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शाहजादा दाराशिकोह - खण्ड 1

श्यामल गंगोपाध्याय

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 2024
पृष्ठ :547
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2155
आईएसबीएन :9788126007448

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"इतिहास के अंधकार में खोजते हुए, 'काला गुलाब' की कहानी एक ऐसे मुसाफिर की है जो मानवता की तलाश में निकला था - श्यामल गंगोपाध्याय की कलम से।"

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Shahajada darashikoh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शाहज़ादा दाराशिकोह हिन्दू-मुसलमानों के धार्मिक चिन्तन के मध्य मिलनबिन्दु ढूँढ़ते-ढूँढ़ते अपने दौर से बहुत ज्यादा आगे निकल गये थे। इसलिए वह हिन्दोस्तान के इतिहास में ‘काला गुलाब’ है। करुणा, सौन्दर्य और काल के इतिहास के साथ वह गुलाब उलझकर मुरझा गया। युग-युगान्तर बाद भी परिवर्तन के बावजूद हिन्दोस्तान उसे बार-बार ढूँढ़ निकालेगा। मैं तो इसी इतिहासपुरुष के रास्ते पर एक ख़ानाबदोश मुसाफ़िर हूँ। मैं उसकी गौरैया हूँ।
दाराशिकोह विश्वास करते थे कि सभी धर्म मूलतः एक हैं। उचित साधना-द्वारा प्रत्येक धर्म के माध्यम से मुक्ति मिल सकती है। मुक्ति के लिए सिर्फ़ चाहिए सत्यनिष्ठा, चित्त-शुद्धि और जनसेवा। दाराशिकोह आधुनिक हिन्दोस्तान के राजा राममोहन राय, रवीन्द्रनाथ, विवेकानन्द, महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू के पथ-प्रदर्शक थे।
औरंगजे़ब की धर्मान्धता के दबाव में आकर लोग दाराशिकोह को भूलने लग गये। जबकि कुरुक्षेत्र के बाद उन्हीं की वजह से हिन्दोस्तान में महायुद्ध, इतिहास का सबसे बड़ा गृह युद्ध, भाइयों में अन्तर्कलह हुआ और मारकाट हुई। हिन्दोस्तान के इतिहास में अनेक घटनाएँ घटीं, अनेक राज्यों का उत्थान-पतन हुआ। लेकिन बदनसीबी दारा इन सब घटनाओं से बहुत पीछे छूट गये थे। इतिहास बड़ी-बड़ी घटनाओं को लिखता है। संस्कृति-साधना के क्षेत्र में दाराशिकोह का खामोशी से किया असामान्य कार्य और उसके परिणामों के मामले में चिरमुखर इतिहास आज गूँगा बन गया है।
ओ महान दिग्दर्शक

ऐसा उपन्यास पहले कभी लिखा नहीं था। सोचा तो था, लेकिन साहस नहीं बटोर पाया। किनारे खड़े-खड़े डरता रहा। इतना विराट। इतना जटिल। मनुष्य का मन। इतिहास के हर मोड़ पर। देश का धर्म। देश के लोग।
गहरा और अथाह समुद्र-पानी-ही-पानी।
साप्ताहिक ‘वर्तमान’ के श्रीमान अशोक बसु ने तो मुझे लगभग धकेलकर लहरों में फेंक दिया था। उनका समर्थन कर रही थीं श्रीमती अनुभा कर।
डूब न जाऊँ इस डर से मैं तैरने लगा, जिससे कि किनारे पहुँच सकूँ। किनारे पहुँचा या नहीं, यह तो पाठकगण ही बताएँगे। मुझे इस गहरे पानी में गिराने के लिए आज मैं अशोक का ऋणी हूँ। ऋणी तो मैं अनुभा का भी हूँ।
बीच-बीच में तथ्य जुटाते हुए। हौसला बढ़ाकर सहायता की श्रीमती शहाना बन्द्योपाध्याय और श्रीमती छन्दवानी मुखोपाध्याय ने। श्रीमती नन्दिनी गंगोपाध्याय इतिहास के तथ्यपूर्ण रास्तों पर चलने में सहायता करती रहीं। श्रीमती हेमन्ती गंगोपाध्याय ने भी राह सुझाई। ख़ासतौर से लोर-चन्द्राणी आख्यान के प्रसंग में।

