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उपन्यास >> पाप पुण्य

पाप पुण्य

गुलाब नबी गौहर

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :238
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2165
आईएसबीएन :81-260-0194-1

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प्रस्तुत है कश्मीरी उपन्यास.....

Paap Punya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

‘‘तो मेरे लाल, इस पस-मन्ज़र में भाग जाने के सिवा मुझे चारा ही क्या था ? इसीलिए मैं बादाम-शुगूफ़ों की रुत में पंजाब से कश्मीर लौट आता और शहर में एक-आध दिन रहकर कातिक के केसर-शुगूफ़ों तक मधमती को बाजुओं में भर लेता; वुलर की हिलोरों से खेलता, नदी-नालों में मछली पकड़ता, मुर्गों और सब्ज़ाज़ारों में मौज करता, और कुछ ही दिन शहर में गुज़ार कर फिर पंजाब की राह लेता।

‘‘लाल मेरे ! नदी-नालों की यह रसीली मौसिकी, दौड़ती-भागती अबशारों का रक़्स, वुलर के आईने में इन्द्रधनुष की रंग-बस्त तस्वीर का अक़्स, चीड़ की लटकनों के झूमते आवेज़े, बरजस्ता खिल आए यास्मन के गुच्छों की मुस्कान, गाँव के भोले-भाले वासियों का गर्म-गर्म मेलजोल ये सब कुछ मेरी जिंदगी का अटूट आसपास बन चुके हैं। फ़ितरत की गोदी का यह दुलार और अपना जेहनी इन्तशार मुझे शहर में टिकने नहीं देता।

‘‘मेरे..बलबूते, मेरे वजूद, मैं हालात से टक्कर नहीं ले सका। जब मैंने कोई बचाव पेश नहीं किया तो वह बेचारी तुम्हारी माँ, जो एक परदादार पाकीज़ा थी और घर के ज़नाने में जन्मी और पली-पुसी थी, वह क्या बोल सकती थी ? मेरा दिल इन्हीं नदी-नालों, सरों और पोखरों में खुश रहता है। इसी दीवानगी के दौरान मेरी ज़िन्दगी में.....’’

 

दो शब्द

 

 

कश्मीरी अदीब ख़ुद ही दालान में बैठी आँसुओं की धारा में बही जा रही लैला मिरजान है; और ख़ुद ही रात के पिछले पहर की ठिठुरन में अँगनाई के दर पर ठिठक गया। मज़नून ख़ान भी है। ख़ुद ही वनवुन गाने वालियों की बेसुरी टेक भी। कौन पूछे कि दूसरा नावेल ‘म्युल’ निकालने के दस बरस बाद दशहरा जैसा तीसरा नावेल ‘पुन त पाप’ बाज़ार कैसे पहुँचा ? उन अदीबों से भला किसने पूछा जो उम्र भर दो किताबें छपवाने के बाद कल्चरल एकेडमी के एज़ाज़ से लेकर नोबेल प्राइज़ को हासिल करने के ख़्वाब देखते रहे, और जिन्होंने  आज तक और कोई किताब नहीं निकाली, मगर फिर भी अज़मत की खूटी के ऊपर अपने आपको लटका लेते हैं। खैर यह एहसास होते हुए भी मेरे अन्दर की वनवुन-कार टेक सुना-सुनाकर पूछ रही है—च़ेरस माने क्या ?

‘म्यूल’ शाया हुई तो कुछ ही महीनों बाद मैंने तीन रजिस्टरों पर लिखा इस नावेल का क़ालमी नुख़्सा अपने एक हमदर्द दोस्त को पकड़ाया कि इसे सबसिडी के लिए लालमंडी पहुँचाये। पाँच साल बाद इस दोस्त ने शुरू और आख़िर के हिस्से खो दिये बीच वाले रजिस्टर पर लिखा नावेल का हिस्सा लौटा दिया। मेरे पास और कोई नक़ल नहीं थी। फ़क़त रफ़ नोट अलमारी में तितर-बितर पड़े थे। ठान ली कि ‘पाप त पुन’ का नुस़्खा खुद ही अकादेमी के दफ़्तर में दे आऊँ। मगर कहते हैं न कि वह (अल्लाह मियाँ) अण्डे में भी जान डाल देता है। साहित्य अकादेमी के जनरल कौंसिल का इजलास गोआ की राजधानी में हो रहा था। अवतारकृष्ण रहबर और मोतीलाल साक़ी मेरे साथ थे।

