहा है कि इन भाषाओं के अनेकों शब्द अपनी सत्ता को पीछे छोड़कर हिन्दी के एकात्म हो गये हैं, दरअसल इसी प्रक्रिया के चलते ही कविता की भाषा और बोलचाल में भाषा के कम्पार्टमेंट भी टूटते हैं। अपनी आन्तरिक जरूरत के तहत् रचना को बोलचाल के जिस शब्द की जरूरत होती है, वह उसे निस्संकोच अपना लेती है। अपनी कथित चरित्रगत स्वच्छता बनाये रखने और भाषा की मूल सत्ता खो जाने के भय से वह अभिव्यंजना को अधूरा नहीं छोड़ती। यही हिन्दी के बड़े कवियों ने किया है और मीर तक़ी मीर और कुछ शायरों ने जिनमें डॉ.बशीर बद्र का नाम सबसे ऊपर लिया जाना जरूरी है। डॉ.साहब ने इस सिलसिले में अंग्रेज़ी से भी कोई परहेज नहीं किया है। उन्होंने पहली बार उन अंग्रेजी शब्दों को ग़ज़ल बनाया, जो हमारी भाषा का हिस्सा हो गये थे। उनके पहले ग़ज़ल में ये करतब सोचा भी नहीं जा सकता था। कुछ उदाहरण देखिए,
थके थके पेडल के बीच चले सूरज
घर की तरफ लौटी दफ्तर की शाम।
वो जाफ़रानी पुलोवर उसी की हिस्सा है,
कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे।


विषयान्तर का थोड़ा खतरा उठाते हुए यहाँ हम यह भी देख सकते हैं कि सिर्फ भाषा के स्तर पर ही नहीं, अपितु ग़ज़ल को युगीन चेतना से युक्त बौद्धिक प्रतीक धर्मिता से जोड़कर भी डॉ.बशीर बद्र ने एक बुनियादी काम किया है। हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, पर्शियान की गैरग़ज़ली शब्दराशि को पूरी सहजता के साथ अपने शे’रों में समाहित कर उन्होंने नयी ग़ज़ल के लिए जहाँ तक एक विशाल शब्दकोश खुला छोड़ दिया है वहीं ग़ज़ल को पारम्परिक बिम्बों, मुहावरों और रूपकों की जड़ता से निकालकर समकालीन चेतना के साथ साँस लेना सिखा दिया है। बिना किसी शोर-शराबे और नारेबाज़ी के ग़ज़ल महफिलों से बाहर आकर शहरों, गाँवों, घर, परिवार, प्रेम, वियोग, कारखानों, बगीचों और प्रकृति के साथ-साथ रेल, बसों और किताबों में आकर रम गयी। यह ग़ज़ल का पुनर्जीवन है। इसीलिये शायद यह अकारण नहीं है कि डॉ.बशीर बद्र की ग़ज़लों में शमा परवाना जागोमीनासाकी का प्रयोग सिरे से ग़ायब मिलता है, अभिव्यंजना में दुराग्रहों से कोसों दूर रहने वाले डॉ.बशीर बद्र ने यहाँ दुराग्रह से काम लिया है।

कभी जो संज्ञा वाचक शब्द किसी वस्तु विशेष का बोध कराते थे, वे आगे चलकर बहुत सहज बिम्ब हो जाते हैं और संज्ञाओं के पीछे के आदमी की हँसी-खुशी, आशाओं, आकांक्षाओं, चिन्ताओं, उद्वेगों, आवेगों का मूर्त बोध कराने लगते हैं। यादों के साथ उजाले, मृत्यु के साथ शाम और जीवन के साथ अनेकानेक गलियों का रूपक अब भाषा में एकाकर हो गये हैं, यहाँ सम्प्रेषण के किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं रह जाती है और यह रूपक जन-जन तक आसानी से पहुँचने वाली कविता की पहचान बन जाते हैं यही काव्य की विकास यात्रा है। कवि कि निजी नितान्त वैयक्तिकता के क्षणों में उसके आस-पास की चीजें, मेज, कुर्सी, सूरज, रेल की पटरी, नारियल के दरख्त, अटैची, कोट आदि के पीछे जो आदमी है, वह उससे बातचीत करता है और यह बातचीत जब एक सार्थक अभिव्यंजना के रूप में फूट पड़ती है तो वह एक महान कविता ही होती है। आज की भाषा में ये रूपक संज्ञा की परिधि के बाहर नहीं आ पाने से यदि आमफहम नहीं हो पाये हैं, तो भी इस बात की क्या गारण्टी है कि आने वाले कल के काव्य रसिक इनके भीतर के इंसान को नहीं पहचान पायेंगे ? पाठक पर ऐसा अविश्वास करना काव्य की विकास यात्रा पर अविश्वास करना है।
जब डॉ.बशीर बद्र कहते हैं-
बारिशों में किसी पेड़ को देखना,
शाल ओढ़े हुए भीगता कौन है।


