कहानी संग्रह >> विभाजन की कहानियाँ विभाजन की कहानियाँमुशर्रफ आलम ज़ौकी
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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कहानी-संग्रह...
Vibhajan ki kahaniyan
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सभ्यता ने जब-जब अपनी पुस्तक में विकास के अध्यायों को जोड़ा है, जंगों का जन्म हुआ है। यह कोई नई बात नहीं है। मुल्क हिन्दोस्तान इसी सिलसिले की एक कड़ी है। मुल्की गुलामी से निजात ने निज ‘चीथड़ों’ को जन्म दिया, वे साम्प्रदायिकता के लहू के रंग थे। यद्यपि इसे इस आँख से भी देखना चाहिए कि आपस की नाइत्तेफाक़ी केवल अंग्रेज की ‘फूट डालो और शासन करो’ राजनीति का परिणाम नहीं थी, हमारे अपने दिमाग भी दाग़दार थे, या हो चुके थे। हाँ, यह सच है कि साम्प्रदायकिता के उन्माद को जब-जब टटोलने की बात चलती है तो इसे सीधे अंग्रेजी राजनीति से जोड़कर अपना दामन बचाने की कोशिश की जाती है।
मगर पूरा—पूरा सच यह नहीं है। कुसूरवार कहीं हम भी रहे हैं। और यह जो अपनी पुरानी संस्कृति के खुलासे में मिला हुआ दिमाग रहा है...जिसमें वर्षों से यह बैठाया जाता रहा है...इतनी सारी नदियाँ, इतने सारे पहाड़...इतने सारे रंग, नस्ल और अलग-अलग देशों से आये ‘चीथड़े’...यह जो, एक देश को सेकुलर’ बनाने के पीछे हर बार जबरन ‘‘पैबन्दों’’ की बैसाखियों का सहारा लिया गया—आप माने न माने इन्होंने भी जहनो-दिमाग के बँटवारे को जन्म दिया। दरअसल टुकड़े आर्यावर्त के नहीं हुए। टुकड़े हुए दिमाग के...और इनमें फूटी एक कोढ़नुमा संस्कृति...इनसे उपजा साम्प्रदायिकता का उन्माद।
सेकुलर विचारधाराएँ सामने आ तो रही हैं पर इस तरह नहीं, जिस तरह आनी चाहिए। कभी मजहब की गहरी समस्या है तो लेखक के भीतर का धार्मिक व्यक्ति भी परेशान हो उठता है ! नहीं ? हम पल में हिन्दू मुसलमान बन जाते हैं। कहानियों की सतह पर भी ये भीतर का आदमी सामने आ जाता है। नहीं, उसे नहीं आना चाहिए। मगर यह नहीं होता। अन्दर बाहर का यह द्वन्द्व चलता रहता है। बाहर की मेज पर बैठा हुआ, चार व्यक्तियों से घिरा आदमी वह नहीं होता, जो घर की दहलीज पर जाकर होता है। अपने परिवार में, अपने बच्चों में।
लगता है, मज़हब की परिभाषाओं को हमने कभी बहुत संजीदगी से नहीं लिया। हम दर्शन का बखान करने में, एक ‘‘भुथरी’’ छुरी से उसे हलाल करके आगे तो बढ़ जाते हैं, परन्तु वह रहता है, वहीं। भीतर जमा हुआ। पाँव पसारे। मज़हब की एक नयी परिभाषा ढूँढनी होगी।
इन सब सच्चाइयों के बावजूद, बदलते हुए समय में विभाजन की ये कहानियाँ हमसे कुछ तकाजे भी करती हैं। कोशिश की गयी है कि ऐसी कहानियों का एक हसीन गुलदस्ता सजाया जाए, जिन में विभाजन के अलग-अलग रंगों को देखा जा सके। ये कहानियाँ कैसी लगीं, हमें आपकी राय की प्रतीक्षा है।