समंदर की लहरों से खेलते-खेलते हमारे नंगे तलवों में गुदगुदी हो रही थी और हम तीनों कश्मीर और गोआ की ख़ूबसूरती का मुकाबला करने लगे। हज़ार कड़वाहट के बावजूद जो मिठास कश्मीर की है वह और कहीं नहीं। यह सोच-सोच कर हम फूले नहीं समाते थे। मगर गो, दमन और दिव के हिन्दू, मुसलमान और ईसाई अपनी कल्चर का जो साझा दर्द रखते थे, अपनी ज़बान की अज़मत का शऊर रखते थे। भला वह कश्मीरियों में सिरे से ही ग़ायब क्यों ? हम इन्हीं मामलों पर ग़ौर कर रहे थे कि रहबर साहेब ने अपने मख़सूस अंदाज़ में शिकायत की, ‘‘हाय रे, कश्मीरी अदीबों ने मुझे मुँह दिखाने क़ाबिल नहीं रखा।’’ फिर मुझसे बोले कि कश्मीर नावल के लिए एक मुसलसल प्रोग्राम तरकीब दिया जाय। मैं ऊपर से मंजूरी भी ले आया, मगर अब ?’’ उनकी ख़श्म भरी सवालिया नज़रें जज़्बे की शिद्दत से सराबोर थीं।
‘मगर मैंने तो नहीं कहा था।’’ मैंने लजाजत से एक माजूर-सा उज़्र पेश किया। ‘‘मगर तुम तो अपने को नावल निगार समझते हो ! रील बन रही है। कल तुम्हें दिखाएँगे तो शर्म के मारे सिर झुक जायेगा।’’

मैंने उसी आन उसे यक़ीन दिलाया कि कश्मीर लौट जाते ही एक साल के लिए हफ़तावार क़िस्तें अपने नावल को देता रहूँगा। हम्द ख़ुदा का कि वादा वफ़ा हुआ कुछ मैंने अपने ज़ेहन के तहख़ानों को टटोलना कुछ उन बिखरे रफ़ वरक़ों को साफ़ किया और इस तरह मेरे इस नावल को कश्मीरी का पहला रेडियो नावल बनने के फ़ख़्र हासिल हुआ। मेराजउद्दीन साहेब का पाप इस तरह पुण्य में बदल गया और इस बात के लिए मैं उसका शुक्रिया अदा करता हूँ।
हालांकि दलील और दलील का फैलाव वही कुछ है जिसे मेरा दोस्त गँवा बैठा था; फिर भी लगता है कि इज़्हार और लहजे में कुछ फ़र्क़ है। शायद इससे हुश्न में इज़ाफ़ा भी हुआ, मगर किस्तवार बेतरतीबी की जल्दी में कुछ ख़ामियाँ भी रह गयी होंगी फिर भी ‘देर आयद, दुरुस्त आयद’ ही साबित हुआ। देर न हुई होती तो शायद इस नावल को रेडियो नावल बनने का एज़ाज हासिल न हुआ होता। इस एज़ाज़ ने मेरे पुन त पाप को कई एक गुण अता किये।

पहली बार कश्मीरियों को आम और ख़ास दोनों सतहों पर नावल का चस्का पड़ा। कश्मीरी गद्य की सम्भावना भी इससे खुल पड़ी है। और हमारे गद्य की कुछ खामियां हैं भी तो इनका शऊरी एहसास भी होने लगा। इतना ही नहीं, कई बढ़िया अदीबों के अन्दर का जो नावलनिगार दूसरी सिन्फ़ों के मलबे के नीचे दब गया था, वह भी करवट ले उठा प्राण किशोर जी ने शीन त वत—पद्य लिखकर कश्मीर के अदबी शरमाये में इज़ाफ़ा किया। बल्कि जिन दिनों पुन त पाप रेडियो से नश्र हो रहा था अख़्तर साहेब ने मुझे यक़ीन दिलाया कि उनका एक और नावल तैयार हो रहा है। इंशाअल्लाह, कारवाँ बनता जा रहा है और खाइंया भर दी जायेंगी।

