उपन्यास >> शाहजादा दाराशिकोह - खण्ड 2 शाहजादा दाराशिकोह - खण्ड 2श्यामल गंगोपाध्याय
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"सत्य और एकता की खोज में खोए मुग़ल शहज़ादे की अनसुनी दास्तां - श्यामल गंगोपाध्याय की 'ब्लैक रोज़'।"
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Shahajada darashikoh-2
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘आप जानते हैं कवि चन्द्रभान ! जब मैं सत्य को अपने सीने में महसूस करता हूँ तब समझ लेता हूँ कि हिन्दू और मुसलमान में कोई फर्क नहीं है। मैं जानता हूँ मेरी यह बात जामा मस्जिद के उलेमाओं के ह्रदय को चोट पहुँचाएगी, इसलिए यह बात हमारे बीच ही रहे, मैं यही चाहता हूँ।...
‘‘ईश्वर, इन्द्रिय, ज्योति, ग्रह, नक्षत्र के मामलों में हिन्दू मुसलमानों की सोच में विशेष कोई अन्तर नहीं है। कुरान में-नील नदी की दो शाखाएँ बताई गई हैं बाहर-उल-आवयाद और बाहर-उल-आसवाद। एक श्वेत नदी है और दूसरी नीली नदी। यह खार्तुम में आकर मिल गई है। इस मुहाने का नाम है मजमायाल-बाहरायेन। मुझे लगता है कवि की हिन्दू और मुसलमान का मुहाना है ये हिन्दोस्तान। मेरी नजरों में तो हिन्दोस्तान ही हिन्दू-मुसलमान का मजमायाल-बाहरायेन है।...
‘‘वेदों में कुरान की विशद व्याख्या है कवि। कुरान में जिस गुप्त ग्रंथ का उल्लेख है, वह ग्रन्थ है वेद। मेरा यह चिन्तन धर्मान्ध मुसलमान सहन न करेंगे। वे मुझे दोषी ठहराएँगे। लेकिन मुझे अगर पता चलता है कि एक काफिर के पाप के कीचड़ में डूबे रहने पर भी अगर उसकी आवाज में तौहीद है, एकेश्वरवाद का संगीत है तो मैं उसके पास जरूर जाऊँगा। उसका गाना सुनूँगा और इस बात के लिए कृतज्ञ होऊँगा। हिन्दू और मुसलमान दोनों के धर्म, अल्लाह के पास जाने का एक ही रास्ता बताते हैं। दोनों धर्म कहते हैं कि ईश्वर एक है। उससे बड़ा कोई नहीं।’’
‘‘ईश्वर, इन्द्रिय, ज्योति, ग्रह, नक्षत्र के मामलों में हिन्दू मुसलमानों की सोच में विशेष कोई अन्तर नहीं है। कुरान में-नील नदी की दो शाखाएँ बताई गई हैं बाहर-उल-आवयाद और बाहर-उल-आसवाद। एक श्वेत नदी है और दूसरी नीली नदी। यह खार्तुम में आकर मिल गई है। इस मुहाने का नाम है मजमायाल-बाहरायेन। मुझे लगता है कवि की हिन्दू और मुसलमान का मुहाना है ये हिन्दोस्तान। मेरी नजरों में तो हिन्दोस्तान ही हिन्दू-मुसलमान का मजमायाल-बाहरायेन है।...