मगर पूरा—पूरा सच यह नहीं है। कुसूरवार कहीं हम भी रहे हैं। और यह जो अपनी पुरानी संस्कृति के खुलासे में मिला हुआ दिमाग रहा है...जिसमें वर्षों से यह बैठाया जाता रहा है...इतनी सारी नदियाँ, इतने सारे पहाड़...इतने सारे रंग, नस्ल और अलग-अलग देशों से आये ‘चीथड़े’...यह जो, एक देश को सेकुलर’ बनाने के पीछे हर बार जबरन ‘‘पैबन्दों’’ की बैसाखियों का सहारा लिया गया—आप माने न माने इन्होंने भी जहनो-दिमाग के बँटवारे को जन्म दिया। दरअसल टुकड़े आर्यावर्त के नहीं हुए। टुकड़े हुए दिमाग के...और इनमें फूटी एक कोढ़नुमा संस्कृति...इनसे उपजा साम्प्रदायिकता का उन्माद।
सेकुलर विचारधाराएँ सामने आ तो रही हैं पर इस तरह नहीं, जिस तरह आनी चाहिए। कभी मजहब की गहरी समस्या है तो लेखक के भीतर का धार्मिक व्यक्ति भी परेशान हो उठता है ! नहीं ? हम पल में हिन्दू मुसलमान बन जाते हैं। कहानियों की सतह पर भी ये भीतर का आदमी सामने आ जाता है। नहीं, उसे नहीं आना चाहिए। मगर यह नहीं होता। अन्दर बाहर का यह द्वन्द्व चलता रहता है। बाहर की मेज पर बैठा हुआ, चार व्यक्तियों से घिरा आदमी वह नहीं होता, जो घर की दहलीज पर जाकर होता है। अपने परिवार में, अपने बच्चों में।
लगता है, मज़हब की परिभाषाओं को हमने कभी बहुत संजीदगी से नहीं लिया। हम दर्शन का बखान करने में, एक ‘‘भुथरी’’ छुरी से उसे हलाल करके आगे तो बढ़ जाते हैं, परन्तु वह रहता है, वहीं। भीतर जमा हुआ। पाँव पसारे। मज़हब की एक नयी परिभाषा ढूँढनी होगी।
इन सब सच्चाइयों के बावजूद, बदलते हुए समय में विभाजन की ये कहानियाँ हमसे कुछ तकाजे भी करती हैं। कोशिश की गयी है कि ऐसी कहानियों का एक हसीन गुलदस्ता सजाया जाए, जिन में विभाजन के अलग-अलग रंगों को देखा जा सके। ये कहानियाँ कैसी लगीं, हमें आपकी राय की प्रतीक्षा है।
विभाजन की कहानियाँ
सभ्यता ने जब-जब अपनी पुस्तक में विकास के अध्यायों को जोड़ा है, जंगों का जन्म हुआ है। यह कोई नई बात नहीं है। मुल्क हिन्दोस्तान इसी सिलसिले की एक कड़ी है। मुल्की गुलामी से निजात ने निज ‘चीथड़ों’ को जन्म दिया, वे साम्प्रदायिकता के लहू से रंग थे। यद्यपि इसे इस आँख से भी देखना चाहिए कि आपस की नाइत्तेफाक़ी केवल अंग्रेज की ‘फूट डालो और शासन करो’ राजनीति का परिणाम नहीं थी, हमारे अपने दिमाग भी दाग़दार थे, या हो चुके थे। हाँ, यह सच है कि साम्प्रदायकिता के उन्माद को जब-जब टटोलने की बात चलती है तो इसे सीधे अंग्रेजी राजनीति से जोड़कर अपना दामन बचाने की कोशिश की जाती है।