इस नावल को एक और अज़मत हासिल हुई कि इसकी दलील के फ़ितरी मंज़र ने एक हल्की-सी तहरीक को जन्म दिया। वह यह कि उस कश्मीर के हशीन चेहरे पर से नक़ाब उठा लिया जाये तो अभी मर्ग़ों और सब्ज़ाज़ारों में रूपोश है। साथ ही उस गुमसुम माहौल को भी उछाला जाय जो इन मरगों में और इनके आस-पास में रहनेवालों की तक़दीर बन चुका है। फ़ितरत के नज़ारों का यही बाँकपन और फ़ितरत की गोद पली उनींदी रेशमाओं और नाज़लों के हसरत भरे दिलों की धड़कन प्राण जी की कहानी में भी उभर आई हैं। भारती जी के ड्रामा ‘अख ओस पोहल’ (एक था गड़रिया) में भी और रेडियो टी.वी के दूसरे कई प्रोग्रामों में भी वह अक़्स दिखाई दिया है। इस नावल की हीरोइन के नाम की शहदभरी मिठास इन नये किस्सों और अफ़सानों में इतना समा रही है कि यह लोक अदब की हीमाल जैसी बनती जा रही है।
ऐसे ही पसमन्ज़र में एक ड्रामा के अन्दर नाज़ों का जौहर खिल उठा। लगा कि नाज़ो की बज़ाय नाज़ल नाम ही रखा होता तो इसका हुस्न दुबला हो जाता।
फिर भी मैंने ‘देर यह क्योंकर’ को खोल कर नहीं बताया। वह तो अदीबों को भी मालूम है, पढ़नेवालों को भी, कहीं कोई कोई हो तो।

तहे दिल से अपनी बीवी का शुक्रिया अदा करता हूँ जो मेरे इन्तशार की ऊबचूब को तरतीब से महफूज़ करती रही। उन्होंने उस नावल के बिख़रे औराक़ को रफ़ से फ़ेयर होने के बाद भी सँभालकर न रखा होता तो रहबर को दिया गया मेरा वादा भी वैसा ही निकलता जैसा रहबर का किया हुआ वादा।
रहबर का खुलूस कश्मीरी लिखनेवालों के लिए एक समस्या है। ऐसा सरमाया जिसका सही एहसास तब  होगा जब हमदर्दों के कारवान का यह पासबान अपने वक़्त पर रेडियो से रुख़्सत होगा, शुक्रिये का हक़दार है ही। साक़ी साहेब भी, जो उस फैसले की घड़ी में दो के साथ ख़ैर में शरीक़ था. मेराज तुरकवी में बड़े दर्द से किताबत की। उनके तईं यह शुक्रिया रश्मी नहीं, बल्कि हुनर को चाहत का शुक्रिया अदा करके ही कर्ज़ चुकाना होगा। साहित्य अकादेमी की माली इमदाद से किताब छप पाई; इस इदारे का भी शुक्रिया, और पेशगी शुक्रिया पढ़नेवालों को भी।

 

गुलाम नबी गौहर

 


एक

 