तो वे किसी पेड़ को एक ऊनी कपड़ा तो नहीं ओढ़ाते हैं। जब रात के घुप्प अँधेरे में दूर से आती हुई रेल को देखकर डॉ.बशीर बद्र कहते हैं-
पीछे-पीछे थी तारों का एक लश्कर लिये,
रेल की पटरी पे सूरज चल रहा था रात को।


तो यह मंज़र, सिर्फ़ रात के अँधेरे में चल रही रेल का मंज़र ही तो नहीं होता, बल्कि एक चलती-फिरती जीवन्त दुनिया होती है। और जब वे कहते हैं-
नारियल के दरख्तों की पागल हवा, खुल गये बादवाँ लौट जा लौट जा, साँवली सरज़मीं पर मैं अगले बरस फूल खिलने से पहले ही आ जाऊँगा।
या
सब्त पत्ते धूप की ये आग जब पी जायेंगे,
उजले फर के कोट पहने हल्के जाड़े आयेंगे।
और जब वे कहते हैं-
मुझको शाम बता देती है,
तुम कैसे कपड़े पहने हो।


या
सारे दिन की थकी साहिली रेत पर,
दो तड़पती हुई मछलियाँ सो गईं।
झिलमिलाते हैं किश्तियों में दिये,
पुल खड़े सो रहे हैं पानी में।


और उससे भी आगे जाकर जब कहते हैं-
कच्चे फल कोट की जेब में ठूँसकर जैसे ही मैं किताबों की जानिब बढ़ा, गैलरी में छुपी दोपहर ने मुझे नारियल की तरह तोड़कर पी लिया तो डॉ.बशीर बद्र का वह रूप सामने आता है, जिसके बारे में उन्होंने खुद ही एक जगह कहा है-

कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बँधा हुआ,
ये ग़ज़ल का लहज़ा नया-नया न कहा न सुना हुआ।


ग़ज़ल के इन शेरों का आज लोकप्रिय न होना गुणवत्ता की कोई कसौटी नहीं है, और इस बात की गारण्टी भी नहीं है कि कल या आज भी, नारियल के दरख़्तों की पागल हवा के पीछे काव्य-रसिक भारत के धुर दक्षिण में समन्दर के किनारे की किसी अल्हड़ युवती को न देख पाये। ऐसा सोचना कविता की विकास यात्रा में अनास्था जाहिर करना है।
ग़ज़ल के साथ जो बहुत सी गलतफहमियाँ जुड़ी हैं, उनमें से एक रूपकों और बिम्बों के पुनरावर्तन से निकली सम्प्रेषणीय सहजता की विशिष्टता भी है। बल्कि आमतौर पर तो यह ग़ज़ल की अनिवार्यता ही मानी जाती है। इसी गलतफहमी के चलते जहाँ एक ओर हिन्दी कविता के मर्मज्ञ ग़ज़ल को ही कविता से खारिज कर देते हैं वहीं दूसरी ओर डॉ.बशीर बद्र की उन ग़ज़लों पर पर्याप्त आलोचना उर्दू हिन्दी में भी नहीं की गई जिसमें एकदम नये बिम्ब व रूपक हैं, जिसकी इमेजरी नयी दुनिया से लायी हुई इमेजरी है, जो एक तरह से ग़ज़ल की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए भी पारम्परिकता से डिपार्चर है। यहाँ बशीर बद्र के जो शे’र दुनिया भर में सबसे मशहूर शे’र हैं, उनकी काव्यगत गुणवत्ता पर कोई टिप्पणी किये बगैर मैं यह कहना चाहूँगा कि उनका असली कारनामा आज की वैश्विक ज़िन्दगी से नये इंसान की तलाश किया जाना है, जिस पर अभी काफी कुछ लिखा जाना था।