मगर पूरा—पूरा सच यह नहीं है। कुसूरवार कहीं हम भी रहे हैं। और यह जो अपनी पुरानी संस्कृति के खुलासे में मिला हुआ दिमाग रहा है...जिसमें वर्षों से यह बैठाया जाता रहा है...इतनी सारी नदियाँ, इतने सारे पहाड़...इतने सारे रंग, नस्ल और अलग-अलग देशों से आये ‘चीथड़े’...यह जो, एक देश को ‘सेकुलर’ बनाने के पीछे हर बार जबरन ‘पैबन्दों’ की बैसाखियों का सहारा लिया गया—आप मानें न मानें इन्होंने भी जहनो-दिमाग के बँटवारे को जन्म दिया। दरअसल टुकड़े आर्यावर्त के नहीं हुए। टुकड़े हुए दिमाग के...और इनमें फूटी एक कोढ़नुमा संस्कृति...इनसे उपजा साम्प्रदायिकता का उन्माद।
आर्यावर्त कितने टुकड़ों में विभाजित हुआ। विभाजन की कितनी आँधियाँ चलीं इस देश में....कैसे-कैसे मोड़ आये। सात विभाजन...सात स्याह इतिहास...कभी यहां स्याह रंग की कौम रहती थी। आर्य आये-हजारों की संख्या में—पहले पंजाब पर क़ब्जा किया, फिर उत्तर प्रदेश पर। देश पहली बार गोरों और कालों में तक़सीम हुआ....। तो शुरू हो गई तक़सीम...चक्र चल पड़ा विभाजन का। उत्तर भारत में सफेदफाम आर्य और दक्षिण में स्याहफाम द्राविड़। सदियों तक सुकून से रहने के बाद आये आर्यों में फूट पड़ गई। इतिहास को संक्षेप में लिया जाये तो, विभाजन का दूसरा चरण आरम्भ था। फिर सिकंदर आया। जाते-जाते सेल्यूकस को अपनी सल्तनत का वायसराय बनाता गया। चाणक्य उस जमाने में गुप्त खानदान का प्रधानमन्त्री था। युद्ध हुआ। यूनानी सेना हार गई। यह देश के तीसरे विभाजन की घटना थी।
बाद का इतिहास भी काफी लंबा है। देश कई भागों में विभाजित हो चुका था। मुहम्मद बिन काशिम की अरब फौजें सिंध में सेंध डाल रही थीं। फिर पंजाब और सिंध पर क़ब्जा हुआ। तुर्क आये। पठान आये। मुग़ल आये। जहाँगीर ने फिरंगियों को व्यापार का रास्ता दिखा दिया.....औरंगजेब के मरते ही सल्तनत कमजोर पड़ने लगी। फिर पूरे मुल्क पर अंग्रेज़ों का क़ब्जा हो गया। यह मुल्क का चौथा विभाजन था। सन् 1935 में अंग्रेजों ने भारत से लंका और बर्मा को अलग दिया। कर यह विभाजन का पाँचवाँ अध्याय था। छठा अध्याय राजनीति का वह स्याह पन्ना था जब देश 14 अगस्त, 1947 को दो भागों में विभाजित हो गया। पाकिस्तान और भारत। दो देश नहीं, दो दिलों की तक़सीम कर दी गई। 3 दिसम्बर, 1971 को भारत-पाक जंग आरम्भ हुई और एक अलग स्वतंत्र देश बांगलादेश बना....।
यह आर्यावर्त की सातवीं तक़सीम थी...विभाजन के सात दरवाजे....हर दरवाजे के भीतर एक आर्यावर्त कराह रहा है। कराहने का स्वर तेज़ है...पर शायद अब शब्द ‘विभाजन’ से भीतर कोई चीत्कार जन्म नहीं लेता। देश स्वाधीनता की सत्तावनवीं वर्षगांठ मना रहा है, पर इच्छाओं पर जैसे बर्फ की सिलें रख दी गई हों।
