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मुक्तिस्वप्न

प्रयाग शुक्ल

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :360
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2149
आईएसबीएन :9788126019052

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प्रसिद्ध स्पानी कथाकार होसे रिसाल के उपन्यास एल.फिलीबुस्तेरिस्मो का हिन्दी अनुवाद...

Muktiswapan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मुक्तिस्वप्न प्रसिद्ध स्पानी कथाकार होसे रिसाल के उपन्यास एल.फिलीबुस्तेरिस्मो का हिन्दी अनुवाद है। इसमें स्पेन के विरुद्ध फिलीपीनी मुक्ति संघर्ष और मुक्तिस्वप्न की कथा कही गई है। व्यंग्य-विनोद और वाक्-चातुर्य से भरपूर इस उपन्यास के विविध प्रसंग गहरे में मार करने वाले हैं। फिलीपाइंस में तत्त्कालीन स्पानी शासन और गिरजाघरों की शोषण-वृत्ति की इसमें खुलकर आलोचना है, और वह आलोचना एकांगी नहीं है। औपनिवेशिक स्थितियाँ लोगों के मन में किस तरह की प्रवृत्तियाँ पैदा करती हैं, इसकी एक सूक्ष्म जांच भी इस उपन्यास में है। कुल मिलाकर यह जीवन और उसके नाना रूपों को एक ऐसे फलक पर रखता है, जहाँ हर व्यक्ति इसमें आज भी, अपनी कई देखी-जानी चीजों का प्रतिबिम्ब पा सकता है।

 

यह अनुवाद

 

 

 होसे रियास का कथा साहित्य समूचे स्पानी-संसार में समादृत है। और दो कड़ियों वाले उनके उपन्यासों नोलीमे तांजेरे और एल फ़िलिबुस्तेरिस्मो को क्लासिक का दर्जा प्राप्त हो चुका है। होसे रियास के दादा-परदादा स्पेन से आकर फ़िलीपींस में बस गये थे, जहाँ एक लंबे समय तक स्पेन का शासन रहा था। ठीक उसी प्रकार जैसे भारत में अँगेजों का शासन था, पर जन्माना फ़िलीपीनी होने के कारण  होसे रियास अपने सोच कर्म और लेखन में फ़िलीपींस को अपना देश मानते थे। और स्पेन के विरुद्ध फ़िलीपीनी मुक्तिसंघर्ष और ‘मुक्तिस्वप्न’ की ही कथा है उनके दोनों उपन्यास नोजीले तांजेरे और एल फ़िलिबुस्तेरिस्मो। दोनों जुड़वाँ हैं। पर बिलकुल स्वतंत्र भी, और एक की कथा जाने बिना भी दूसरे का आनंद उठाया जा सकता है। यह अनुवाद एल फ़िलिबुस्तेरिस्मो के अंग्रेजी अनुवाद The Reign of greed  के सतरहवे संस्कार (1950 ई.) से किया गया है।

 अनुवादक हैं, चार्ल्स ई, डर्बीशायर यह पहली बार 1912 ईं में प्रकाशित हुआ था। ऐसा लगता है कि अंग्रेजी अनुवाद के मूल के वाक्य-विन्यास और शब्द समूहों के क्रम का दूर तक पालन किया जाता है। होसे रिसाल की शैली में, कई प्रसंगों, दृश्यों-चित्रों टिप्टणियों-संवाद को एक साथ पिरो देने का कमाल हासिल किया जाता है। व्यंग्य-विनोद और विट (वाक् चातुर्य) का इस्तेमाल भी उनके यहाँ भरपूर है। और ये सभी चीज़ें परिष्कृत भी हैं, और गहरे में मार करने वाली है, स्पानी प्रशासन और चर्च की शोषण-वृति की खुली आलोचना है, पर यह आलोचना इकहरी या एंकाकी नहीं हैं, उसकी एक सूक्ष्म जाँच भी इस उपन्यास में है। कुल मिलाकर तो यह स्वयं जीवन को और उनके बहुविधि रूपों को, मानों एक ऐसे पलक पर रखती है, जहां हर व्यक्ति इनमें आज भी, अपनी कई देखी-जानी हुई चीज़ों का एक प्रतिबिम्ब पा सकता है।

