कहानी संग्रह >> दलित कहानी संचयन दलित कहानी संचयनरमणिका गुप्ता
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ये कहानियाँ दलित वर्ग के जीवन की यातना,पीड़ा,आक्रोश,प्रतिरोध और संघर्ष की संवेदना प्रकट करती है....
Dalit Kahani Sanchayan-1
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘जाति म पुच्छ...चरण पुच्छ’ वाली भारतीय विचारधारा के समानान्तर मनुवादी वर्ण व्यवस्था और सदियों से अस्पृश्यता का शिकार भारतीय दलित समाज-पिछली शताब्दी में मिली आजादी के बाद-एक नये सामाजिक अभियान में बड़ी मजबूती से खड़ा हुआ है। सदियों की प्रताड़ना, उपेक्षा, सवर्णों द्वारा शोषण और सामन्तवादी मानसिकता से जूझते इस अभिशप्त वर्ग ने अब आर-पार की लड़ाई शुरू कर दी है, ताकि अपने बलबूते पर-अपने मूल्यों पर, इसे सर्वथा नई पहचान मिले, सम्मान मिले।
संस्कृति और साहित्य में नया विमर्श और प्रस्थान-बिन्दु लेकर उपस्थित दलित रचनाकारों ने अपने अनुभव की जमीन पर ही अपनी रचनाओं को मुखर किया है-बिना किसी लाग-लपेट और सौन्दर्यवादियों के स्वीकृत मूल्यों और अवधारणाओं की परवाह किये।
दलित कहानी संचयन छह भारतीय भाषाओं में लिखित अड़तालीस कहानियों का प्रतिनिधि संकलन है। ये कहानियाँ दलित वर्ग के लेखकों द्वारा रचित ऐसी रचनाएँ हैं, जो दलित जीवन की यातना, पीड़ा, आक्रोश, प्रतिरोध और संघर्ष की संवेदना से पगी हैं। भीतर और बाहर दोनों तरफ़ जूझने वाली इन कहानियों का मुख्य आधार कला या शैली नहीं, वरन् भाषा और कथ्य हैं। अमानवीय जुल्म, अत्याचार और सहनशीलता को वाणी देने वाली ये कहानियाँ अपना एक अलग ही सौन्दर्य-शास्त्र गढ़ती दिखाई देती हैं। इन कहानियों में दलित जीवन के कई कोण हैं-जीवन से जूझने के, जिन्दा रहने के, पीड़ा सहने के और उससे उबरने के।
समय के लम्बे अन्तराल को छूती प्रस्तुत संकलन की कहानियों में दलित चेतना के उदय से लेकर संकल्प बनने तक का विकास उजागर होता है। ‘गुलाम हूँ मैं’ का अहसास डंक मारता दिखता है तो उस अहसास से मुक्ति की छटपटाहट भी कुलबुलाती नजर आती है और नजर आता है यह सपना, ‘‘जाति नहीं, मनुष्य हूँ मैं-समाज का साझेदार हूँ मैं-औरों की तरह मेरी भी जीने की शर्तें हैं।’’ यही मुक्ति-स्वप्न इन कहानियों को दिशा देता है। कहीं वह ‘अप्पदीपो भव’ बनकर रोशन हो जाता है और अँधेरे को काटने लगता है तो कहीं संगठित होकर योजना बनाता है और कहीं सीधे संघर्ष में उतरकर राह तैयार करता है।
संस्कृति और साहित्य में नया विमर्श और प्रस्थान-बिन्दु लेकर उपस्थित दलित रचनाकारों ने अपने अनुभव की जमीन पर ही अपनी रचनाओं को मुखर किया है-बिना किसी लाग-लपेट और सौन्दर्यवादियों के स्वीकृत मूल्यों और अवधारणाओं की परवाह किये।
दलित कहानी संचयन छह भारतीय भाषाओं में लिखित अड़तालीस कहानियों का प्रतिनिधि संकलन है। ये कहानियाँ दलित वर्ग के लेखकों द्वारा रचित ऐसी रचनाएँ हैं, जो दलित जीवन की यातना, पीड़ा, आक्रोश, प्रतिरोध और संघर्ष की संवेदना से पगी हैं। भीतर और बाहर दोनों तरफ़ जूझने वाली इन कहानियों का मुख्य आधार कला या शैली नहीं, वरन् भाषा और कथ्य हैं। अमानवीय जुल्म, अत्याचार और सहनशीलता को वाणी देने वाली ये कहानियाँ अपना एक अलग ही सौन्दर्य-शास्त्र गढ़ती दिखाई देती हैं। इन कहानियों में दलित जीवन के कई कोण हैं-जीवन से जूझने के, जिन्दा रहने के, पीड़ा सहने के और उससे उबरने के।
समय के लम्बे अन्तराल को छूती प्रस्तुत संकलन की कहानियों में दलित चेतना के उदय से लेकर संकल्प बनने तक का विकास उजागर होता है। ‘गुलाम हूँ मैं’ का अहसास डंक मारता दिखता है तो उस अहसास से मुक्ति की छटपटाहट भी कुलबुलाती नजर आती है और नजर आता है यह सपना, ‘‘जाति नहीं, मनुष्य हूँ मैं-समाज का साझेदार हूँ मैं-औरों की तरह मेरी भी जीने की शर्तें हैं।’’ यही मुक्ति-स्वप्न इन कहानियों को दिशा देता है। कहीं वह ‘अप्पदीपो भव’ बनकर रोशन हो जाता है और अँधेरे को काटने लगता है तो कहीं संगठित होकर योजना बनाता है और कहीं सीधे संघर्ष में उतरकर राह तैयार करता है।
पहली दलित कहानी का जन्म