‘‘वेदों में कुरान की विशद व्याख्या है कवि। कुरान में जिस गुप्त ग्रंथ का उल्लेख है, वह ग्रन्थ है वेद। मेरा यह चिन्तन धर्मान्ध मुसलमान सहन न करेंगे। वे मुझे दोषी ठहराएँगे। लेकिन मुझे अगर पता चलता है कि एक काफिर के पाप के कीचड़ में डूबे रहने पर भी अगर उसकी आवाज में तौहीद है, एकेश्वरवाद का संगीत है तो मैं उसके पास जरूर जाऊँगा। उसका गाना सुनूँगा और इस बात के लिए कृतज्ञ होऊँगा। हिन्दू और मुसलमान दोनों के धर्म, अल्लाह के पास जाने का एक ही रास्ता बताते हैं। दोनों धर्म कहते हैं कि ईश्वर एक है। उससे बड़ा कोई नहीं।’’
महाविश्व का महानिनाद
अकबर की मृत्यु के बाद उनके उदार आदर्श, उनके कार्यक्रम सब अतीत बन गए। मुसलमान राजशक्ति ने हिन्दोस्तान में मुसलमानों को विशेष अधिकार दिए थे। उसके साथ धर्म के तौर पर इस्लाम जुड़ जाने से, मुसलमानों की शक्ति का प्रतीक इस्लाम, अपने पाँव पर खड़ा हो गया। अकबर का उदार आदर्श, हिन्दू, मुसलमान, ईसाई....सभी धर्मों के ऊपर था। उसी आदर्श की रक्षा करने की बुद्धि जहाँगीर या शाहजहाँ जैसे साधाराण बुद्धिवाले इनसानों में नहीं थी।
उन्हीं के वंश में एक दिखाई दिए। उन्हीं के प्रपौत्र-शाहजहाँ के पुत्र शाहज़ादा दाराशिकोह।
उनका जीवन जितना रोमांटिक था, उतना ही त्रासदीपूर्ण। रसमय होते हुए भी दर्द से टपकता हुआ जीवन। इतिहास में ऐसे चरित्र दुर्लभ ही होते हैं। उनके पास रूप था। लेकिन उनकी भावुकता में शायद उन्हें जीवन की अन्तिम दशा तक खींचकर पहुँचा दिया था। दाराशिकोह युद्ध, प्रेम, षड्यन्त्र के बीच तैरते हुए मानव धर्म को ढूँढ़ते रहे।
उन्होंने समस्त मानव समाज को प्रेम के बन्धन में बाँधकर एक अनोखा समाज बनाने का सपना देखा था। लेकिन उनके पटवारियों वाली कूटबुद्धि न होने के कारण वे जागतिक मामले में परास्त हो गए। इसीलिए हमें आज उनसे सहानुभूति है।....हम उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
प्राचीन इतिहास में उन्हें धर्मद्रोही घोषित किया था। अनभिज्ञ जनसाधाराण के भीतर, पुरोहितों के भीतर प्रचलित धर्म के विश्वास पर तर्क, युक्ति या उदारता जैसी चीजों का कोई स्थान नहीं है। ये लोग दूसरों के धार्मिक विचारों से घृणा करना सिखाते हैं। महात्मा दाराशिकोह उसी संकीर्ण साम्प्रदायिक प्रचलित धार्मिक विचार पर विश्वास नहीं करते थे।
दाराशिकोह विश्वास करते थे कि सभी धर्म मूलत: एक हैं। उचित साधना-द्वारा प्रत्येक धर्म के माध्यम से मुक्ति मिल सकती है। मुक्ति के लिए सिर्फ़ चाहिए सत्यनिष्ठा, चित्त-शुद्धि और जन-सेवा।
औरंगजेब की धर्मान्धता के दबाव में आकर लोग दाराशिकोह को भूलने लग गए। जबकि कुरुक्षेत्र के बाद उन्हीं की वजह से हिन्दोस्तान में महायुद्ध, इतिहास का सबसे बड़ा ग्रह युद्ध, भाइयों में अन्तर्कलह हुआ और मारकाट हुई। हिन्दोस्तान के इतिहास में अनेक घटनाएँ घटीं, अनेक राज्यों का उत्थान-पतन हुआ। लेकिन बदनसीबी दारा इन सब घटनाओं से बहुत पीछे छूट गये थे। इतिहास बड़ी-बड़ी घटनाओं को लिखता है। संस्कृति-साधना के क्षेत्र में दाराशिकोह का खामोशी से किया असामान्य कार्य और उसके परिणामों के मामले में चिरमुखर इतिहास आज गूँगा बन गया है।