इसकी मानवीय दृष्टि तपी हुई और संवेदित है। उपन्यास का अनुवाद मैंने ज़रूर अंग्रेजी से किया है, पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्पानी के प्राध्यापक श्री अपराजित चट्टोपाध्याय से मैं समय-समय पर कई सुझाव और जानकारियाँ प्राप्त करता हूँ और अनुवाद के सिलसिले में मिली उनकी हर प्रकार की सहायता के लिए मैं उनका सचमुच बहुत आभारी हूं उन्हीं के विभाग में स्पानी की छात्रा रह चुकी अपनी बेटी वर्षिता से भी मुझे कुछ सुझाव-संशोधन मिलते रहे हैं। श्री सुरेश धींगड़ा ने तो पूरी पांडुलिपि ही स्पानी मूल से मिलाकर देखी और जांची है, और इस सबमें काफ़ी समय लगाया है। अपने इन सभी प्रियजनों को धन्यवाद देना मैं अपना कर्तव्य समझाता हूँ।

 

1 नवम्बर, 2004

 

प्रयाग शुक्ल

 

अध्याय 1
ऊपरी डेक पर

 

 

दिसंबर की एक सुबह ताबो नाम का स्टीकर बहुत-सी सवारियों को लिए, पासिग की चक्कारदार धारा में उतरकर ला लागुना प्रांत की ओर बढ़ रहा था। उसकी चाल बता रही थी कि प्रयत्नपूर्वक ही अपनी कष्टसाध्य तय यात्रा तय कर रहा है। स्टीमर का डीलडौल भारी था-लगभग गोल, तबू के आकर जैसा ही, जिसके आधार पर उसका नामकरण हुआ था। हाँलाकि वह सफ़ेद रंग का था, पर अब उसने मैलापन आ चुका था। सुस्त चाल की वजह से वह और भारी-भरकम तथा गंभीर लग रहा था। कुल मिलाकर, उस क्षेत्र में उसके प्रति गहरा प्रेम और आर्कषण था, शायद अपने नाम के कारण, या फिर इस वजह से कि उसे देखकर देश की वास्तविक स्थिति का गहरा आभास होता था-वह मानों प्रगति के अवरोध का प्रतिनिधित्व करता था ! एक ऐसा स्टीमर, जो स्टीमर था ही नहीं, वह तो एक विशाल लोंदा था, सुस्ती से लुढ़कता हुआ, बेढंगा, फिर भी आलोचना से परे ! और जब उसे यह दिखाना होता था। कि वह बेहद प्रगतिशील है, तो बस अपने ऊपर नया रंग चढ़ा लेता था।