ऐसे तो कहानी की उत्पत्ति तब हुई होगी, जब मनुष्य ने भाषा गढ़ ली होगी। एक तरफ़ वह आदि मनुष्य प्रकृति से जूझता रहा होगा, दूसरी तरफ़ उसी निर्भर या उसी के सहारे जीवित था। सम्भवतः प्रकृति के साथ उसका मित्र और शत्रु, संरक्षक और उपभोक्ता, प्रेम और घृणा का यह रिश्ता उसके मनुष्य बनने के साथ ही क़ायम हो गया था। प्रेम ने जहाँ उसे यह रिश्ता उसके मनुष्य बनने के साथ ही क़ायम हो गया था। प्रेम ने जहाँ उसे कल्पना दी और दी उम्मीदें, वहीं घृणा ने उसे सच्चाइयों का बोध कराया। प्रकृति की विध्वसंक शक्तियों के अहसास ने उसे उन पर विजय पाने की योजना के लिए प्रेरित किया और योजना के लिए उसने लिया कल्पना का सहारा। प्रकृति से जीवन पाकर वह जिन्दा था, यह भी यथार्थ था और प्रकृति ही उसका विनाश करती थी, यह सच भी वह जान गया था। जब इस यथार्थ के अनुसार उसने अपनी सन्तति या संगिनी को प्रकृति के सन्दर्भ में अथवा प्रकृति के प्रत्याशित-अप्रत्याशिक स्वभाव के कारण घटी घटनाओं और हादसों को अपनी आप-बीती बताना शुरू किया होगा, सम्भवतः तभी कहानी का जन्म हुआ होगा। कविता की तरह कहानी एकाएक नहीं फूटा करती। कहानी तो घटा करती है यानी घटती है, इसलिए कहानी तो विकसित हुई होगी, गढ़ी और तराशी भी गई होगी। आदिम मनुष्य की कहानी भी घटी थी जो एक सामूहिक कथा थी या कहें कि आदिम गाथा थी, जो शुरू में किसी एक भौगोलिक क्षेत्र में समानरूपता रही होगी। पर अन्न की खोज में निकला मनुष्य जब पत्थर युग से लौह युग पार करता हुआ सभ्यता के युग में पहुँचा, तो वह अपने लिए कई इतिहास मिथकों स्मृतियों विचारों धाराणाओं, आस्थाओं विश्वासों एवं शक्ति केन्द्रों का निर्माण कर चुका था, जिन पर शायद वह आस्था रखने लगा था। जब वह प्रकृति से जूझा होगा तो उसने तर्क किए होंगे, तरकीब लड़ाई या योजना बनाई होगी, पर जब वह प्रकृति पर मुग्ध होकर अभिभूत, विस्मित और चकित हुआ होगा तो चमत्कृत हो गया होगा, जिसने उसमें एक आस्था पैदा करने के साथ साथ डर भी पैदा किया होगा।
कालान्तर में, सभ्यता की यात्रा में मनुष्य खेमों में बँटने लगा। फिर खेमों में होड़ लगी, युद्ध जय पराजय हुई और विजेता खेमा खुद को दूसरे से श्रेष्ठ समझने लगा और वह श्रेणियों में बँट गया। समानता एवं सामूहिकता ख़त्म होने लगी। जिस युग में सामूहिकता ख़त्म होने पर वह किसी व्यक्ति का ग़ुलाम और दास बना होगा-उसी दिन ‘स्वामी’ का जन्म हुआ, शायद पहली दलित कहानी भी उसी दिन घटी होगी। चूँकि दासता ही दलित अवधारणा की जननी है। यह दासता उसकी पराजय के कारण हो या उसके रंग के कारण जन्म, जाति या क़बीलों के स्तर की भिन्नता के कारण, इसका सतत विकास होता चला गया। दासता की मानसिकता के विकास के साथ-साथ समानता और सामूहिकता समाप्त होती गईं। समूह पर भी व्यक्ति क़ाबिज़ होने लगा। वे सैनिक के रूप में राजा के, भक्त के रूप में भगवान के ,अनुयायी के रूप में धर्म के और शिष्य के रूप में गुरु के दास बन गए। श्रेष्ठ लोगों की जमातें बनने की प्रक्रिया में ही हीन-भावना का जन्म हुआ होगा, चूँकि, श्रेष्ठता की यह प्रक्रिया सब-अस्तित्व से नहीं, कमतर और कमज़ोर को नष्ट करके, निम्न वर्गों की कीमत पर उच्च वर्गों के निर्माण के सम्पन्न होती है न जाने कितनी कहानियाँ जन्मीं और मरी होंगी इस दौर में ! विरोध का स्वर ही दलित कहानी का स्वर और ताक़त होता है, किन्तु सभ्यता का मूल मन्त्र है-‘विरोध को खत्म करना’, इसलिए अन्याय ‘प्रायश्चित्त’ का पर्याय बना दिया गया और दुःख पिछले जन्म का कर्मफल’। यही धारणा दलित कहानी की पोषक बनी और उनकी निरन्तरता का कारण भी !
इस धारणा को माननेवाला श्रेष्ठ समूह जब सत्ता के शिखर पर था तो ‘राम’ नाम के एक राजा हुए थे। वे मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते थे। वे उस भेद-मूलक व्यवस्था के भयंकर पोषक थे। उनके गौरव को चार चाँद लगाने वाली अपनी सर्वण जाति के वर्चस्व के रक्षार्थ ही राम ने शम्बूक की हत्या की थी, ताकि शम्बूक सवर्ण समाज की तरह ज्ञान अर्जित न कर पाए, उनके समकक्ष न बन पाए, ताकि ब्राह्मणवादी सवर्ण-व्यवस्था का वर्चस्व शम्बूकों की जमात पर क़ायम रहे। दरअसल सवर्ण वाड्मय में शम्बूक वध की चर्चा राम के गुणगान का एक हिस्सा है, जो उनकी कर्त्तव्य-परायणता और राज धर्म निभाने की प्रशंसा में लिखी गई थी। यह कथा ब्राह्मण वर्ग के हितों के रक्षार्थ शम्बूक की हत्या को उचित ठहराती है यानी ब्राह्मण-सत्ता के दिनों को सुरक्षित रखने के लिए शम्बूक प्रजा के वध की एक वीरगाथा है यह। कैसा अद्भुत षड्यन्त्र था यह ! राजसत्ता और वर्चस्व क़ायम रखने की योजनाबद्ध साज़िश-जिसे लोग साज़िश नहीं वीरता कहें, कर्त्तव्य-परायणता कहें। सम्भवतः तभी पैदा हुई यह दलित कहानी। हाँ ! दलित कहानी, जो सदियों बाद मानववादी सोच से परिभाषित हुई-जिसका नायक है शम्बूक !