दैवी अतृप्ति से दुखी दारा को उस समय के इतिहासकारों ने भी नहीं समझा और उन्हें अस्थिर चित्त इनसान कहा। धर्म के मामले में दारा के उदार विचार हिन्दोस्तान के लिए नए नहीं। उनसे पहले भी बहुत से सूफ़ी सन्तों ने ऐसी ही बातें कहीं थी। लेकिन समसाययिक मुसलमानों का सारा आक्रोश जा पड़े बेचारे दाराशिकोह पर। अन्त में, उन्होंने एक निरीह, उदार इनसान का सिर क़लम करवाकर ही दम लिया।
असाधारण मन और विचारधारा के इस मुग़ल शाहज़ादे के प्रति मुग़लकालीन हिन्दोस्तान के इतिहासकारों ने सहानुभूति नहीं दिखाई और यही कारण है कि उनकी असली तस्वीर राजनीति के विपरीत स्रोत्र के भँवर में पड़कर विकृत हो गई। सत्य की तालाश में शाहज़ादा दारा जिस सहजता से मस्जिद में चले जाते थे उसी तरह से नि:संकोच मंदिर में भी जाते थे। ईश्वर में समा जाने के लिए प्रेमी साधक ने मंदिर-मस्जिद में कभी कोई भेदभाव नहीं किया। मैंने सिर्फ़ वही वास्तविक चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास मात्र किया है और जब विचित्र करने बैठा, तब उस समय के हिन्दोस्तान को देखा उस समय के लोग कई शताब्दियों से धूल-मिट्टी के नीचे दबे पड़े हैं। उसी धूल-मिट्टी को हटाने पर क्षोभ, दुख, ईर्ष्या, अभिमान, प्यार, घृणा....सब कुछ दिखाई पड़ने लगा। यथासम्भव मैंने उस समय की छवियाँ आँकने का प्रयास किया है।
उन्हीं के वंश में एक दिखाई दिए। उन्हीं के प्रपौत्र-शाहजहाँ के पुत्र शाहज़ादा दाराशिकोह।
उनका जीवन जितना रोमांटिक था, उतना ही त्रासदीपूर्ण। रसमय होते हुए भी दर्द से टपकता हुआ जीवन। इतिहास में ऐसे चरित्र दुर्लभ ही होते हैं। उनके पास रूप था। लेकिन उनकी भावुकता में शायद उन्हें जीवन की अन्तिम दशा तक खींचकर पहुँचा दिया था। दाराशिकोह युद्ध, प्रेम, षड्यन्त्र के बीच तैरते हुए मानव धर्म को ढूँढ़ते रहे।
उन्होंने समस्त मानव समाज को प्रेम के बन्धन में बाँधकर एक अनोखा समाज बनाने का सपना देखा था। लेकिन उनके पटवारियों वाली कूटबुद्धि न होने के कारण वे जागतिक मामले में परास्त हो गए। इसीलिए हमें आज उनसे सहानुभूति है।....हम उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
प्राचीन इतिहास में उन्हें धर्मद्रोही घोषित किया था। अनभिज्ञ जनसाधाराण के भीतर, पुरोहितों के भीतर प्रचलित धर्म के विश्वास पर तर्क, युक्ति या उदारता जैसी चीजों का कोई स्थान नहीं है। ये लोग दूसरों के धार्मिक विचारों से घृणा करना सिखाते हैं। महात्मा दाराशिकोह उसी संकीर्ण साम्प्रदायिक प्रचलित धार्मिक विचार पर विश्वास नहीं करते थे।