वास्तव में-जैसे अब यह देश नहीं रह गया हो-टुंड्रा प्रदेश बन गया हो। मानव होने की इच्छा, आकांक्षाओं, भावनाओं पर जैसे हिम गिर पड़ी हो। सत्तावन वर्ष— सत्तावन वर्ष में हमने उपलब्धियों को ज़ीने कम चढ़े, अपनों का ख़ून ज़्यादा बहाया। यदि साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ है, तो यह कोई अचम्भे की बात नहीं, शताब्दियों से विरासत में मिली विभाजन-संस्कृति से यदि साम्प्रदायिकता का जन्म न होता तब यह अचम्भे की बात होती।
आज़ाद कश्मीर, उत्तराखंड और हवालाओं-घोटालाओं के लम्बे सिलसिले। इनमें कौन लिप्त नहीं है। कहना चाहिए, जहाँ और जिस सतह पर जिसको अवसर मिलता है—वह भीग जाता है इस मलिन बारिश में—लेखन और पत्रिकारिता तक—हम जैसे छोटे-बड़े अनगिनत हिम खण्डों में घिर गये हैं—सर्द हो गये हैं, बेहिस, अमानव और नपुंसक। इस देश का सबसे बड़ा नायक धर्म है, और धर्म के नाम पर सबकुछ चलता रहता है।
टुंड्रा प्रदेश-छोटे बड़े हिमखण्डों में घिरे हुए हम। कहीं, धुंध में किसी स्लेज या रेन्डियर को आँखें तकती हैं—जो धुंध बना सके रास्ता और बाहर निकाल सके इस टुंड्रा प्रदेश से।
मगर पूरा—पूरा सच यह नहीं है। कुसूरवार कहीं हम भी रहे हैं। और यह जो अपनी पुरानी संस्कृति के खुलासे में मिला हुआ दिमाग रहा है...जिसमें वर्षों से यह बैठाया जाता रहा है...इतनी सारी नदियाँ, इतने सारे पहाड़...इतने सारे रंग, नस्ल और अलग-अलग देशों से आये ‘चीथड़े’...यह जो, एक देश को ‘सेकुलर’ बनाने के पीछे हर बार जबरन ‘पैबन्दों’ की बैसाखियों का सहारा लिया गया—आप मानें न मानें इन्होंने भी जहनो-दिमाग के बँटवारे को जन्म दिया। दरअसल टुकड़े आर्यावर्त के नहीं हुए। टुकड़े हुए दिमाग के...और इनमें फूटी एक कोढ़नुमा संस्कृति...इनसे उपजा साम्प्रदायिकता का उन्माद।
आर्यावर्त कितने टुकड़ों में विभाजित हुआ। विभाजन की कितनी आँधियाँ चलीं इस देश में....कैसे-कैसे मोड़ आये। सात विभाजन...सात स्याह इतिहास...कभी यहां स्याह रंग की कौम रहती थी। आर्य आये-हजारों की संख्या में—पहले पंजाब पर क़ब्जा किया, फिर उत्तर प्रदेश पर। देश पहली बार गोरों और कालों में तक़सीम हुआ....। तो शुरू हो गई तक़सीम...चक्र चल पड़ा विभाजन का। उत्तर भारत में सफेदफाम आर्य और दक्षिण में स्याहफाम द्राविड़। सदियों तक सुकून से रहने के बाद आये आर्यों में फूट पड़ गई। इतिहास को संक्षेप में लिया जाये तो, विभाजन का दूसरा चरण आरम्भ था। फिर सिकंदर आया। जाते-जाते सेल्यूकस को अपनी सल्तनत का वायसराय बनाता गया। चाणक्य उस जमाने में गुप्त खानदान का प्रधानमन्त्री था। युद्ध हुआ। यूनानी सेना हार गई। यह देश के तीसरे विभाजन की घटना थी।