प्रथम कविता का जन्म अगर वाल्मीकि के मन में क्रौंच-वध से फूटी करुणा के कारण हुआ तो उसी युग में वाल्मीकि के नायक राम ने अपने जातीय दम्भ से शम्बूक की हत्या करके, भय और आतंक से दलित कहानी का सूत्रपात किया। इस प्रकार हुई थी विरोधी स्वर की हत्या, जिसे शम्बूक का विरोधी स्वर, आनेवाली सदियों को प्रेरित करता और परिवर्तन के संकल्प की याद दिलाता रहा है।
दलित कहानी में दो गुणों का होना अति आवश्यक है-एक भेदमूलक व्यवस्था का विरोध और दूसरा परिवर्तन का संकल्प। ये गुण शम्बूक-कथा में तीव्रता से मौजूद हैं, भले इन गुणों को आज परखा-पहचाना जा रहा है। इसी प्रकार हर युग में दलित कहानियाँ घटती रही हैं, भले वाड्मय उन व्याख्याओं या परखों को नकारता रहा हो, पर लोक साहित्य और किंवदन्तियों में सच कहा जाता रहा है। गौरवमयी भाषा, अलंकार और छन्दों से छद्म को छिपाने के लाख जतन किए जाने पर भी उन कथाओं की सत्यता छिपाई नहीं जा सकी। यह सही है कि बाबा साहब आम्बेडकर ने सही रूप में इन कथाओं को देखने-परखने की दृष्टि दी, अन्यथा, अपने ही ख़िलाफ़ लिखी इन कथाओं को इस व्यवस्था के रचयिता समाज के साथ-साथ वह समाज भी रस लेकर, सुनता-सुनाता था और राम जैसे नायकों के गुणों पर मुग्ध होकर झूमता था जो इसका खुद शिकार था।
महाभारत में दोणाचार्य ने गुरु के शीर्ष स्थान पर बैठकर एक अन्य महत्त्वपूर्ण दलित कथा को जन्म दिया था, एकलव्य का अँगूठा जबरन कटवाकर, ताकि क्षत्रिय-पुत्र अर्जुन से शूद्र-पुत्र एकलव्य आगे न बढ़ जाए। सवर्ण इतिहास ने इसे एकलव्य का त्याग बताकर सदियों तक गुरु के छद्म को गौरवान्वित किया। लेकिन डॉ. आम्बेडकर ने जो तर्क की कसौटी दलित साहित्यकार के हाथों में दी तो सारा का सारा गौरव ढह गया-छद्म बेनक़ाब हो गया और एक और बड़ी कहानी, दलित-कहानी वाड्मय के पृष्ठों पर उभर आई जो पूरे ढाँचे को चूर-चूर करने की कुव्वत रखती थी। पर इसे सुनने, पढ़ने और इसका सच समझने में युगों का अन्तराल बीच में खड़ा है। हालाँकि मध्यप्रदेश के जंगलों में आज भी यह कथा कही जाती है, जिसमें गुरु द्रोण के अन्याय का ज़िक्र आता है। एक कथा तो यह है कि अँगूठा कट जाने के बाद एकलव्य पाँव के अँगूठे से तीर चलाने लगा और अचानक गुरु द्रोण वहाँ पहुँचे तो उन्होंने एक कुत्ते का मुँह वाणों से भरा देखा। तत्काल वे जान गए कि यह एकलव्य ही हो सकता है। ये लोग गीत और लोक कथाएँ गुरु द्रोण पर व्यंग्य ही नहीं, बल्कि करारी चोट भी करते हैं। यह विडम्बना है कि जन-मानस ने तो द्रोण के छल-कपट को पहचाना, पर वाड्मय के रचयिता साहित्यकार, इस सच को नकारते रहे। बस यह दलित कथा जन-मानस को भीतर-ही-भीतर सालती रही और आज तो हर दलित के लिए यह एक प्रेरक कथा है।
रज़िया अपने हब्शी ग़ुलाम से प्रेम करती थी। वह अपने ही सरदारों द्वारा इसलिए मार दी गई कि वह रानी थी और उसकी प्रेमी एक हब्शी। काले आबनूसी रंग का जीव, मनुष्यता का दावा भला कैसे कर सकता था ? शहंशाह कुल में जन्मी रज़िया से प्रेम की कल्पना करना ही उसका अपराध था और गुलाम समेत रज़िया की हत्या कर दी गई, यह एक और दलित कहानी थी। रज़िया द्वारा किए गए परम्परा के खिलाफ इस विद्रोह के बार-बार न जाने कितनी घटनाओं को अंजाम दिया होगा ? पता नहीं सतयुग में कितनी और दलित कहानियाँ घटी होंगी और त्रेता में कितनी ! कलयुग में तो आज लाइन ही लग गई है इन कहानियों की।
हज़ारीबाग़ जिले में एक चमार लड़के महावीर रविदास ने कुर्मी जाति की एक लड़की से प्रेम-विवाह किया। महावीर को चार सौ घर कुर्मियों की पंचायत ने पत्थरों से कूँच-कूँचकर ज़िन्दा मार डाला और अपनी बेटी मालती को नंगा कर जलती लुकाठी से दाग़ दिया। कहाँ फ़र्क है रज़िया और मालती की कहानी में या उस आबनूसी रंग के हब्शी और महावीर में ?
हेन्देगढ़ा के जंगल में आज भी आवाज़ गूँजती है-‘महावीर’ ‘मालती’। बाँसुरी चुप पड़ी है, चूँकि महावीर के होंठ कूँच दिए गए हैं-पत्थरों से-अँगुलियाँ तोड़ दी गई हैं लाठियों से। जंगलों में ‘धोकर रविदास’ की आवाज़ गूँजती है, महावीर की बाँसुरी पर मनु कुंडली मारकर बैठ गया है-दलित को प्यार करने का अधिकार नहीं है, इसलिए उसे मारना ही होगा और मार दिया गया महावीर नंगी कर दी गई मालती। दलित से प्यार करने की सजा दे दी गई उसे और ‘धोकर रविदास’ हेन्देगढ़ा के जंगलों में हर पत्थर को देखकर उसे छीनने के लिए दौड़ता है कि कहीं उसके महावीर पर कोई पत्थर न मार दें ! पर पत्थर तो चल चुके-महावीर मारा जा चुका। सवर्ण संहिता के अनुसार दलितों का इलाज पत्थर ही करते रहे हैं। चेतना की सजा चेतना शून्य, पत्थर से बढ़कर और कौन दे सकता था भला संवेदनशील सुवर्ण संहिता की नज़र में ?