डॉ.बशीर बद्र ने शब्दों से अपनी बात बुलवाने का काम लिया है और इस दौरान उन्होंने शब्द में अपनी ज़मीन और मिट्टी के संस्कार बो दिये हैं। यही कारण है कि उनके ‘शब्द’ उनकी ग़ज़लों के हिन्दी या उर्दू होने पर कोई फ़ैसला नहीं दे सकते हैं। अगर उनकी ग़ज़लियत पर उर्दू आलोचना में कुछ सवालात उठाये भी गये हैं, तो शायद इसलिए कि वे एक रची-रचाई बँधी-बँधाई बिम्ब योजना, रूपकों और मुहावरों से बाहर चले गये हैं। लेकिन इस तरह बाहर जाना उनकी मजबूरी थी, क्योंकि रचना की आत्मतुष्ट वैयक्तिकता और रूमानी भाववाद के जिस दौर में, सामाजिक चिन्ता और मानवीय सरोकारों में बँधे कवि एक गहरा अँधेरा महसूस कर रहे थे, जहाँ एक ओर किशोर भावुकता की भीड़ लगी थी और दूसरी ओर कलावाद के नये-नये जुमले पाठक को छल रहे थे, कुछ हिन्दी कवियों की तरह डॉ.बशीर बद्र ने भी अपनी ग़ज़ल के शेरों में उस देशकाल की मिट्टी के संस्कार बो दिये जिन्होंने अगली पीढ़ी को भी प्रभावित किया। उनकी काव्य-भाषा, मुहावरे और अभिव्यक्ति के सीधे नुकीलेपन से इस कविता को आकर्षक बनाया। यहाँ कविता साधारण आदमी के साथ जीवन के तर्क या प्रश्न नहीं करती, उसे असहायता में खीझकर छोड़ नहीं देती, उसे उपदेश और सलाह भी नहीं देती, देती है तो सिर्फ़ एक दिलासा। उनकी कविताएँ या शे’र किसी दिशा विशेष की ओर से ले जाने की वजह से नहीं बल्कि मानवीय सम्बन्धों के सार्थक आश्वासन और आत्मविश्वास को सम्वेदनात्मक बल पहुँचाने की वजह से श्रेष्ठ हैं, इसीलिये लिप्यन्तर का यह उपक्रम भी है।
डॉ.बद्र की कविता का अत्यन्त प्रीतिकार पक्ष उनकी सादगी है। कितने भोलेपन से वे कह जाते हैं-

हम से मुसाफिरों का सफ़र इन्तिज़ार है,
सब खिड़कियों के सामने लम्बी कतार है।


और ऐसे ही कहते हैं-
हम क्या जानें दीवारों से, कैसे धूप उतरती होगी,
रात रहे बाहर जाना है, रात गए घर आना बाबा।


तो लगता है कि यह भोलापन सिर्फ अभिव्यंजना का भोलापन नहीं है। यह इसलिए आकर्षित करता है कि जहाँ कविता एक छोर पर सहजता की आड़ में कविता जहाँ सपाटबयानी और वक्तव्य का पर्याय हो गई है, वहीं दूसरे छोर पर वह गहरी और मार्मिक होने की प्रक्रिया में जटिल और दूभर हो गई। जन की पक्षधरता के बावजूद कवि जन तक पहुँचने वाली कविता अवसर नहीं दे सके। नयी कविता का भाषा का आदर्श भले ही बोलचाल की भाषा रहा हो, लेकिन कई जगह अनुभूतियों के एकान्त, अपरिचित प्रतीक संयोजन और शैली की वक्रता ने उसे जटिल बना दिया है। कुल मिलाकर अगर भाषा सहज हुई तो भी वह सहजता दिखावटी ही रही। डॉ.बशीर बद्र ने माना है कि अभिव्यक्ति प्रक्रिया का मुख्य काम अनुभव और विचार को अधिक सार्थक, सघन और प्रभावी बनाना है। युद्ध का हथियार बनाने वाले कारीगर में योद्धा का सा आक्रोश नहीं होता, लेकिन अस्त्र की मारक क्षमता और युद्ध में उसके होने वाले प्रभाव पर निगाह जरूर होती है। विषमताओं पर तीखे प्रहार भी कितनी बाल सुलभ मासूमियत से किए जा सकते हैं, यह इस शे’र से स्पष्ट हो जायेगा,