दाराशिकोह विश्वास करते थे कि सभी धर्म मूलत: एक हैं। उचित साधना-द्वारा प्रत्येक धर्म के माध्यम से मुक्ति मिल सकती है। मुक्ति के लिए सिर्फ़ चाहिए सत्यनिष्ठा, चित्त-शुद्धि और जन-सेवा।
औरंगजेब की धर्मान्धता के दबाव में आकर लोग दाराशिकोह को भूलने लग गए। जबकि कुरुक्षेत्र के बाद उन्हीं की वजह से हिन्दोस्तान में महायुद्ध, इतिहास का सबसे बड़ा ग्रह युद्ध, भाइयों में अन्तर्कलह हुआ और मारकाट हुई। हिन्दोस्तान के इतिहास में अनेक घटनाएँ घटीं, अनेक राज्यों का उत्थान-पतन हुआ। लेकिन बदनसीबी दारा इन सब घटनाओं से बहुत पीछे छूट गये थे। इतिहास बड़ी-बड़ी घटनाओं को लिखता है। संस्कृति-साधना के क्षेत्र में दाराशिकोह का खामोशी से किया असामान्य कार्य और उसके परिणामों के मामले में चिरमुखर इतिहास आज गूँगा बन गया है।
दैवी अतृप्ति से दुखी दारा को उस समय के इतिहासकारों ने भी नहीं समझा और उन्हें अस्थिर चित्त इनसान कहा। धर्म के मामले में दारा के उदार विचार हिन्दोस्तान के लिए नए नहीं। उनसे पहले भी बहुत से सूफ़ी सन्तों ने ऐसी ही बातें कहीं थी। लेकिन समसाययिक मुसलमानों का सारा आक्रोश जा पड़े बेचारे दाराशिकोह पर। अन्त में, उन्होंने एक निरीह, उदार इनसान का सिर क़लम करवाकर ही दम लिया।
असाधारण मन और विचारधारा के इस मुग़ल शाहज़ादे के प्रति मुग़लकालीन हिन्दोस्तान के इतिहासकारों ने सहानुभूति नहीं दिखाई और यही कारण है कि उनकी असली तस्वीर राजनीति के विपरीत स्रोत्र के भँवर में पड़कर विकृत हो गई। सत्य की तालाश में शाहज़ादा दारा जिस सहजता से मस्जिद में चले जाते थे उसी तरह से नि:संकोच मंदिर में भी जाते थे। ईश्वर में समा जाने के लिए प्रेमी साधक ने मंदिर-मस्जिद में कभी कोई भेदभाव नहीं किया। मैंने सिर्फ़ वही वास्तविक चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास मात्र किया है और जब विचित्र करने बैठा, तब उस समय के हिन्दोस्तान को देखा उस समय के लोग कई शताब्दियों से धूल-मिट्टी के नीचे दबे पड़े हैं। उसी धूल-मिट्टी को हटाने पर क्षोभ, दुख, ईर्ष्या, अभिमान, प्यार, घृणा....सब कुछ दिखाई पड़ने लगा। यथासम्भव मैंने उस समय की छवियाँ आँकने का प्रयास किया है।
-श्यामल गंगोपाध्याय
शाहज़ादा दाराशिकोह
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शाही ख़ानदान में थोड़ा-बहुत इलाज करके इंग्लिस्तान के हकीम गेब्रियाल ब्राउटन काफ़ी मशहूर हो गए हैं। जैसे उनके देश इंग्लिस्तान के जाँबाज़ फुर्तीले बादशाह चार्ल्स है, वैसे ही हिन्दोस्तान के बादशाह हैं शाहजहाँ। ज़िन्दगी से भरपूर। ब्राउटन की निगाहों में बादशाह और उनके शाहजादा शाहजादियाँ इकदम तरोताज़ा ज़िन्दगी से लबालब हैं। बादशाह बेगम मरहूम मुमताज महल की छोटी बहन महजबीन बेगम को मामूली-सी दवाएँ देकर जब से अच्छा किया है, तब से शाहज़ादी जहाँआरा उन्हें अचूक इलाज करने वाला वैद्य मानने लगी