मैं सर्वश्री कालिकारंजन कानूनगो, अमियकुमार मजूमदार, क्षितिमोहन सेन, राजेश्वर मित्र, भाई गिरीशचन्द्र सेन, गौतम भद्र, शेखर चट्टोपाध्याय और यदुनाथ सरकार को पढ़-पढ़कर राह ढूढ़ता रहा। ख़ुद अबुलफ़ज़ल भी मेरे दिग्दर्शक रहे। टेवरनियर और बर्नियर भी मेरे पथ-प्रदर्शक थे। शुरू-शुरू मैं औरंगज़ेब को समझाने के लिए श्रीमती शान्ता बन्द्योपाध्याय ने स्वयं बहुत अध्ययन किया था। उन्होंने सारा सार-तत्त्व मेरे सामने लाकर रख दिया था। सदाशयी कथाकार किन्नर राय ने पूरी सामग्री पढ़ लेने के बाद ही इसे छपाने के लिए आगे बढ़ाया। शब्दों के सही प्रयोग और विषयान्तर, इन सब पर उनकी पैनी नज़र थी। उनके ऋण की बात मैं कैसे न स्वीकार करूँ ?

शाहज़ादा दाराशिकोह हिन्दू-मुसलमानों के धार्मिक चिन्तन के मध्य मिलनबिन्दु ढूँढ़ते-ढ़ूँढ़ते अपने दौर से बहुत ज़्यादा आगे निकल गये थे। इसीलिए वह हिन्दोस्तान के इतिहास में ‘काला गुलाब’ हैं। करुणा, सौन्दर्य और काल के इतिहास के साथ वह गुलाब उलझकर मुरझा गया। युग-युगान्तर बाद भी परिवर्तन हिन्दोस्तान उसे बार-बार ढूँढ़ निकालेगा। मैं तो उसी इतिहास पुरुष के रास्ते पर एक खानाबदोश  मुसाफ़िर भर हूँ। मैं उसकी गौरेया हूँ। वे आधुनिक हिन्दोस्तान के राजा राममोहन राय, रवीन्द्रनाथ, विवेकानन्द, महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू के पथ-प्रदर्शक थे।

हिन्दोस्तान के भावी बादशाह शाहजदाहा मोहम्मद दाराशिकोह एक पक्के मुसलमान थे। इस्लाम पर उनका अगाध विश्वास था, फिर भी उन्होंने बार-बार कहा था- ‘‘सत्य किसी एक धर्म की सम्पत्ति नहीं है। ईश्वर तक पहुँचने के बहुत से रास्ते हैं।’’ मानवधर्मी दाराशिकोह ने ही पहली बार सभी धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन किया और मनुष्य के धर्म को ढूँढ़ निकालने का प्रयास किया। विश्व-मनीषियों के सामने उपनिषदों का ज्ञान उन्हीं के प्रयासों का परिणाम था। प्रेमी द्वारा धर्मिक दारा का हाथ पकड़कर चलता रहा था। मानवीय प्रेम में ईश्वरानुभूति एकाकार हो गई, लेकिन इस चतुर जगत में कूटकौशल के अभाव में योद्धा दारा कुछ कर न पाया।

दाराशिकोह आलौकिक सत्ता के घोर विश्वासी थे। लेकिन कट्टरता और धर्मान्धता न होने के कारण लगभग सभी उमराव उनसे नाराज़ हो गए थे। जिन राजपूतों की कभी उन्होंने जान बख़्शी थीं, उन्हीं राजपूतों ने उन्हें प्रबल उत्साह के साथ औरंगजे़ब की गिरफ़्त तक पहुँचा दिया। धर्मान्ध और सक्षम विरोधियों ने, धर्मद्रोही होने का झूठा आरोप लगाकर उन्हें मौत के मुँह तक धकेल दिया।
हिन्दोस्तान के इतिहास में ऐसा विषादग्रस्त ‘काला गुलाब’ दूसरा नहीं है। इस ‘ब्लैक प्रिंस’ ने इनसान का.....पूरी इंसानियत का भला चाहा था। वे मानव-धर्म की तालाश में थे। इतिहास में उनके जैसा उपेक्षित इनसान और कहाँ होगा ?
इतिहास के साल-महीने-तारीख़, युद्ध और अभिषेक के आयोजनों के बीच महाकाल का अकूत अंधकार फैला हुआ है- वहाँ सिर कूट डालने पर भी यह जान पाना संभव नहीं कि शाहज़ादियाँ, अमीर-उमरावों से लेकर साधारण गानेवालियों, भिखारी, क़ैदी या कवि लोग क्या कुछ सोचते-विचारते थे। वे नियति को अपना गंतव्य मान बैठे थे ? मैंने उसी सोच को, चिन्तन को फिर से जगाने का प्रयास मात्र किया है।