तमिलनाडु के एक स्कूल में पढ़ने गई एक छात्रा सवर्णों के लिए रखे गए घड़े से पानी पी लिया-बस उसकी आँखें निकाल ली गईं। कहाँ भिन्न है एकलव्य की कथा से यह ? अँगूठा नहीं काटा, आँखें निकाल लीं ! न आँख रहेंगी, न वह पढ़ेगी। शिक्षा से तो ज्ञान होता है न ! ज्ञान अहसास दिला सकता है ग़ुलामी का, जिससे मुक्ति का रास्ता सरल हो जा सकता है ! बस पढ़ने का रास्ता ही बन्द कर दिया ! आँखें ही निकाल लीं ! न रहेगा बाँश ना बजेगी बाँसुरी !
शंकराचार्य के आदेशानुसार मध्य युग में दलितों की परछाईं सवर्णों पर पड़ने के चलते कितने दलितों की ख़ाल खींचकर हत्या कर दी गई होगी। न जाने कितनी दलित कहानियाँ इन ज़ुल्मों की परछाइयों में छिपी हैं ? कौन जाने कब कोई सोधकर्ता उन्हें खोज निकालेगा !
एक और दलित कथा भी है इतिहास में, जब चाणक्य जैसे ब्राह्मण ने बदला लेने के लिए एक दलित लड़के चन्द्रगुप्त को राजा बना दिया था। चन्द्रगुप्त में योग्यता थी राजा बनने की, तभी तो बना है वह राजा, मात्र चाणक्य के प्रयास से नहीं। यह दलितों की योग्यता की कहानी थी, चाणक्य के मन में दलित प्रेम नहीं बल्कि राज्य के प्रति प्रतिशोध था, खासकर राजा नन्द के प्रति चूँकि वह भी एक शूद्र ही था। यह इस बात का द्योतक है कि दलित बड़े-से-बड़े काम को अंजाम देने में भी सक्षम थे, इसीलिए चाणक्य के द्वारा चुना गया दलित बालक चन्द्रगुप्त राजा बना।
मातंग एक बहुत बड़ा कवि हुआ था हर्षवर्धन के दरबार में। बहुत नाम था उसका। दलित और कवि ? यह भला कैसे सम्भव हो सकता है ब्राह्मण कोश में ? कौन बर्दाश्त करेगा उसे ? बस हर्षवर्धन के बाद मातंग का नाम मिटा देने के लिए उसकी सब कृतियाँ ही नष्ट कर दी गईं। केवल चीन से आए यात्री के यात्रा वर्णन में उसका उल्लेख मिलता है, कृतियों का अता पता नहीं है। इतिहास में दर्ज यह एक और दलित कहानी थी।
अद्भुत कहानी तो लिखी पन्ना धाय ने। राजा के बेटे को अपने बेटे की कीमत पर बचाया था तलवार की धार से, किन्तु उफ़ तक नहीं की उसने। राजा के बेटे को लेकर निकल पड़ी वह जंगलों की ओर, अपने समाज के पास। राजा को राजा का अधिकार दिलाने के लिए एक आदिवासी भील धाय पन्ना ने, मरने के लिए अभिशप्त उस बालक को तीर चलाना सिखाया। दलित थी न पन्ना धाय। ईमानदारी व़फादारी के सिवा छल तो कभी जाना ही नहीं था उसने। मरने के लिए अभिशप्त वह बालक उदयपुर का राजा बन गया। पर वाह रे राजा ! वाह रे साहित्य ! वाह रे न्याय ! पन्ना पन्ना धाय ही रही, दासी ही रही। उनकी नज़र में राजकुमर को नया जन्म देनेवाली पन्ना धाय बस एक वफा़दार दासी के रूप में दर्ज हुई इतिहास में वाड्मय में ! पन्ना धाय-जिससे तो राजमाता का रुतबा भी छोटा पड़ गया था। पर क्या करूँ ?
दलित कहानी है न यह ! इस व्यवस्था में दलित को दास ही रहने दिया जा सकता है। ज़्यादा-से-ज़्यादा वफा़दारी और ईमानदारी का खि़ताब दिया जा सकता है। राजमाता तो राजकुल की वंशज ही हो सकती है न ! पन्ना के बेटे की लाश पर लिखी थी उदयपुर के मृत राजा के भाई विक्रम सिंह ने यह दलित कथा, जिसे आज तक महान् भारतीय संस्कृति के गौरव की गाथा कहा जाता है। ये तो आज समझ में आया कि यह गौरव गाथा नहीं, अन्याय गाथा थी।
ऐसा बताते हैं कि 1857 में भारतीय स्वतन्त्रता युद्ध परवान नहीं चढ़ता, अगर एक मातादीन नाम का दलित मंगल पांडेय को यह सूचना नहीं देता कि कारतूसों पर गाय की चर्बी चढ़ी है। अछूत मातादीन को छूने से परहेज़ करने वाला मंगल पांडे, अंग्रेजों की ग़ुलामी के कारण, हर रोज़ गोली चलाने वक़्त अपनी तथा कथित प्राण पूज्य गाय माता की चर्बी से मुँह तो जूठा कर लेता था लेकिन हिन्दू धर्म के आदेशनुसार मातादीन को छूना पाप समझता था। इसी पाप की प्रतिमा समझे जाने वाले मातादीन को मंगल पांडे ने जब छू जाने पर दुतकारा तो उसने पांडे को गोली पर गाय की चर्बी चढ़ी होने से सूचना दी-यानी ज्ञान दिया और पांडे ने विद्रोह का बिगुल फूँक दिया। जगंलों, में भारत माँ का नारा गूँज उठा, ‘विद्रोह-विद्रोह-विद्रोह’-फैल गया वादियों, घाटियों पहाड़ियों से मैदानों तक पर मातादीन कहाँ खो गया ? इतिहास में उसकी चर्चा ही नहीं है, ख़ून तो अफरात बहा उस विद्रोह में, पर सम्भवतः इतिहासकारों और साहित्यकारों की क़लम की स्याही ही सूख गई थी मातादीन का सच लिखते वक़्त या फिर शायद सकुचा गई थी सवर्ण-क़लम !