हैं। अब तो बात-बात पर शाहजादी उन्हें बुलवा भेजती हैं। कुछ दिन हुए शाहज़ादी की मर्जी से ब्राउटन साहब को राजधानी आगरे के ठीक बाहर वियाना के शाही यतीमखाने के बिना माँ-बाप के बच्चों के अनाथालय का चिकित्सक नियुक्त किया गया है। इसके लिए ब्राउटन साहब के लिए माहवार कुछ अशर्फियाँ बाँध दी गयी हैं। पर सबसे बड़ी जो बात थी, वह थी एक परदेशी को वैद्य होने का तकमा मिल जाना और हिन्दोस्तान के राजदरबार में इज़्ज़त मिलना। इससे न सिर्फ़ ब्राउटन को फ़ायदा हुआ- फ़ायदा इंग्लिस्तान को भी हुआ।
जमुना के किनारे की हवेली में बैठकर डॉक्टर ग्रेवियाल ब्राउटन ईस्ट इण्डिया कम्पनी बहादुर को लन्दन में चिट्टी लिख रहे थे। उनके हाथ में साइबेरिया से आई बड़ी चिड़िया का पर थी। यह चिड़िया जाड़े के दिनों में हिमालय के ऊपर उड़कर यहाँ आती है। उन्हीं के पर से बना यह बड़ा-सा क़लम है। ये चिड़ियाँ काफ़ी बड़ी होती हैं। इनके लाल-लाल होंठ होते हैं, स्लेटी रंग की गर्दन होती है। इन्हें बत्तख कहना ज़्यादा ठीक होगा। राजधानी के लालचौक में ये चिड़ियाँ दिखाई पड़ती हैं। कभी-कभी लोग दाना डालकर इन्हें पकड़ लेते हैं।
डॉक्टर ब्राउटन ने खड़े होकर अंगडाई ली। वह बाहर निकल आए। बाजीगर अली मर्दान ख़ाँ ने दीवान-ए-आम को रोशनी से सजाया था। अँधेरे में ये रोशनी बहुत अच्छी लग रही थी। बादशाह
शाहजहाँ के हुक्म से आज सारा हिन्दुस्तान बड़े धूमधाम से हज़रत मोहम्मद के जन्मदिन का त्यौहार मना रहा था। गुलाबजल, इत्र, मिठाई, हलुआ और मेवे इफरात में बाँटे, खाए जा रहे थे। इसे मीलाद शरीफ़ का त्यौहार कहा जाता है। डॉक्टर ब्राउटन की भी दावत थी, लेकिन वे नहीं जा सके थे। उन्हें कल ही इंग्लिस्तान के व्यापारियों के हाथ कम्पनी बहादुर को चिट्ठी भेजनी है। इसके अलावा उन्हें हलुवा हज़म नहीं होता है, खाते ही पेट गड़बड़ हो जाता है।
आज 12 वीं रवीउल अव्वल-अल हिज्री 1043 है।
इसका मतलब आज ‘इन दी ईयर ऑफ़ दी लॉर्ड सिक्सटीन थर्टीफ़ोर ट्वण्टीफ़र्स्ट अक्टूबर’। मन-ही-मन हिसाब लगाकर देखा डॉ. ब्राउटन ने। हज़रत मोहम्मद और ईसामसीह के बीच 591 सालों का अन्तर है।
वे फिर चिट्टी लिखने बैठे। अभ्र के पात जलाकर रोशनी की गई थी, जिससे काफी उजाला हो गया था।
इंग्लिस्तान राजदूत सर टामस रो लन्दन वापस चले गए थे, बारह साल पहले। वे ही मुझे आगरा ले आये थे। आज मैं यह भूल-सा गया हूँ कि मेरी वास्तविक भूमिका क्या है ? क्या मैं डॉक्टर हूँ ? या ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्वार्थ-रक्षा-हेतु नियुक्त किया गया कम्पनी बहादुर का एक कर्मचारी ? कम्पनी का स्वार्थ, इंगलैंड का स्वार्थ, राजा चार्ल्स का स्वार्थ-तीनों मिलकर मेरे लिए एकाकार हो गये हैं। जबकि मेरी भूमिका क्या है, यह लन्दन के दफ्तर में भी अभी स्पष्ट नहीं है। मेरी पद-यात्रा तक निश्चित नहीं है।