निश्चित ही, यह संतोष अपने में प्रमुदित स्टीमर हर तरह से फ़िलीपीनी था। कोई भला–भोला आदमी उसे शाही जहाज मानने की भूल कर सकता था क्योंकि उसका निर्माण कई ‘अतिविशिष्ट’ व्यक्तियों की देखरेख में हुआ था।
एक ऐसी सुबह की धूप में नहाया हुआ, जो नदी के पानी को चमचमा रही थी और हवाओं को नदी के झूमते बाँसों में सरसरा रही थी, वह अपनी सफ़ेद छाया के साथ धुँएँ के बादल उड़ाता हुआ चला जा रहा है। हाँ, वह शाही जहाज़, जिसके बारे में एक प्रचलित मज़ाक यह भी है, कि उसे धूम्रपान करने की बुरी आदत है। उसकी सीटी हर क्षण गूंजती है। भारी और रोबीली, मानों किसी क्रूर शासक की आवाज़ हो, जो अपना दबदबा चीख़-चिल्लाकर ही कायम रखता है। ऐसी चिल्लाहट जिससे कि इस सवार कोई भी व्यक्ति अपने ने ख़यालों को सुन न पाए ! जो भी उसकी राह में आता है, उसे वह रौंद देता है, कभी ऐसा मालूम पड़ता है कि वह सलामबाव (Salambaw) को पीस डालेगा, मछली पकड़ने वाले उपकरणों को अस्थिर कर देगा, जो हिलते-डुलते दैत्यों के-से अस्थि पंजर लगते हैं, जो बाढ़ से पहले आए कछुए को सलाम करने लगते है; कभी वह बाँस के झुरमुटों की ओर सीधा बढ़ता है, कभी जल-थल में बने हुए ढाँचों-कारिहन की ओर या स़ड़क किनारे के ढाबों की ओर, जो गुमामेला और अन्य फूलों के बीच, ऐसे तैराकों की तरह लगते हैं, जिनके पैर तो पानी में हों, पर जो यह तय कर पा रहे हों कि छलांग लगाएँ या नहीं, कभी-कभी दोनों ओर उगे पेड़ के तनों से बन गई जल-सड़क पर चलता हुआ काफ़ी सन्तुष्ट जान पड़ता है, सिवाय उस वक़्त के, जब अचानक कोई धक्का सवारियों को हिला देता और वे अपना संतुलन खो बैठती हैं। यह तब होता है, जब बालू का कोई ऐसा अवरोध सामने आ जाता है, जिनकी कल्पना पहले किसी ने भी नहीं की होती।

बहरबाल, अगर इस स्टीमर की तुलना शाही जहाज़ से अब तक पूरी न हुई हो, तो ज़रा सवारियों के बैठने के इंतजाम पर ग़ौर करें। निचले डेक में भूरे चेहरे और काले सिर नज़र आएँगे, इंडियन, चीनी, वर्णसंकर, तरह-तरह के समान और बक्सों के बीच ठुँसे हुए, जबकि उपरले डेक पर तिरपालों के नीचे, आरामदायक कुर्सियों में, यूरोपीय शैली के पहनावे में कुछ यात्री बैठे नज़र आएँगे-पादरी-पुजारी और सरकारी क्लर्क, सिगार फूँकते, बाहर के दृश्य देखता हुआ कप्तान और नाविकों के उन प्रयत्नों से बेख़बर, जो वे नदी के अवरोधों से पार पाने के लिए कर रहे होंगे।
कैप्टेन दयालु क़िस्म का व्यक्ति था, कुछ बुज़ुर्ग, एक अनुभवी नाविक, जो अपने युवा दिनों में गहरे समुद्रों में उतर चुका था, लेकिन जिसे अब इस उम्र में छोटे-छोटे ख़तरों के प्रति सावधानी और सतर्कता बरतनी पड़ रही थी। और अब इस उम्र में रोज़ एक क़िस्म के होते थे, वही बालू के अवरोध, उन्हीं मोड़-घुमावों में गोल-मटोल स्टीमर हुमलना, वैसी ही भीड़ में किसी मोटी स्त्री की हालत। इसलिए, हर क्षण, उस भले आदमी को रुकना पड़ता था। कभी अपने को पीछे मोड़ने के लिए, कभी आधी स्पीड़ से आगे जाने के लिए, बाँस के लम्बें डांड़ लिए, पाँचों नाविकों को कभी दाएँ, कभी बाए मुड़ने के लिए सुझाना पड़ता था- हर किसी पर जैसे एक नई ज़ोर आज़माईश करनी पड़ती थी। वह ऐसे गुरू की तरह था, जो दुर्गम आभियानों में लोगों का नेतृत्व करने के बाद. पकी उम्र में, एक मनमौजी, अवमौजी, अवज्ञाकारी और आलसी लड़के का शिक्षक बन गया हो।