हालाँकि 1857 का स्वतन्त्रता संग्राम (जो अंग्रेजों की दृष्टि से गदर था) निरक्षर और हथियार-विहीन मातादीन भंगी की प्ररेणा से शुरू किया था मंगल पांडे ने। सम्भवतः इतिहास में उसका इसलिए ज़िक्र नहीं है, क्योंकि वह दलित था। पर घटना तो घट ही गई थी। गदर युद्ध या स्वतन्त्रता युद्ध, जो भी हो, वह भारत में दलित का छेड़ा हुआ युद्ध था, अंग्रज़ों के ख़िलाफ़ ! प्रथम स्वतन्त्रता युद्ध ! भारत के एक दलित द्वारा प्रेरित युद्ध ! पर इतिहास से प्रेरणा स्रोत ही गायब ! कितनी दर्दनाक दलित कथा है यह ! भारतीय संस्कृति गौरवशाली संस्कृति का कितना कुरूप चेहरा है, यह अब पता चल रहा है।
1857 ई. में अंग्रेज़ों से युद्ध करते हुए झलकारी बाई मारी गई थी, लक्ष्मीबाई नहीं। झलकारी बाई की सूरत लक्ष्मीबाई से मिलती थी। वह रानी लक्ष्मी बाई की एक वफ़ादार सेविका थी, जिसने लक्ष्मी बाई को बचाने के लिए भगा दिया था और स्वयं अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते झांसी के युद्ध में मारी गई थी। पर इतिहास में नाम दर्ज है लक्ष्मीबाई का, झलकारी बाई का नामो निशान नहीं है। यह भी एक दलित कहानी का प्लाट है। कितनी दलित कथाएँ गिनाऊँ ? अनगिनत कहानियाँ हैं, जो दर्ज नहीं हैं, पर उनकी किंवदंतियाँ रह गईं, कथ्य रह गया, घटना के निशान रह गए।
कल की गौरव गाथाओं की परिभाषा बदली। आज के सच की गाथा बनी दलित कहानी। भले सवर्ण वाड्मय के कर्त्ता धर्त्ताओं ने साहित्य में उसका महत्व नहीं माना, वे इतिहास लायक़ भी नहीं समझी गईं, चूँकि उनकी दृष्टि में कथा का नायक दलित बन ही नहीं सकता था, पर वे सदैव अस्तित्व में रहीं।
चतरा की धरती जानती थी कि उसकी हर दलित बेटी का डोला पहली रात बाबू साहब के घर ही उतरेगा पति नहीं, राजा साहब के यहाँ उतरता रहा है इस महान भारत देश में। महान् भारतीय, संस्कृति की यह महान अन्तहीन पीड़ादायक बर्बरता है और दलित कथा पीड़ा और बर्बरता के इस दौर से गुज़रती रही है और आज भी गुज़र रही हैं। महाभारत की मत्स्यगंधाएँ शान्तनुओं द्वारा सैदव अपने महलों में ले जाई जाती रही हैं। क्षत्रिय राजा जो थे। झारखंड के चतरा की भुइयाँ जाति की नवव्याहता बहू हो या महाभारत की मतस्यगंधा, कहाँ फ़र्क है दोनों में ? सदियों बाद भी स्थिति वहीं की वहीं है।
व्यास की सन्तान है पूरा कौरव और पांडव कुल। लेकिन वाह रे सवर्ण मन ! जहाँ जो रास आया उसी को मान्यता दे दी। पुत्रवधुएँ क्षत्री-पिता दलित पर उनकी सन्तान क्षत्री ? दलित की सक्षमता को मान्यता न मिल जाए कहीं, तो पितृसत्ता की बजाय मातृसत्ता को मान लिया। विदुर की पत्नी तक तो व्यास से सन्तान प्राप्त करनी पड़ी। सच में देखा जाए तो धृतराष्ट्र और पांडव दलित पुत्र थे यदि यही संस्कृति भी चलती रहती तो सम्भवतः नक़्शा कुछ और ही होता। एक संकर संस्कृति पनपती, जिसमें श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ आर्य-अनार्य का भेद ख़त्म हो गया होता और महाभारत का अन्त वह न होता, जो हुआ। पर फिर सनातन वैदिक धर्म की, ब्राह्मण की रक्षा कैसे होती ? उसकी रक्षा के लिए कूटनीति लाज़िमी थी और कूटनीति कृष्ण के बिना सम्भव नहीं थी। कलह होनी थी, कलह बढ़ी-महाभारत तय था महाभारत हुआ। दलित कथाएँ घटनी ही थीं-वे घटीं।
कालान्तर में, सभ्यता की यात्रा में मनुष्य खेमों में बँटने लगा। फिर खेमों में होड़ लगी, युद्ध जय पराजय हुई और विजेता खेमा खुद को दूसरे से श्रेष्ठ समझने लगा और वह श्रेणियों में बँट गया। समानता एवं सामूहिकता ख़त्म होने लगी। जिस युग में सामूहिकता ख़त्म होने पर वह किसी व्यक्ति का ग़ुलाम और दास बना होगा-उसी दिन ‘स्वामी’ का जन्म हुआ, शायद पहली दलित कहानी भी उसी दिन घटी होगी। चूँकि दासता ही दलित अवधारणा की जननी है। यह दासता उसकी पराजय के कारण हो या उसके रंग के कारण जन्म, जाति या क़बीलों के स्तर की भिन्नता के कारण, इसका सतत विकास होता चला गया। दासता की मानसिकता के विकास के साथ-साथ समानता और सामूहिकता समाप्त होती गईं। समूह पर भी व्यक्ति क़ाबिज़ होने लगा। वे सैनिक के रूप में राजा के, भक्त के रूप में भगवान के ,अनुयायी के रूप में धर्म के और शिष्य के रूप में गुरु के दास बन गए। श्रेष्ठ लोगों की जमातें बनने की प्रक्रिया में ही हीन-भावना का जन्म हुआ होगा, चूँकि, श्रेष्ठता की यह प्रक्रिया सब-अस्तित्व से नहीं, कमतर और कमज़ोर को नष्ट करके, निम्न वर्गों की कीमत पर उच्च वर्गों के निर्माण के सम्पन्न होती है न जाने कितनी कहानियाँ जन्मीं और मरी होंगी इस दौर में ! विरोध का स्वर ही दलित कहानी का स्वर और ताक़त होता है, किन्तु सभ्यता का मूल मन्त्र है-‘विरोध को खत्म करना’, इसलिए अन्याय ‘प्रायश्चित्त’ का पर्याय बना दिया गया और दुःख पिछले जन्म का कर्मफल’। यही धारणा दलित कहानी की पोषक बनी और उनकी निरन्तरता का कारण भी !