एशिया में नियम है कि किसी सम्माननीय इनसान के यहाँ खाली हाथ नहीं जाया जाता है। जिस दिन मैंने पहली बार मुग़ल बादशाह का चुन्नौटी अँगरखा छुआ था, उस वक़्त उनके सम्मान में मुझे आठ अशर्फियाँ गिनकर लेनी पड़ी थीं। इसके अलावा एक कटार की खाल और एक चमड़े का हत्थेदार छूरा देना पड़ा था एक उमराव को। ये उमराव ही शाही हकीम की तनख्वाह मुकर्रर करते हैं।
एशिया का नक़्शा देखो तो परा चलता है कि मुग़लशाही कितनी बड़ी है। इतने बड़े हिन्दोस्तान का ज़्यादातर हिस्सा बहुत उपजाऊँ है। इन सबमें सबसे ज्यादा उर्वर है, बांग्लादेश। शायद ऐसी उपजाऊँ जगह बहुत कम है दुनिया भर में, मिस्र से भी ज़्यादा। यहाँ ज़ितनी तरह की फसल होती हैं मिस्र तक में नहीं होती। जैसे रेशम है, नील है। हिन्दोस्तान के ज्यादातर सूबों में खेती-बाड़ी अच्छी होती है। कारीगर तरह-तरह के नमदे, ग़लीचे, क़ालीन, सोने-चाँदी के कामदार क़ीमती कपड़े बनाते हैं और दुनिया भर के बाज़ारों में भेजते हैं।
दुनिया भर का चाँदी, सोना घूमते-घूमते फिर हिन्दोस्तान वापस लौट आता है। उसके बाद जाने किस गुप्त गुफा में ग़ायब हो जाता है। इस देश की औरतों को सोने के ज़ेवरों का बेहद शौक़ है। अमेरिका से जो सोना बाहर आकर यूरोप भर में फैल जाता है, उसका एक मोटा हिस्सा तुर्की जाता है। ख़रीद-फ़रोख़्त के माध्यम ले सोना वहाँ जाता है। दूसरा हिस्सा जाता है रेशम के बदले में इस्फ़हान। हिन्दोस्तानी चीज़ों की ज़रूरत इन दोनों देशों को भी रहती है, इसलिए यहाँ से सोना बसरा और बंदर अब्बासी से होते हुए हिन्दोस्तान पहुँच जाता है। हमें याद रखना है कि उलन्दाज़, अंग्रेज़, पुर्तगाली जहाज़ जो भी हिन्दोस्तान में व्यापार करने जाते हैं, वे सोने के बदले में ही माल ख़रीदते हैं। उलन्दाज़ जापान में व्यापार करके जो सोना पाते हैं, उसे लाकर हिन्दोस्तान की झोली में डाल देते हैं। हिन्दोस्तान अपना सारा लेन-देन सोने के बदले में ही करता है।
जहाँ तक मुझे पता है हिन्दोस्तान को चाहिए, ताँबा लौंग, जायफल, दालचीनी और हाथी। ये सब चीज़ें उलन्दाज़ इन्हें जापान, सिंहल, यूरोप से लाकर देते हैं। सीसा यूरोप से आता है। सिर्फ़ उज़बेकिस्तान से साल में पच्चीस हजा़र घोड़े आते हैं। इस्फ़ाहन से अरबी और हब्शी घोड़े आते हैं। समरकन्द-बुख़ारा, बल्ख़ से आते हैं ताज़ा फल। सेव, नाशपाती, अंगूर जाड़े भर आगरे के बाज़ारों में बिकते हैं। बादाम, पिस्ता भी बाहर से आता है। मालद्वीप से आता है अम्बरी तम्बाकू। हब्शी भेजते हैं गेंड़े की सींगें, हाथी के दाँत और ग़ुलाम-बाँदी। पर हिन्दोस्तान इन सारी चीज़ों को सोना देकर नहीं ख़रीदता। सामानों का लेन-देन करता है। अदला-बदली भी कहा जा सकता है इसे। हिन्दोस्तान सिर्फ़ अपना सामान सोना लेकर बेचता है। मैं कम्पनी बहादुर का ध्यान इस ओर आकर्षित कर रहा हूँ।