 

-श्यामल गंगोपाध्याय

 

शाहज़ादा दाराशिकोह

 

 

1

 

 

अस्सलातु ख़ैरूंमिनन्नौम......
शब्द, सुर एक साथ भोर की हवा को चीरते हुए चारों तरफ़ बिखरते जा रहे थे। अब रात के अन्तिम प्रहर में पहले-जैसी ठण्डक नहीं थी। फागुन का महीना शुरू होनेवाला था। पास ही फ़ीलख़ाना था- वहाँ से मन्द मृदु परिचित आवाज़ कानों में आ रही थी। अज़ान के सुर के भीतर ही शेरगिर हाथियों में से कुछ ने दिन शुरू होने के पहले ही गरम नाद फेंकना शुरू कर दिया था। फिर....
अस्सलातु ख़ैरूंमि...

-सोते रहने से तो नमाज़ पढ़ना कहीं अच्छा है।
यही सोचते हुए धुँधले अँधेरे में एक इनसान बिस्तर पर उठकर बैठ गया। इस बीच मुअज्ज़िन की साफ़ आवाज़ भोर की चहचाहती चिड़ियों की आवाज़ के साथ घुल-मिल गई।
ला इलाह इलल्लाह
मुहम्मदुर्रसूलल्लाह
हैय्य अलस्सलाह
हैय्य अललफलाह
उठकर बैठे इनसान ने तहेदिल से महसूस किया-अल्लाह का कोई शरीक नहीं।
यही सोचते हुए उनके मन में एक भाव उठा-
मोहम्मद को अल्लाह ने ही भेजा है-

हैय्य अलस्सलाह
नमाज़ के लिए आओ
हैय्य अललफ़लाह
जल्दी-जल्दी आओ
अल्लाहु अकबर
-सबसे बढ़कर अल्लाह है-
फिर
अस्सलातु ख़ैरूंमिनन्नौम......
अब तक दुमंज़िले दुरासना मंज़िल नामक तम्बू के सामने का आसमान फीका पड़ गया था और नरंगी रंगसे रँगे आसमान के एक कोने से अण्डे की जर्दी-जैसा गोला उभर आया। उस तरफ़ अजमेर के पहाड़ की चोटियाँ धीरे-धीरे दिखाई पड़ने लगी थीं। यह इनसान लम्बा-चौड़ा था। उस तरफ़ देखकर उसने सिर नवाया। ऊपर मुइनुद्दीन चिश्ती की क़ब्र थी। उधर ही से एक झुण्ड हीरामन तोते उड़कर आये और नफ़रख़ाना, फ़र्राशख़ाना के ऊपर से चक्कर लगाकर आबदारख़ाने की तरफ़ चले गये। लालकण्ठी इन पक्षियों को वह इनसान भी पहचानता है।

दुरासना मंज़िल नामक तम्बू से दुमज़िले पर खड़ा इनसान अब साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा था। उनके जिस्म पर रेशमी जामदानी अचकन थी, कमर से कोतल तलवार लटक रही थी। उस इनसान ने ऊपर की ओर सिर उठाया। आकाश-प्रदीप उस वक़्त तक जल रहा था। बहुत ऊँचाई पर अभ्र का शमादान उस घड़ी भी जल रहा था। जबकि बस थोड़ी ही देर में दिनचर्या शुरू हो जायेगी।
अज़ान के स्वर के साथ वह बड़बड़ा उठा, ‘‘मैं सलीम जहाँगीर-मेरे अब्बाहुजूर शहंशाह हिन्दोस्तान के बादशाह जलालुद्दीन अकबर। वे संगीत की समझ रखते थे। सुर की समझ उन्हें थी। उनका जलालशाही स्वर इसी अज़ान की याद दिला देता है।’’
ठीक उसी वक़्त अज़मेर की पहाड़ियों के पीछे से एक लाल गेंद उछलकर ज्यों ही सामने आयी, त्यों ही दसों दिशाएँ रोशनी से जगमगा उठीं। असल में अजमेर से पुष्कर जानेवाले रास्ते में अनासागर के पानी पर सूरज की किरणें पड़ते ही चारों ओर प्रकाश फैल गया और एक ही झटके में दिन की शुरूआत हो गई। अँधेरी रात से साथ एकाकार हुआ पड़ा था जो अनासागर, उसकी लंबाई एक मंज़िल तक होगी। चौड़ाई भी कम-से-कम दो मंज़िल तक। गहराई की खबर किसी को नहीं। कभी-कभी मगर दिखाई पड़ते हैं। इसके किनारे खड़े हो जाओ तो अजमेर शहर दिखाई पड़ता है।