इस धारणा को माननेवाला श्रेष्ठ समूह जब सत्ता के शिखर पर था तो ‘राम’ नाम के एक राजा हुए थे। वे मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते थे। वे उस भेद-मूलक व्यवस्था के भयंकर पोषक थे। उनके गौरव को चार चाँद लगाने वाली अपनी सर्वण जाति के वर्चस्व के रक्षार्थ ही राम ने शम्बूक की हत्या की थी, ताकि शम्बूक सवर्ण समाज की तरह ज्ञान अर्जित न कर पाए, उनके समकक्ष न बन पाए, ताकि ब्राह्मणवादी सवर्ण-व्यवस्था का वर्चस्व शम्बूकों की जमात पर क़ायम रहे। दरअसल सवर्ण वाड्मय में शम्बूक वध की चर्चा राम के गुणगान का एक हिस्सा है, जो उनकी कर्त्तव्य-परायणता और राज धर्म निभाने की प्रशंसा में लिखी गई थी। यह कथा ब्राह्मण वर्ग के हितों के रक्षार्थ शम्बूक की हत्या को उचित ठहराती है यानी ब्राह्मण-सत्ता के दिनों को सुरक्षित रखने के लिए शम्बूक प्रजा के वध की एक वीरगाथा है यह। कैसा अद्भुत षड्यन्त्र था यह ! राजसत्ता और वर्चस्व क़ायम रखने की योजनाबद्ध साज़िश-जिसे लोग साज़िश नहीं वीरता कहें, कर्त्तव्य-परायणता कहें। सम्भवतः तभी पैदा हुई यह दलित कहानी। हाँ ! दलित कहानी, जो सदियों बाद मानववादी सोच से परिभाषित हुई-जिसका नायक है शम्बूक !
प्रथम कविता का जन्म अगर वाल्मीकि के मन में क्रौंच-वध से फूटी करुणा के कारण हुआ तो उसी युग में वाल्मीकि के नायक राम ने अपने जातीय दम्भ से शम्बूक की हत्या करके, भय और आतंक से दलित कहानी का सूत्रपात किया। इस प्रकार हुई थी विरोधी स्वर की हत्या, जिसे शम्बूक का विरोधी स्वर, आनेवाली सदियों को प्रेरित करता और परिवर्तन के संकल्प की याद दिलाता रहा है।
दलित कहानी में दो गुणों का होना अति आवश्यक है-एक भेदमूलक व्यवस्था का विरोध और दूसरा परिवर्तन का संकल्प। ये गुण शम्बूक-कथा में तीव्रता से मौजूद हैं, भले इन गुणों को आज परखा-पहचाना जा रहा है। इसी प्रकार हर युग में दलित कहानियाँ घटती रही हैं, भले वाड्मय उन व्याख्याओं या परखों को नकारता रहा हो, पर लोक साहित्य और किंवदन्तियों में सच कहा जाता रहा है। गौरवमयी भाषा, अलंकार और छन्दों से छद्म को छिपाने के लाख जतन किए जाने पर भी उन कथाओं की सत्यता छिपाई नहीं जा सकी। यह सही है कि बाबा साहब आम्बेडकर ने सही रूप में इन कथाओं को देखने-परखने की दृष्टि दी, अन्यथा, अपने ही ख़िलाफ़ लिखी इन कथाओं को इस व्यवस्था के रचयिता समाज के साथ-साथ वह समाज भी रस लेकर, सुनता-सुनाता था और राम जैसे नायकों के गुणों पर मुग्ध होकर झूमता था जो इसका खुद शिकार था।
महाभारत में दोणाचार्य ने गुरु के शीर्ष स्थान पर बैठकर एक अन्य महत्त्वपूर्ण दलित कथा को जन्म दिया था, एकलव्य का अँगूठा जबरन कटवाकर, ताकि क्षत्रिय-पुत्र अर्जुन से शूद्र-पुत्र एकलव्य आगे न बढ़ जाए। सवर्ण इतिहास ने इसे एकलव्य का त्याग बताकर सदियों तक गुरु के छद्म को गौरवान्वित किया। लेकिन डॉ. आम्बेडकर ने जो तर्क की कसौटी दलित साहित्यकार के हाथों में दी तो सारा का सारा गौरव ढह गया-छद्म बेनक़ाब हो गया और एक और बड़ी कहानी, दलित-कहानी वाड्मय के पृष्ठों पर उभर आई जो पूरे ढाँचे को चूर-चूर करने की कुव्वत रखती थी। पर इसे सुनने, पढ़ने और इसका सच समझने में युगों का अन्तराल बीच में खड़ा है। हालाँकि मध्यप्रदेश के जंगलों में आज भी यह कथा कही जाती है, जिसमें गुरु द्रोण के अन्याय का ज़िक्र आता है। एक कथा तो यह है कि अँगूठा कट जाने के बाद एकलव्य पाँव के अँगूठे से तीर चलाने लगा और अचानक गुरु द्रोण वहाँ पहुँचे तो उन्होंने एक कुत्ते का मुँह वाणों से भरा देखा। तत्काल वे जान गए कि यह एकलव्य ही हो सकता है। ये लोग गीत और लोक कथाएँ गुरु द्रोण पर व्यंग्य ही नहीं, बल्कि करारी चोट भी करते हैं। यह विडम्बना है कि जन-मानस ने तो द्रोण के छल-कपट को पहचाना, पर वाड्मय के रचयिता साहित्यकार, इस सच को नकारते रहे। बस यह दलित कथा जन-मानस को भीतर-ही-भीतर सालती रही और आज तो हर दलित के लिए यह एक प्रेरक कथा है।
रज़िया अपने हब्शी ग़ुलाम से प्रेम करती थी। वह अपने ही सरदारों द्वारा इसलिए मार दी गई कि वह रानी थी और उसकी प्रेमी एक हब्शी। काले आबनूसी रंग का जीव, मनुष्यता का दावा भला कैसे कर सकता था ? शहंशाह कुल में जन्मी रज़िया से प्रेम की कल्पना करना ही उसका अपराध था और गुलाम समेत रज़िया की हत्या कर दी गई, यह एक और दलित कहानी थी। रज़िया द्वारा किए गए परम्परा के खिलाफ इस विद्रोह के बार-बार न जाने कितनी घटनाओं को अंजाम दिया होगा ? पता नहीं सतयुग में कितनी और दलित कहानियाँ घटी होंगी और त्रेता में कितनी ! कलयुग में तो आज लाइन ही लग गई है इन कहानियों की।
हज़ारीबाग़ जिले में एक चमार लड़के महावीर रविदास ने कुर्मी जाति की एक लड़की से प्रेम-विवाह किया। महावीर को चार सौ घर कुर्मियों की पंचायत ने पत्थरों से कूँच-कूँचकर ज़िन्दा मार डाला और अपनी बेटी मालती को नंगा कर जलती लुकाठी से दाग़ दिया। कहाँ फ़र्क है रज़िया और मालती की कहानी में या उस आबनूसी रंग के हब्शी और महावीर में ?