इस बार चिट्ठी कुठ ज्यादा लंबी हो गई है। असल में कंपनी बहादुर को बता देना मेरा फ़र्ज बनता है कि किसी भी चीज का व्यापार इस मुल्क से क्यों न करो, सोने के बदले ही करना पड़ेगा। ऐसी हालत में मैं एक सलाह देना चाहता हूँ। मेरी सलाह कारगर हुई तो कम्पनी ही हिन्दोस्तान से सोना वापस पा सकती है।
जमुना के किनारे की हवेली में बैठकर डॉक्टर ग्रेवियाल ब्राउटन ईस्ट इण्डिया कम्पनी बहादुर को लन्दन में चिट्टी लिख रहे थे। उनके हाथ में साइबेरिया से आई बड़ी चिड़िया का पर थी। यह चिड़िया जाड़े के दिनों में हिमालय के ऊपर उड़कर यहाँ आती है। उन्हीं के पर से बना यह बड़ा-सा क़लम है। ये चिड़ियाँ काफ़ी बड़ी होती हैं। इनके लाल-लाल होंठ होते हैं, स्लेटी रंग की गर्दन होती है। इन्हें बत्तख कहना ज़्यादा ठीक होगा। राजधानी के लालचौक में ये चिड़ियाँ दिखाई पड़ती हैं। कभी-कभी लोग दाना डालकर इन्हें पकड़ लेते हैं।
डॉक्टर ब्राउटन ने खड़े होकर अंगडाई ली। वह बाहर निकल आए। बाजीगर अली मर्दान ख़ाँ ने दीवान-ए-आम को रोशनी से सजाया था। अँधेरे में ये रोशनी बहुत अच्छी लग रही थी। बादशाह
शाहजहाँ के हुक्म से आज सारा हिन्दुस्तान बड़े धूमधाम से हज़रत मोहम्मद के जन्मदिन का त्यौहार मना रहा था। गुलाबजल, इत्र, मिठाई, हलुआ और मेवे इफरात में बाँटे, खाए जा रहे थे। इसे मीलाद शरीफ़ का त्यौहार कहा जाता है। डॉक्टर ब्राउटन की भी दावत थी, लेकिन वे नहीं जा सके थे। उन्हें कल ही इंग्लिस्तान के व्यापारियों के हाथ कम्पनी बहादुर को चिट्ठी भेजनी है। इसके अलावा उन्हें हलुवा हज़म नहीं होता है, खाते ही पेट गड़बड़ हो जाता है।
आज 12 वीं रवीउल अव्वल-अल हिज्री 1043 है।
इसका मतलब आज ‘इन दी ईयर ऑफ़ दी लॉर्ड सिक्सटीन थर्टीफ़ोर ट्वण्टीफ़र्स्ट अक्टूबर’। मन-ही-मन हिसाब लगाकर देखा डॉ. ब्राउटन ने। हज़रत मोहम्मद और ईसामसीह के बीच 591 सालों का अन्तर है।
वे फिर चिट्टी लिखने बैठे। अभ्र के पात जलाकर रोशनी की गई थी, जिससे काफी उजाला हो गया था।
इंग्लिस्तान राजदूत सर टामस रो लन्दन वापस चले गए थे, बारह साल पहले। वे ही मुझे आगरा ले आये थे। आज मैं यह भूल-सा गया हूँ कि मेरी वास्तविक भूमिका क्या है ? क्या मैं डॉक्टर हूँ ? या ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्वार्थ-रक्षा-हेतु नियुक्त किया गया कम्पनी बहादुर का एक कर्मचारी ? कम्पनी का स्वार्थ, इंगलैंड का स्वार्थ, राजा चार्ल्स का स्वार्थ-तीनों मिलकर मेरे लिए एकाकार हो गये हैं। जबकि मेरी भूमिका क्या है, यह लन्दन के दफ्तर में भी अभी स्पष्ट नहीं है। मेरी पद-यात्रा तक निश्चित नहीं है।
एशिया में नियम है कि किसी सम्माननीय इनसान के यहाँ खाली हाथ नहीं जाया जाता है। जिस दिन मैंने पहली बार मुग़ल बादशाह का चुन्नौटी अँगरखा छुआ था, उस वक़्त उनके सम्मान में मुझे आठ अशर्फियाँ गिनकर लेनी पड़ी थीं। इसके अलावा एक कटार की खाल और एक चमड़े का हत्थेदार छूरा देना पड़ा था एक उमराव को। ये उमराव ही शाही हकीम की तनख्वाह मुकर्रर करते हैं।