बाद का इतिहास भी काफी लंबा है। देश कई भागों में विभाजित हो चुका था। मुहम्मद बिन काशिम की अरब फौजें सिंध में सेंध डाल रही थीं। फिर पंजाब और सिंध पर क़ब्जा हुआ। तुर्क आये। पठान आये। मुग़ल आये। जहाँगीर ने फिरंगियों को व्यापार का रास्ता दिखा दिया.....औरंगजेब के मरते ही सल्तनत कमजोर पड़ने लगी। फिर पूरे मुल्क पर अंग्रेज़ों का क़ब्जा हो गया। यह मुल्क का चौथा विभाजन था। सन् 1935 में अंग्रेजों ने भारत से लंका और बर्मा को अलग दिया। कर यह विभाजन का पाँचवाँ अध्याय था। छठा अध्याय राजनीति का वह स्याह पन्ना था जब देश 14 अगस्त, 1947 को दो भागों में विभाजित हो गया। पाकिस्तान और भारत। दो देश नहीं, दो दिलों की तक़सीम कर दी गई। 3 दिसम्बर, 1971 को भारत-पाक जंग आरम्भ हुई और एक अलग स्वतंत्र देश बांगलादेश बना....।
यह आर्यावर्त की सातवीं तक़सीम थी...विभाजन के सात दरवाजे....हर दरवाजे के भीतर एक आर्यावर्त कराह रहा है। कराहने का स्वर तेज़ है...पर शायद अब शब्द ‘विभाजन’ से भीतर कोई चीत्कार जन्म नहीं लेता। देश स्वाधीनता की सत्तावनवीं वर्षगांठ मना रहा है, पर इच्छाओं पर जैसे बर्फ की सिलें रख दी गई हों।
वास्तव में-जैसे अब यह देश नहीं रह गया हो-टुंड्रा प्रदेश बन गया हो। मानव होने की इच्छा, आकांक्षाओं, भावनाओं पर जैसे हिम गिर पड़ी हो। सत्तावन वर्ष— सत्तावन वर्ष में हमने उपलब्धियों को ज़ीने कम चढ़े, अपनों का ख़ून ज़्यादा बहाया। यदि साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ है, तो यह कोई अचम्भे की बात नहीं, शताब्दियों से विरासत में मिली विभाजन-संस्कृति से यदि साम्प्रदायिकता का जन्म न होता तब यह अचम्भे की बात होती।
आज़ाद कश्मीर, उत्तराखंड और हवालाओं-घोटालाओं के लम्बे सिलसिले। इनमें कौन लिप्त नहीं है। कहना चाहिए, जहाँ और जिस सतह पर जिसको अवसर मिलता है—वह भीग जाता है इस मलिन बारिश में—लेखन और पत्रिकारिता तक—हम जैसे छोटे-बड़े अनगिनत हिम खण्डों में घिर गये हैं—सर्द हो गये हैं, बेहिस, अमानव और नपुंसक। इस देश का सबसे बड़ा नायक धर्म है, और धर्म के नाम पर सबकुछ चलता रहता है।
टुंड्रा प्रदेश-छोटे बड़े हिमखण्डों में घिरे हुए हम। कहीं, धुंध में किसी स्लेज या रेन्डियर को आँखें तकती हैं—जो धुंध बना सके रास्ता और बाहर निकाल सके इस टुंड्रा प्रदेश से।
‘इतिहास साक्षी है,
साक्षी है—तत्कालीन समय की,
पत्थरों पर लिखी गई अछूत कविताओं का एक दस्तावेज/
इनमें अमानवीय प्रसंग भी हैं/
कुछ निशानियाँ हैं—मलिन होती हुई.../
कुछ संदर्भ है—गहरे जख्मों के
और एक बर्फ की सिल्ली है.../जिसे उठाये घूम रहे हैं हम सब !’’
साक्षी है—तत्कालीन समय की,
पत्थरों पर लिखी गई अछूत कविताओं का एक दस्तावेज/
इनमें अमानवीय प्रसंग भी हैं/
कुछ निशानियाँ हैं—मलिन होती हुई.../
कुछ संदर्भ है—गहरे जख्मों के
और एक बर्फ की सिल्ली है.../जिसे उठाये घूम रहे हैं हम सब !’’