हेन्देगढ़ा के जंगल में आज भी आवाज़ गूँजती है-‘महावीर’ ‘मालती’। बाँसुरी चुप पड़ी है, चूँकि महावीर के होंठ कूँच दिए गए हैं-पत्थरों से-अँगुलियाँ तोड़ दी गई हैं लाठियों से। जंगलों में ‘धोकर रविदास’ की आवाज़ गूँजती है, महावीर की बाँसुरी पर मनु कुंडली मारकर बैठ गया है-दलित को प्यार करने का अधिकार नहीं है, इसलिए उसे मारना ही होगा और मार दिया गया महावीर नंगी कर दी गई मालती। दलित से प्यार करने की सजा दे दी गई उसे और ‘धोकर रविदास’ हेन्देगढ़ा के जंगलों में हर पत्थर को देखकर उसे छीनने के लिए दौड़ता है कि कहीं उसके महावीर पर कोई पत्थर न मार दें ! पर पत्थर तो चल चुके-महावीर मारा जा चुका। सवर्ण संहिता के अनुसार दलितों का इलाज पत्थर ही करते रहे हैं। चेतना की सजा चेतना शून्य, पत्थर से बढ़कर और कौन दे सकता था भला संवेदनशील सुवर्ण संहिता की नज़र में ?
तमिलनाडु के एक स्कूल में पढ़ने गई एक छात्रा सवर्णों के लिए रखे गए घड़े से पानी पी लिया-बस उसकी आँखें निकाल ली गईं। कहाँ भिन्न है एकलव्य की कथा से यह ? अँगूठा नहीं काटा, आँखें निकाल लीं ! न आँख रहेंगी, न वह पढ़ेगी। शिक्षा से तो ज्ञान होता है न ! ज्ञान अहसास दिला सकता है ग़ुलामी का, जिससे मुक्ति का रास्ता सरल हो जा सकता है ! बस पढ़ने का रास्ता ही बन्द कर दिया ! आँखें ही निकाल लीं ! न रहेगा बाँश ना बजेगी बाँसुरी !
शंकराचार्य के आदेशानुसार मध्य युग में दलितों की परछाईं सवर्णों पर पड़ने के चलते कितने दलितों की ख़ाल खींचकर हत्या कर दी गई होगी। न जाने कितनी दलित कहानियाँ इन ज़ुल्मों की परछाइयों में छिपी हैं ? कौन जाने कब कोई सोधकर्ता उन्हें खोज निकालेगा !
एक और दलित कथा भी है इतिहास में, जब चाणक्य जैसे ब्राह्मण ने बदला लेने के लिए एक दलित लड़के चन्द्रगुप्त को राजा बना दिया था। चन्द्रगुप्त में योग्यता थी राजा बनने की, तभी तो बना है वह राजा, मात्र चाणक्य के प्रयास से नहीं। यह दलितों की योग्यता की कहानी थी, चाणक्य के मन में दलित प्रेम नहीं बल्कि राज्य के प्रति प्रतिशोध था, खासकर राजा नन्द के प्रति चूँकि वह भी एक शूद्र ही था। यह इस बात का द्योतक है कि दलित बड़े-से-बड़े काम को अंजाम देने में भी सक्षम थे, इसीलिए चाणक्य के द्वारा चुना गया दलित बालक चन्द्रगुप्त राजा बना।
मातंग एक बहुत बड़ा कवि हुआ था हर्षवर्धन के दरबार में। बहुत नाम था उसका। दलित और कवि ? यह भला कैसे सम्भव हो सकता है ब्राह्मण कोश में ? कौन बर्दाश्त करेगा उसे ? बस हर्षवर्धन के बाद मातंग का नाम मिटा देने के लिए उसकी सब कृतियाँ ही नष्ट कर दी गईं। केवल चीन से आए यात्री के यात्रा वर्णन में उसका उल्लेख मिलता है, कृतियों का अता पता नहीं है। इतिहास में दर्ज यह एक और दलित कहानी थी।
अद्भुत कहानी तो लिखी पन्ना धाय ने। राजा के बेटे को अपने बेटे की कीमत पर बचाया था तलवार की धार से, किन्तु उफ़ तक नहीं की उसने। राजा के बेटे को लेकर निकल पड़ी वह जंगलों की ओर, अपने समाज के पास। राजा को राजा का अधिकार दिलाने के लिए एक आदिवासी भील धाय पन्ना ने, मरने के लिए अभिशप्त उस बालक को तीर चलाना सिखाया। दलित थी न पन्ना धाय। ईमानदारी व़फादारी के सिवा छल तो कभी जाना ही नहीं था उसने। मरने के लिए अभिशप्त वह बालक उदयपुर का राजा बन गया। पर वाह रे राजा ! वाह रे साहित्य ! वाह रे न्याय ! पन्ना पन्ना धाय ही रही, दासी ही रही। उनकी नज़र में राजकुमर को नया जन्म देनेवाली पन्ना धाय बस एक वफा़दार दासी के रूप में दर्ज हुई इतिहास में वाड्मय में ! पन्ना धाय-जिससे तो राजमाता का रुतबा भी छोटा पड़ गया था। पर क्या करूँ ?