एशिया का नक़्शा देखो तो परा चलता है कि मुग़लशाही कितनी बड़ी है। इतने बड़े हिन्दोस्तान का ज़्यादातर हिस्सा बहुत उपजाऊँ है। इन सबमें सबसे ज्यादा उर्वर है, बांग्लादेश। शायद ऐसी उपजाऊँ जगह बहुत कम है दुनिया भर में, मिस्र से भी ज़्यादा। यहाँ ज़ितनी तरह की फसल होती हैं मिस्र तक में नहीं होती। जैसे रेशम है, नील है। हिन्दोस्तान के ज्यादातर सूबों में खेती-बाड़ी अच्छी होती है। कारीगर तरह-तरह के नमदे, ग़लीचे, क़ालीन, सोने-चाँदी के कामदार क़ीमती कपड़े बनाते हैं और दुनिया भर के बाज़ारों में भेजते हैं।
दुनिया भर का चाँदी, सोना घूमते-घूमते फिर हिन्दोस्तान वापस लौट आता है। उसके बाद जाने किस गुप्त गुफा में ग़ायब हो जाता है। इस देश की औरतों को सोने के ज़ेवरों का बेहद शौक़ है। अमेरिका से जो सोना बाहर आकर यूरोप भर में फैल जाता है, उसका एक मोटा हिस्सा तुर्की जाता है। ख़रीद-फ़रोख़्त के माध्यम ले सोना वहाँ जाता है। दूसरा हिस्सा जाता है रेशम के बदले में इस्फ़हान। हिन्दोस्तानी चीज़ों की ज़रूरत इन दोनों देशों को भी रहती है, इसलिए यहाँ से सोना बसरा और बंदर अब्बासी से होते हुए हिन्दोस्तान पहुँच जाता है। हमें याद रखना है कि उलन्दाज़, अंग्रेज़, पुर्तगाली जहाज़ जो भी हिन्दोस्तान में व्यापार करने जाते हैं, वे सोने के बदले में ही माल ख़रीदते हैं। उलन्दाज़ जापान में व्यापार करके जो सोना पाते हैं, उसे लाकर हिन्दोस्तान की झोली में डाल देते हैं। हिन्दोस्तान अपना सारा लेन-देन सोने के बदले में ही करता है।
जहाँ तक मुझे पता है हिन्दोस्तान को चाहिए, ताँबा लौंग, जायफल, दालचीनी और हाथी। ये सब चीज़ें उलन्दाज़ इन्हें जापान, सिंहल, यूरोप से लाकर देते हैं। सीसा यूरोप से आता है। सिर्फ़ उज़बेकिस्तान से साल में पच्चीस हजा़र घोड़े आते हैं। इस्फ़ाहन से अरबी और हब्शी घोड़े आते हैं। समरकन्द-बुख़ारा, बल्ख़ से आते हैं ताज़ा फल। सेव, नाशपाती, अंगूर जाड़े भर आगरे के बाज़ारों में बिकते हैं। बादाम, पिस्ता भी बाहर से आता है। मालद्वीप से आता है अम्बरी तम्बाकू। हब्शी भेजते हैं गेंड़े की सींगें, हाथी के दाँत और ग़ुलाम-बाँदी। पर हिन्दोस्तान इन सारी चीज़ों को सोना देकर नहीं ख़रीदता। सामानों का लेन-देन करता है। अदला-बदली भी कहा जा सकता है इसे। हिन्दोस्तान सिर्फ़ अपना सामान सोना लेकर बेचता है। मैं कम्पनी बहादुर का ध्यान इस ओर आकर्षित कर रहा हूँ।
इस बार चिट्ठी कुठ ज्यादा लंबी हो गई है। असल में कंपनी बहादुर को बता देना मेरा फ़र्ज बनता है कि किसी भी चीज का व्यापार इस मुल्क से क्यों न करो, सोने के बदले ही करना पड़ेगा। ऐसी हालत में मैं एक सलाह देना चाहता हूँ। मेरी सलाह कारगर हुई तो कम्पनी ही हिन्दोस्तान से सोना वापस पा सकती है।
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