च़िमुर एक सुहावना गाँव। प्रकृति की शीतल, सुखद, हरी-भरी गोद में मुस्कराता मचलता मशरूम-सा पनपता गाँव। हरे बेदज़ार में लिपे-पुते मकानों की दो क़तारें। बीच में चीड़ और दियार की खड़ी पाँतें, उन्नत परियाँ जैसे धीरे-धीरे चढ़ते सूरज की किरणों को हरे दामन में भर रही हों। दायीं ओर ऊँचे छरेरे श्वेत सफ़ेदों की पँक्तियाँ गाँव की शान पर शकदरों की-सी नज़र रखती हुईं। बाईं ओर डिलेशस और अमरी सेब के पेड़ों की टहनियाँ लाल-लाल फलों से लदी हुई ऐसे लटक रही हैं जैसे गर्भवती के कपोल। उधर सूर्यास्त की दिशा में जहाँदीदा चिनारों की शाखाओं में आग लपटें निकल रही हैं जैसे कि संसार के बदलते रंग देखकर चकाचौंध में आ गये हों। पूर्व दिशा में उल्लसित हरियाली; पश्चिम में धीमा-धीमा अलाव। दक्षिण की दूधिया छटा; उत्तर में अधपके फल की अध लजायी लालिमा। चार-चार रंगों की धनक तनी हुई-सी। और चढ़ते सूरज ने रंगों के इस चतुर्विध वैभव पर सोने का मुल्म्मा चढ़ा के गाँव के समाँ को वैसे ही जगमागा दिया था जैसे सतरंगी फानूस से प्रदीप्त शतरंगी शमा आसपास को जगमग कराती है।

इस सुहाने समा में नूर-उद्-दीन वली का आस्तान दूल्हे की तरह सजाया गया था। सभामण्डप के खम्भों पर नक्शोनिगार तो थे ही; दीवारों पर सब्ज़ और सुर्ख़ रंग के नये पुराने रेशम और शनील के परदे डाले गये थे। इन परदों पर कश्मीरी और फ़ारसी काव्य वरार्थी सायलों के नाम सुनहरे तार से कशीदा किये गये थे। शिखरवाले कलश के चारों ओर नरगिशी खुदायी वाले पट्टों और पंजरों की गुलकारी थी। ऊन और सूत से बँधी हुई दशाएँ (मन्नतें) लटक रही थीं। कलश की नक्शोनिगारी के ऊपर सोने का पानी चढ़ाया गया था। लग रहा था कि यदि स्रष्टा ने कश्मीर के सौंदर्य को ढालते समय सर्जना का एक शाकाहर पेश किया तो कश्मीर के कलाकारों ने इसे अपने खू़ने जिगर से और भी निखारा था, बल्कि सेह आताश (शराब) बना दिया था। मन्नत के जो हाज़ारों धागे खम्भों और खिड़कियों से बाँधे गये थे उनसे जान पड़ाता था कि कितने अरमानों के अनदेखे इश्क़पेचान इस श्रद्धा-पीठ से लिपटे थे। कितने ही तरोताज़ा इश्क़पेचान आस्था के स्तंभ पर जान छिड़क रहे थे और कितने ही प्यार के हाथों की छुअन की प्रतीक्षा कर रहे थे कि आज नहीं तो कल मन की मुराद पूरी होगी ही।
प्रकृति के इस सुनहरे मैके में आस्तान की पावन दुल्हनिया प्यार और उत्कण्ठा की गोदी में फूली नहीं समाती थी। आसपास के गाँवों से जवानों-बूढ़ों और मर्द-औरतों का आज प्रातः से ही ताँता बँधा था। इनकी नई-नई पोशाकों से लग रहा था कि इस गहन बन के आस-पास रहनेवाले गडरियो, गूजरों और किसानों के यहाँ आज कोई निराली ईद मनाई जा रही है। एक न्यारा नौरोज़, एक न्यारी हेरथ (शिवरात्रि)।

आते शरद के दिन थे। धान की कलमें लटक रही थीं। आस-पास मक्की के खेतों में खड़ी फ़सलें मासूम भुट्टों को दुलराती हुई शी-शी कर रही थीं।