दोन्या विक्तोरीना, जो यूरोपीय मंडली में बैठी हुई एकमात्र महिला थी, बता सकती थी कि ताबों आलसी, अवज्ञाकारी, मनमौजी है या मनमौजी है या नहीं-दोन्या विक्तोरीना, जो हमेशा की तरह घबराई हुई, नावों, कैना, नारियल के बेड़ो ओर चम्पू चलाते  इंडियन यहाँ तक कि धोबिनों और नहानेवालों को भी फटकार रही थी, जो अपनी बक-बक और मस्ती से उस मानों खिझाने पर उतारू थे। बेशक, अगर नदी में कोई इंडियन न होता, तो, यहाँ तक की दुनिया मेंइंडियन न होते, तो ताबों की गति में भला कौन रुकावट डाल सकता था, वह मज़े में चलता ! पर, क्या किया जाए ! डाँड चलानेवाले इंडियन थे, नाविक इंडियन थे, इंजीनियर इंडियन थे, नब्बें प्रतिशत यात्री भी इंडियन ही थे और अगर स्वयं उसके लाली-पाउडर को खरोंच दिया जाता तथा उनके बनावटी गाउन को उतार दिया जाता तो वह भी भी इंडियन के रूप में ही प्रकट होती। उस सुबह दोन्या क्योंकि मंडली के लोग उसकी ओर बहुत ध्यान दे रहे थे।

 इसका कारण ढूँढ़ लेना कठिन नहीं था; जरा देखिए तो वहाँ कौन-कौन थे, तीन पादरी थे, इस विश्वास से भरे हुए कि जिस दिन उन्होंने दायीं ओर एक क़दम भी बढ़ाया दुनिया पीछे लौट जाएगी; अदम्य दोन कुस्तोदियों था, शांति से सो रहा था, अपने कामकाज से सन्तुष्ट और था ख़ूब लिखनेवाला लेखक बेन-ज़ईब (इबन्एस का विपर्य) जो यह सोचता था कि अगर मनीला के लोग पाते हैं, बस इसलिए कि वह चिन्तक है; और फ़ादर इरेन जैसी तोप चीज़ थी, जो पादरियों के बीच अपनी आभा फैलाती थी, अच्छी तरह दाढ़ी बने लाल चेहरे के साथ, जिस पर एक सुंदर यहूदी नाक उभरी हुई थी, उसके शिल्क के चोगे की काट सुघड़ थी और उस पर छोटे बटन टँके हुए थे; सिमोउन जैसा एक धनवान जौहरी, जिसकी ख्याति इस रूप में थी कि वह महामहिम कैप्टैन-जनरल के सभी कामों में सलाहकार और प्रेरक था,.....ज़रा सोचिए देश की इतनी विभूतियाँ वहाँ उपस्थित थीं, आराम से बैठी हुई सहमतिपूर्ण बातचीत में मशगूल और इनमें से कोई उस लाल-से रंगे बालोंवाली दलबदलू फ़िलीपीनी महिला के प्रति ज़रा-सी भी सहानुभूति नहीं दिखा रही थी। क्या इतना काफ़ी नहीं कि एक स्त्री का धीरज समाप्त हो जाता- वह धीरज, जिसे किसी के भी साथ होने पर धैर्यवान दोन्या विक्तोरीना छोड़ती नहीं।

उस वक़्त उस भद्र की रीझ और बढ़ जाती थी, जब कप्तान नावियों से चिल्लाकर कहता था, ‘पोर्ट’ ‘स्टारबोर्ड’ और वे जल्दी से अपने हाँड़ मज़बूती से पकड़ लेते थे और उन्हें किनारों से उड़ा देते थे और इस तरह अपने पाँवों और बाँहों के बल पर, स्टीमर को उस मुक़ाम पर किनारों से भिड़ने से बचा लेते थे।




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