टॉमस पीटर ने कहा—स्वतन्त्रता संग्राम की लड़ाई में जितना हाथ देश पर निछावर करने वाले जाबाज़ सिपाहियों का रहा है, उतना ही ‘शब्दों’ का। यह सम्भव ही नहीं है कि स्वतंत्रता संग्राम की बातें हों और तत्कालीन समय की धधकती कविताओं/कहानियों/लेखों की याद न आये। ब्रिटिश सरकार को शब्द और शब्दों की ताक़त की पहचान थी। कितनी ही किताबें ज़ब्त कर ली गईं। कितने ही लहू-शब्दों पर पाबन्दी लगा दी गई। मगर शब्द चीत्कार करते रहे—
और लिखा जाता रहा स्वाधीनता का इतिहास, इंतेहाई ख़ामोशी से। प्रसिद्ध आलोचक, दार्शनिक एवं उपन्यासकार ज्यां पाल सार्त्र ने भी कहा था—
‘‘शब्दों का महत्व इस बात में है कि वह दूसरों तक कैसे पहुँचता है। शब्दों में ताकत है—शब्द क्रांतिकारी विचारों को जन्म देते हैं। इतिहास गवाह है कि विश्व में हुई अनेक क्रांतियों का कारण यही शब्द बने हैं।’’
शब्द फूल से मधुर, संगीतमय भी होते हैं और एक समय आता है, जब यही शब्द त्रिशूल, हथियार और संगीत से ज्यादा भयंकर हो उठते हैं और एक समय आता है, जब शब्द स्वयं क्रांति बन जाते हैं।
गुलामी का इतिहास कोई दो सौ वर्षों से भी अधिक का इतिहास रहा। अंग्रेज यद्यपि व्यापार करने भारत आये थे, परन्तु उनका इरादा था,—सोने की चिड़िया कहलाने वाले इस देश पर क़ब्जा जमाना। वे कमजोर पड़ती मुग़लिया सल्तनत का बारीकी से अध्ययन कर रहे थे। कारण स्पष्ट था, यहाँ के वासियों में वही विभाजन-संस्कृति के ‘जरासीम’ घुले थे। आपसी मन-मुटाव, रंजिशे, भेद-भाव—अंग्रेज इसी का लाभ उठा रहे थे ऐसा नहीं है कि भारतीय अंग्रेजों की नीयत से परिचित नहीं थे; परन्तु इसका उचित समाधान उनके पास नहीं था। बंगाल के तत्कालीन नवाब अलीवर्दी खां ने अपने उत्तराधिकारी सिराजुद्दौला से कहा था—
‘‘यह अंग्रेज बड़े चतुर हैं, इनसे होशियार रहना। एक दिन आयेगा जब वह यहाँ राज करेंगे।’’
यह भविष्यवाणी सच साबित हुई। 1757 में पलासी के मैदान में सिराजुद्दौला को हराकर अंग्रेजों ने बंगाल में अप
और लिखा जाता रहा स्वाधीनता का इतिहास, इंतेहाई ख़ामोशी से। प्रसिद्ध आलोचक, दार्शनिक एवं उपन्यासकार ज्यां पाल सार्त्र ने भी कहा था—
‘‘शब्दों का महत्व इस बात में है कि वह दूसरों तक कैसे पहुँचता है। शब्दों में ताकत है—शब्द क्रांतिकारी विचारों को जन्म देते हैं। इतिहास गवाह है कि विश्व में हुई अनेक क्रांतियों का कारण यही शब्द बने हैं।’’
शब्द फूल से मधुर, संगीतमय भी होते हैं और एक समय आता है, जब यही शब्द त्रिशूल, हथियार और संगीत से ज्यादा भयंकर हो उठते हैं और एक समय आता है, जब शब्द स्वयं क्रांति बन जाते हैं।
गुलामी का इतिहास कोई दो सौ वर्षों से भी अधिक का इतिहास रहा। अंग्रेज यद्यपि व्यापार करने भारत आये थे, परन्तु उनका इरादा था,—सोने की चिड़िया कहलाने वाले इस देश पर क़ब्जा जमाना। वे कमजोर पड़ती मुग़लिया सल्तनत का बारीकी से अध्ययन कर रहे थे। कारण स्पष्ट था, यहाँ के वासियों में वही विभाजन-संस्कृति के ‘जरासीम’ घुले थे। आपसी मन-मुटाव, रंजिशे, भेद-भाव—अंग्रेज इसी का लाभ उठा रहे थे ऐसा नहीं है कि भारतीय अंग्रेजों की नीयत से परिचित नहीं थे; परन्तु इसका उचित समाधान उनके पास नहीं था। बंगाल के तत्कालीन नवाब अलीवर्दी खां ने अपने उत्तराधिकारी सिराजुद्दौला से कहा था—
‘‘यह अंग्रेज बड़े चतुर हैं, इनसे होशियार रहना। एक दिन आयेगा जब वह यहाँ राज करेंगे।’’
यह भविष्यवाणी सच साबित हुई। 1757 में पलासी के मैदान में सिराजुद्दौला को हराकर अंग्रेजों ने बंगाल में अप
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