अब बादशाह जहाँगीर का सारा-का-सारा गुलालबार दे रहा था। तम्बू के बाद तम्बू। दस खूँटियों के सहारे खड़ा चौबीन तम्बू। शहंशाह बादशाह का अपना दुरासना मंज़िल ही दुमंज़िला है। नौ खूटियों पर टिके इस तम्बू के दुमंज़िले पर शहंशाह बादशाह नमाज़ अदा करते हैं। सूरज निकलने पर उधर सिर नवाकर ज़मीनबोस करते हैं। निचली मंज़िल में रहती है बेगमें। इसके अलावा भी बहुतेरे तम्बू दिखाई पड़ रहे थे। ख़्वाबगाह, सरेपर्दा, शामियाना। कोई फ़र्राशख़ाना तो कोई नफ़रखाना और जहाँ कश्मीरी शराब पी जाती थी, उसे कहते थे आबदारख़ाना।

सूरज की तरफ़ देखकर बादशाह जहाँगीर ने सिर झुकाकर ज़मीनबोस किया। उस वक़्त भी उनके कक्ष में अगनगार में गुग्गुल जल रहा था, हालाँकि बुझती हालत में। इसकी खुशबू के साथ गोकुला फूल की महक मिलकर एकाएक हो रही थी। पत्थर के एक थाल में रखे हरसिंगार, चमेली और केतकी के फूल मुरझा भले ही गये थे, लेकिन खुशबू की कोई कमी नहीं थी।
जहाँगीर को याद आया- हिन्दोस्तान भी एक अजीब ही देश है। यहां कितनी तरह के फूल खिलते हैं। अगर सभी फूलों के पेड़ों से एक-एक पत्ता चुनकर तौला जाये तो कुल छह मन वज़न होगा। ताज्जुब है।
अब बादशाह की छावनी पूरी तरह से दिखाई पड़ रही थी। लग रहा था कि एक चलता-फिरता जनपद जाग उठा है- और ऐसा लगेगा भी क्यों नहीं ?

इस वक़्त 1024 हिज्री, मुहर्रम का महीना है। बादशाह के तोपखाने के मीरआतश फ़िरंगी रेडरिगों के लिए 1615 ईसवी और फ़रवरी का महीना। शाही दरबार के पण्डित जगन्नाथ ‘भामिनी विलास’ समाप्त करना चाहते हैं, बैशाखी पूर्णिमा के पहले। उनके पास बीच का चैत महीना बच रहा है- इसका मतलब ये फागुन का महीना है। कल चाँदनी रात थी। चन्द्रकान्त पत्थर रखा हुआ था। उस पर पड़नेवाली ओस की बूँदें लाल पत्थर के कटोरे में इकट्ठा हो रही थीं। शाही शर्बत तैयार होगा।

अनासागर के किनारे-किनारे जहाँ तक नज़र जाती है, सिर्फ़ लोग-ही-लोग नज़र आ रहे थे। दो कतारों में लगे तंबुओं के बीच में एक गली-सी बन गई थी। इसी गली के एक सिरे पर चार घुड़सवारोंके सिर दिखाई पड़ रहे थे। साथ ही घोड़ों की टापें सुनाई पड़ रही थी-टग बग.....टग बग। इससे तो हाथियों की चाल अच्छी है। आवाज़ कम होती है, लेकिन दबदबा ज़्यादा रहता है। मंज़ोला हाथियों का झुण्ड अनासागर में नहाने चला है, उनके साथ उनके महावत हैं, उनके मालवाहक हैं। हाथियों के सामनेवाले पाँव ज़ंजीर से पिछले पाँव से बँधे हैं। आड़े-आड़े। सिर पर फनके झालर था। उधर ऊँटों की क़तार को संभालते-संभालते सारवानों के दल परेशान हुए जा रहे थे।


 

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