 वैसे इन दिनों न हज़रते शेख़ के उर्श का महीना था न उनके किसी ख़लीफ़े का उर्स। फिर भी उर्स की-सी गहमागहमी थी जो बेमतलब न थी। पकौड़ी तलनेवालों के चूल्हों की लौ लपलपा रही थी। गांव की तंग सड़कों के दोनों ओर मनारी की अरज़ी हाट लगी थी। सतरंजियों पर सजाई गई थीं काँच की चूड़ियाँ, पीतल के कर्णफूल, सुरमेदानियाँ, कुमकुमे फिरकियाँ, चौ-खंड टोपियाँ, गुजरानियों के अस्तरबंद सरपोश और फलूस।
इन आरज़ी हाटों में एक तरफ़ बूढ़ी किसानिन बेटे के मुन्ने के लिए लाल मख़मली चौखंड फ़ीतेदार टोपी का मोल चुका रही है और मुन्ना फलूस के लिए गाल फुला रहा। दूसरी ओर लाल डबलजीन का फेरन पहने और काले सोफ़ का इजार लगाये एक गूजर दोशीज़ा गुत्त के लिए पराँदा ख़रीदकर सर पर से शोलापुरी खेस उठा रही है और घी से लथपथ गुत्त को सामने ले आकर इसमें फोते-लगे पराँदे को गूँथने लगती है। उधर पकौड़ी तलने वाले के निकट एक सरपंच माथे पर तिरछी टोपी धरे आलू के गुलगुले चबाते हुए मनारी की दुकान के पास बैठी नई-नवेली दुल्हनियाँ से आँख मार रहा है। इधर यह दाँत-डॉक्टर एक जवान गूजर के दुखते दाँत के बदले स्वस्थ दाँत को रेंच से पकड़कर खींचे जा रहा है जिससे जवान छटपटा रहा है।
हर तरफ गहमागहमी है। आना-जाना, चलना, मुस्काना ! एक-एक टोली आ जाती, आस्तान में फ़ातिहा पढ़कर पकौड़ियाँ बेचनेवालों और मनारियों की ओर चली जाती। एक बूढ़ी पंडितानी पाँच-आठ कन्याओं और बहुओं को लिये अस्तान की प्रदक्षिणा कर रही थी और जवान पंडितानियों को सहजानंद ऋषि तथा ललद्यद के बारे में नानी से सुनी गाथाएँ सुना रही थी।

आस्तान के पिछवाड़े खुले मैदान में दो-चार कुर्सियाँ और मेज़ सजाई गईं थीं, और एक माइक भी लगा था। ऊँचे सफेदों पर एक-दो स्पीकर भी लगे थे। लग रहा था आज किसी बड़े जलसे की तैयारी है। इतने में एक नौजवान माठी लय में एक ना’त पढ़ने लगा। नग्मे के जादू से तथा आवाज़ की मिठास से सुननेवाले ठिठककर रह गये। दुकानों के सामने खड़े लोग भी जलसागाह की तरफ़ दौड़ आये और श्रोताओं की भीड़ लग गई। ऐसे में एक तरफ़ से आवाज़ आई—आ गया ! कौन आया ?

ना’तख्वान ना’त के रचनाकार की छाप भी सुन चुका था। जलसा गाह में एकत्रित लोगों की आँखें आगे पीछे की ओर लगी हुई थीं। एक दूसरे से पूछ रहा था, दूसरा तीसरे से, ‘‘आया ! कौन आया ?’’ किसी को भी खबर न थी, आनेवाल कौन था। उसका नाम तो सभी को ज्ञात था, पर उसकी शक्ल शायद ही किसी ने देखी थी। स्टेज के सामने से खाक़ी वर्दी पहने एक चपरासी आया, उसके पीछे-पीछे मुकद्दम, सरपंच, कुछ एक मुखिया लोग और मस्जिद के इमाम साहेब आये जिनके बाद दिखाई दिये कोट-पतलून पहने, टाई लगाये और कराकुली टोपी सर पर धरे एक अधेड़ उम्र के छोटे-मोटे अफ़सर जैसे। ‘‘कौन हैं यह, कौन हैं ?’’’ सभी एक दूसरे से पूछ बैठे।
इसी दौरान एक जवान किसान अपनी जानकारी का ढोल पीटता हुआ बोल उठा—‘‘यही है हाजी साहेब, फर्मवाला !’’
अधेड़ उम्र का एक किसान घाघ बोला-‘‘जानता हूँ हाजी अमीर दीन साहेब को। पाँच बरस मैंने उनके यहाँ मजूरी की है। ये तो वे नहीं हैं ! वे तो कोट-पतलून नहीं पहनते। वे शरजई इज़ार पहनते हैं। तो फिर यह कौन हैं भला ? कल जो ढिंढोरा पिटवाया था कि हाजी अमीर दीन आस्तान की नई तामीर के लिए आ रहे हैं। वे कहाँ और यह कौन ?’’
इस तरह की खुसर-फुसर हो रही थी कि उधर से एक रज़ाकार आ निकला। सभी ने उसे रोक लिया। उससे पता चला कि यह तहशीलदार साहेब हैं। हाजी साहेब मसजिद में नमाज़ पढ़ने गये थे।