किसने जलाई बस्तियाँ बाजार क्यों लुटे,
मैं चाँद पर गया था मुझको कुछ पता नहीं।


सहजता में कविता एक चिन्तन को कैसे रूप दे सकती है ये डॉ.साहब की कविता में देखा जा सकता है और यह भी कि सम्प्रेषण के स्तर पर सरलता से उपलब्ध कविता अनुभूति और रचना-प्रक्रिया के स्तर पर सहज होते हुए भी अपने पीछे से कवि के आत्म-संघर्ष, भीतरी खोजें, बेचैनी, उसके अध्ययन और चिन्तन के सरोकारों से लबालब होती है। इसीलिए दंगों की त्रासदी पर वह आसानी से कह सकता है :

मकां से क्या मुझे लेना मकां तुमको मुबारक हो
मगर ये घासवाला रेशमी कालीन मेरा है।


ये ग़ज़ल कविता आश्वस्त करती है कि अभिव्यंजना के लिये माध्यम की न तो कोई मर्यादा होती है, न ही उसकी कोई भाषा। अगर ऐसी कोई मर्यादा है तो मानवीय सरोकारों की, और कोई भाषा है तो हमारे आस-पास साँस ले रही ज़िन्दगी की। डॉ.बशीर बद्र इसी भाषा के कवि हैं और इसलिये जब वे कहते हैं कि वे उर्दू लिपि में लिखी जाने वाली ग़ज़ल की भाषा के शायर हैं तो यह लिप्यन्तर जरूरी हो जाता है।

इस संकलन में डॉ.बशीर बद्र की तीन तरह की ग़ज़लें संकलित है। पहले वर्ग में वे ग़ज़लें आती हैं, जो आमफहम और अत्यधिक लोकप्रिय हैं। दूसरे वर्ग में वे जो पारम्परिक उर्दू संस्कारों की ग़ज़लें हैं। और तीसरे वर्ग में वे ग़ज़लें, जिन्होंने अपने बाद की ग़ज़ल कविता के लिए कई बन्द दरवाज़े खोले हैं, कई रास्तें बनाये हैं, लेकिन कई क्षितिज अधखुले छोड़ दिये हैं। मैं डॉ.बशीर बद्र साहब का अत्यन्त आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे अपनी करीब 500 ग़ज़लों में से ये 100 ग़ज़लें चयनित करने और प्रकाशित करवाने की अनुमति दी। इस पुस्तिका के प्रकाशन की तैयारी में अपने मित्र श्री राजकुमार सिंह सेंगर और श्री मनोज सिंह सिसौदिया द्वारा किये गये सहयोग के लिए मैं उनका भी आभारी हूँ।
-विजय वाते


एक चेहरा साथ साथ रहा



एक चेहरा साथ-साथ रहा जो मिला नहीं,
किसको तलाश करते रहे कुछ पता नहीं।

शिद्दत की धूप तेज़ हवाओं के बावजूद,
मैं शाख़ से गिरा हूँ नज़र से गिरा नहीं।

आख़िर ग़ज़ल का ताजमहल भी है मकबरा,
हम ज़िन्दगी थे हमको किसी ने जिया नहीं।

जिसकी मुखालफ़त हुई मशहूर हो गया,
इन पत्थरों से कोई परिन्दा गिरा नहीं।

तारिकियों में और चमकती है दिल की धूप,
सूरज तमाम रात यहाँ डूबता नहीं।

किसने जलाई बस्तियाँ बाजार क्यों लुटे,
मैं चाँद पर गया था मुझे कुछ पता नहीं।




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