दलित कहानी है न यह ! इस व्यवस्था में दलित को दास ही रहने दिया जा सकता है। ज़्यादा-से-ज़्यादा वफा़दारी और ईमानदारी का खि़ताब दिया जा सकता है। राजमाता तो राजकुल की वंशज ही हो सकती है न ! पन्ना के बेटे की लाश पर लिखी थी उदयपुर के मृत राजा के भाई विक्रम सिंह ने यह दलित कथा, जिसे आज तक महान् भारतीय संस्कृति के गौरव की गाथा कहा जाता है। ये तो आज समझ में आया कि यह गौरव गाथा नहीं, अन्याय गाथा थी।
ऐसा बताते हैं कि 1857 में भारतीय स्वतन्त्रता युद्ध परवान नहीं चढ़ता, अगर एक मातादीन नाम का दलित मंगल पांडेय को यह सूचना नहीं देता कि कारतूसों पर गाय की चर्बी चढ़ी है। अछूत मातादीन को छूने से परहेज़ करने वाला मंगल पांडे, अंग्रेजों की ग़ुलामी के कारण, हर रोज़ गोली चलाने वक़्त अपनी तथा कथित प्राण पूज्य गाय माता की चर्बी से मुँह तो जूठा कर लेता था लेकिन हिन्दू धर्म के आदेशनुसार मातादीन को छूना पाप समझता था। इसी पाप की प्रतिमा समझे जाने वाले मातादीन को मंगल पांडे ने जब छू जाने पर दुतकारा तो उसने पांडे को गोली पर गाय की चर्बी चढ़ी होने से सूचना दी-यानी ज्ञान दिया और पांडे ने विद्रोह का बिगुल फूँक दिया। जगंलों, में भारत माँ का नारा गूँज उठा, ‘विद्रोह-विद्रोह-विद्रोह’-फैल गया वादियों, घाटियों पहाड़ियों से मैदानों तक पर मातादीन कहाँ खो गया ? इतिहास में उसकी चर्चा ही नहीं है, ख़ून तो अफरात बहा उस विद्रोह में, पर सम्भवतः इतिहासकारों और साहित्यकारों की क़लम की स्याही ही सूख गई थी मातादीन का सच लिखते वक़्त या फिर शायद सकुचा गई थी सवर्ण-क़लम !
हालाँकि 1857 का स्वतन्त्रता संग्राम (जो अंग्रेजों की दृष्टि से गदर था) निरक्षर और हथियार-विहीन मातादीन भंगी की प्ररेणा से शुरू किया था मंगल पांडे ने। सम्भवतः इतिहास में उसका इसलिए ज़िक्र नहीं है, क्योंकि वह दलित था। पर घटना तो घट ही गई थी। गदर युद्ध या स्वतन्त्रता युद्ध, जो भी हो, वह भारत में दलित का छेड़ा हुआ युद्ध था, अंग्रज़ों के ख़िलाफ़ ! प्रथम स्वतन्त्रता युद्ध ! भारत के एक दलित द्वारा प्रेरित युद्ध ! पर इतिहास से प्रेरणा स्रोत ही गायब ! कितनी दर्दनाक दलित कथा है यह ! भारतीय संस्कृति गौरवशाली संस्कृति का कितना कुरूप चेहरा है, यह अब पता चल रहा है।
1857 ई. में अंग्रेज़ों से युद्ध करते हुए झलकारी बाई मारी गई थी, लक्ष्मीबाई नहीं। झलकारी बाई की सूरत लक्ष्मीबाई से मिलती थी। वह रानी लक्ष्मी बाई की एक वफ़ादार सेविका थी, जिसने लक्ष्मी बाई को बचाने के लिए भगा दिया था और स्वयं अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते झांसी के युद्ध में मारी गई थी। पर इतिहास में नाम दर्ज है लक्ष्मीबाई का, झलकारी बाई का नामो निशान नहीं है। यह भी एक दलित कहानी का प्लाट है। कितनी दलित कथाएँ गिनाऊँ ? अनगिनत कहानियाँ हैं, जो दर्ज नहीं हैं, पर उनकी किंवदंतियाँ रह गईं, कथ्य रह गया, घटना के निशान रह गए।
कल की गौरव गाथाओं की परिभाषा बदली। आज के सच की गाथा बनी दलित कहानी। भले सवर्ण वाड्मय के कर्त्ता धर्त्ताओं ने साहित्य में उसका महत्व नहीं माना, वे इतिहास लायक़ भी नहीं समझी गईं, चूँकि उनकी दृष्टि में कथा का नायक दलित बन ही नहीं सकता था, पर वे सदैव अस्तित्व में रहीं।
चतरा की धरती जानती थी कि उसकी हर दलित बेटी का डोला पहली रात बाबू साहब के घर ही उतरेगा पति नहीं, राजा साहब के यहाँ उतरता रहा है इस महान भारत देश में। महान् भारतीय, संस्कृति की यह महान अन्तहीन पीड़ादायक बर्बरता है और दलित कथा पीड़ा और बर्बरता के इस दौर से गुज़रती रही है और आज भी गुज़र रही हैं। महाभारत की मत्स्यगंधाएँ शान्तनुओं द्वारा सैदव अपने महलों में ले जाई जाती रही हैं। क्षत्रिय राजा जो थे। झारखंड के चतरा की भुइयाँ जाति की नवव्याहता बहू हो या महाभारत की मतस्यगंधा, कहाँ फ़र्क है दोनों में ? सदियों बाद भी स्थिति वहीं की वहीं है।
व्यास की सन्तान है पूरा कौरव और पांडव कुल। लेकिन वाह रे सवर्ण मन ! जहाँ जो रास आया उसी को मान्यता दे दी। पुत्रवधुएँ क्षत्री-पिता दलित पर उनकी सन्तान क्षत्री ? दलित की सक्षमता को मान्यता न मिल जाए कहीं, तो पितृसत्ता की बजाय मातृसत्ता को मान लिया। विदुर की पत्नी तक तो व्यास से सन्तान प्राप्त करनी पड़ी। सच में देखा जाए तो धृतराष्ट्र और पांडव दलित पुत्र थे यदि यही संस्कृति भी चलती रहती तो सम्भवतः नक़्शा कुछ और ही होता। एक संकर संस्कृति पनपती, जिसमें श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ आर्य-अनार्य का भेद ख़त्म हो गया होता और महाभारत का अन्त वह न होता, जो हुआ। पर फिर सनातन वैदिक धर्म की, ब्राह्मण की रक्षा कैसे होती ? उसकी रक्षा के लिए कूटनीति लाज़िमी थी और कूटनीति कृष्ण के बिना सम्भव नहीं थी। कलह होनी थी, कलह बढ़ी-महाभारत तय था महाभारत हुआ। दलित कथाएँ घटनी ही थीं-वे घटीं।
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