‘‘लेकिन परसों तक तो हमारा तहसीलदार एक (कश्मीरी) पंडित था,’’ एक यारबाश किसान ऊँचे सुर में बोला।
‘‘भलेमानस, आजकल कश्मीरी पंडित और मुसलमान में फर्क कर ही कौन सकता है ? सब एक जैसा सूट पहने, टाई लगाये। कुछ समय पहले टोपी का फ़र्क़ रह गया था। वह भी अब नहीं रहा।’’
‘‘मेरे भोले ! दस्तगीर साहब की क़सम है तुझे। बता, है कोई फ़र्क़ तुझमें और मुझमें। हालाँकि तेरे फेरन में और मेरे लोछ में साफ़ फ़र्क़ दिखाई देता है। मगर न मुझे तुझसे रार न तुझे मुझसे बैर। इसके विपरीत ये अफ़सर लोग एक-सी पोशाक पहने भाई-भाई तो दिखाई देते हैं, पर अंदर-ही-अंदर एक-दूसरे से कुढ़ते रहते हैं। रही बात अमीरदीन साहेब की। ये ठहरे मनुष्य के रूप में अवतार।’’

दम बठ की यह लम्बी तकरीर सुनकर अमा नाई अपना खीसा सम्भालते हुए बोला—‘‘जी, तुम्हारी ही बात सोलहों आने सही है। इससे पूर्व जो पंडित तहसीलदार था उसने नाजिन के पंडित चपरासी को अपने डेरे पर अरदली रखा था, उसी के हाथों उसने लूट मचाई। इसने कुलगाम के डोम को चुना; और परसों से उसी के द्वारा...’’
इस टुकड़ी की कमेटी अभी भी चल रही थी कि स्टेज-पर उथल-पुथल-सी मच गई। इधर सफ़ में खलबली हुई और दाहिनी ओर सफ़ को चीरता हुआ हाजी अमीरदीन स्टेज की ओर आया। क़द लम्बा, माथा चौड़ा, कश्मीरा का लम्बा कोट, गबरडीन का ढीला-ढाला शरई इज़ार पहने हाथ में कुराकुली टोपी लिये। धीरे-धीरे कद़म बढ़ाता हुआ वह मुस्कराते हुए हर किसी को सलाम का जवाब दे रहा था। हलाँकि पांच ऊपर पचास है, पर गाल अमरी सेब से लाल हैं। घने-घने ढक कान से नीचे तक रखे थे जिनका एक भी बाल सफ़ेद नहीं था। साफ़ माथे के बीचोंबीच हफ्ते के चाँद का-सा दाग़ पड़ा था जिसे सिज्दों में दमका दिया था।

स्टेज पर सबके सब उठ खड़े हुए और ठेकेदार साहेब से हाथ मिलाने लगे। नाचार तहशीलदार साहेब को भी कुरसी पर से ज़रा उठकर दाहिना हाथ मिलाना पड़ा, पर बाएँ हाथ से अमीर साहेब उसके कंधे पर प्यार से दबाता रहा और इशारों से कुर्सी पर बैठे रहने की ताकीद करता रहा। जलसे में एकत्रित सभी की नज़रें स्टेज पर जमीं थीं और हाजी साहेब की टोह ले रही थीं, पर तहसीलदार को जैसे ये नज़रें चिमटी की तरह नोच रही थीं। आज पहली बार ग़ैर-अफ़सराना। जलाल उसके अफ़सराना जलाल पर छा रहा था। उसका बस चलता तो हाजी अमीरदीन की तरफ़ उठती हुई नज़रों को बेड़ियाँ पहना देता। उनसे मुचलका लिखवा लेता कि दुबारा किसी और तरफ़ न उठें। पर करें क्या ? उसे पता चला कि उस प्यार भरे जलसे में प्यार भरी नज़रें केवल हाजी साहेब की ही तरफ़ उठनेवाली हैं तो वह जलसे की सदारत करना बिल्कुल न मानता। हाजी साहेब को अवबोध तो था कि उसके बग़ल की कुर्सी पर इलाके का बड़ा अफ़सर और मजिस्ट्रेट बैठा था। स्वयं वह उसका पूरा-पूरा आदर सत्कार कर रहा था; पर आम लोगों की प्रवृत्ति को कैसे बदल पाता ? दरिया का रुख कैसे बदल देता ? इधर तहसीलदार साहेब को अपने अहलमद की बातचीत याद आ रही थी ।
साहेब आप इस जलसे में नहीं जाइयेगा।’’

‘‘क्यों ?’’
‘‘साहेब, हाजी साहेब की मौजूदगी में मिनिस्टरों की भी आन नहीं रह पाती है।’’
‘‘हाजी साहेब ? कौन भला ? वे मिनिस्टर तो अनपढ़ ठहरे। हमारे सामने ये नकली ठेकेदार मुँह खोल भी सकते हैं ?’’
‘‘जनाब, वह महज़ एक ठेकेदार नहीं; वह अपने आप में एक संस्था है। ग़रीबों का दाता; यतीम लड़कियों का बाबा; मजूरों का सहारा; हाजतमंदों का हाजतखा; विद्वान भी और विद्वानों की संगत का रसिया भी; अफसरों का यार भी और आदर करने वाला भी। मगर बड़े अफ़सरों के सामने भी आम लोग इसी की अधिक इज़्जत करते हैं।’’
अहलेमद की बातचीत का कैसेट तहसीलदार साहब के जेहन के टेपरिकार्डर में बजने लगा और उसकी हर बात उसे बड़े काम की जान पड़ी। तहसीलदार साहेब इसी उधेड़बुन में था कि मस्जिद का इमाम उठ खड़ा हुआ; ‘आऊज़-बिल्ला’ पढ़कर और खुदा के नाम की तारीफ़ करके उसने कुरान का आया सुनाया।

‘‘जिन्होंने खुदा की राह पर जान दी, मत सोच कि वे मरे हैं। वो तो जिंदा हैं, अपने मालिक के पास; उनकी नियामतों से मालामाल। वे उस पर बहुत ख़ुश हैं जोकि परमात्मा ने अपने अनुग्रह से उन्हें प्रदान किया है।’’ तिलावत के समय सारी भीड़ दमसाधे रही। यद्यपि आयों का अभिप्राय कुछ एक ही समझ पाये, फिर भी तिलावत के जादू से अनपढ़ किसान भी चट्टान की तरह ठिठककर रह गये थे और माऊँ की गोद में सद्यःजात शिशु भी सालीनता का नमूना बने हुए थे।
तिलावत के बाद इमाम साहेब ने हज़रते शेख़ का यह श्रुक वाइज़ाना लय में पढ़ा और आम लोगों के साथ-साथ पढ़ते रहे—

हारस त श्रावनस यस ज़चि बारू
तस पोहस त मागस बुशुन वाव
शीनस त रुदस युस नन-वोरु
तस रिवनस त वदनस द्वहव क्राव
हरदनि र्युत युस व्वपस-दोरू
तस कुस हेये मंज़ मरदन नाव
ख्असाढ़ और सावन में जो चीथड़े पहने
पोह और माघ में वह शीतलहर को शहन कर
बर्फ़ और बारिश में जो नंगे-पैर दौड़ा फिरे
रोना-चीख़ना रोज़ ही उसके पल्ले पड़े
शरद्-ऋतु में जो उपवास करे
मर्दों में उसे कौन शुमार कर ले ?

इसके बाद अभी-अभी बनाई गई जियात कमेटी के सदर मागरे साहेब ने संक्षेप में इस इलाके में आस्तान के महत्त्व पर प्रकाश डाला और कहा—
‘‘इलाके के हमारे पुरखों ने समय-समय पर आस्तान शरीफ़ तामीर करने का आयोजन किया है।

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