कविता संग्रह >> आधुनिक डोगरी कविता चयनिका आधुनिक डोगरी कविता चयनिकाओम गोस्वामी
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इसमें समकालीन डोगरी कविता के 30 प्रमुख हस्ताक्षरों की 74 कविताओं के हिन्दी अनुवाद का महत्वपूर्ण संकलन है
Aadhunik Dogari Kavita Chayanika
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आधुनिक डोगरी कविता चयनिका समकालीन डोगरी कविता के 30 प्रमुख हस्ताक्षरों की 74 कविताओं के हिन्दी अनुवाद का महत्वपूर्ण संकलन है। इन कविताओं का अनुवाद आठ अनुवादकों द्वारा साहित्य अकादेमी के तत्त्वाधान में जम्मू में आयोजित अनुवाद कार्यशाला के दौरान किया गया। संकलन का संपादन डोगरी के प्रख्यात लेखक ओम गोस्वामी द्वारा किया गया है, जिन्होंने अपनी भूमिका में डोगरी कविता की विकास-यात्रा को वस्तुपरक ढंग से रेखांकित किया है, ताकि पाठकों को डोगरी कविता के स्वरूप को समझने में सुविधा हो।
भारतीय उपमहाद्वीप पर संभवतया डोगरी ही ऐसी भाषा है, जिसमें आज भी लोक-साहित्य की धारा तीव्र वेग से साहित्य के समांतर फलती-फूलती आगे बढ़ी आ रही है। ग्रामीण समाज में लोक-काव्य का प्रणयन एक जीवंत घटना है। आधुनिक साहित्य की अविरल धारा तो बीसवीं शताब्दी की घटना है, जबकि डोगरी भाषा एवं साहित्य के विकास पथ पर मात्र लोक-साहित्य अथवा लोक-वार्तिक विधाओं का बोलबाला दिखाई पड़ता है। सैकड़ों गायक, जो स्वयं ही गीतकार भी हैं, अपनी रचना गाकर लोक-मानस के सुपुर्द कर देते हैं।
आधुनिकता के उदय के साथ ही डोगरी कविता में लोक-साहित्य की परंपरा से परे हटने का आग्रह स्पष्ट होने लगता है। समकालिक स्थितियों अथवा युगबोध का परिलक्षण यहीं से दिखाई पड़ता है। जीवन के विभिन्न पहलुओं की आलोचना के विशद प्रयास आधुनिक साहित्य को उसकी अलग पहचान देते हैं।
जीवन के विभिन्न पक्षों के चित्रांकन को आधार बनाकर आधुनिकता की आधार भूमि पर रचित कविताओं में सामंती एवं लोक-काव्य के प्रतीकों, उपमाओं तथा बिम्बों का आश्रय देकर डोगरी कवियों ने नए युग के विरोधाभासों को समुचित रूप से उभारा है। आधुनिक धारा सन् 1943 ई.में एकाएक नया मोड़ लेकर वैचारिक दृष्टि से नया बाना धारण कर लेती है।
भारतीय उपमहाद्वीप पर संभवतया डोगरी ही ऐसी भाषा है, जिसमें आज भी लोक-साहित्य की धारा तीव्र वेग से साहित्य के समांतर फलती-फूलती आगे बढ़ी आ रही है। ग्रामीण समाज में लोक-काव्य का प्रणयन एक जीवंत घटना है। आधुनिक साहित्य की अविरल धारा तो बीसवीं शताब्दी की घटना है, जबकि डोगरी भाषा एवं साहित्य के विकास पथ पर मात्र लोक-साहित्य अथवा लोक-वार्तिक विधाओं का बोलबाला दिखाई पड़ता है। सैकड़ों गायक, जो स्वयं ही गीतकार भी हैं, अपनी रचना गाकर लोक-मानस के सुपुर्द कर देते हैं।
आधुनिकता के उदय के साथ ही डोगरी कविता में लोक-साहित्य की परंपरा से परे हटने का आग्रह स्पष्ट होने लगता है। समकालिक स्थितियों अथवा युगबोध का परिलक्षण यहीं से दिखाई पड़ता है। जीवन के विभिन्न पहलुओं की आलोचना के विशद प्रयास आधुनिक साहित्य को उसकी अलग पहचान देते हैं।
जीवन के विभिन्न पक्षों के चित्रांकन को आधार बनाकर आधुनिकता की आधार भूमि पर रचित कविताओं में सामंती एवं लोक-काव्य के प्रतीकों, उपमाओं तथा बिम्बों का आश्रय देकर डोगरी कवियों ने नए युग के विरोधाभासों को समुचित रूप से उभारा है। आधुनिक धारा सन् 1943 ई.में एकाएक नया मोड़ लेकर वैचारिक दृष्टि से नया बाना धारण कर लेती है।
प्रस्तावना
साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली के तत्त्वावधान में गठित ‘उत्तर क्षेत्रीय मंडल’ की एक बैठक में यह प्रस्ताव पारित हुआ कि डोगरी और कश्मीरी भाषाओं की एक संयुक्त कार्यशाला आयोजित की जाए। ‘डोगरी भाषा सलाहकार मंडल’ का संयोजक (वर्ष 1998 ई. -2002 ई.) होने के नाते मैंने यह संशोधन रखा कि दोनों भाषाओं के वृहत्तर हितों को ध्यान में रखते हुए दो अलग-अलग अनुवाद कार्यशालाएँ की जाएँ। अतएव इस प्रस्ताव के अनुरूप दो कार्यशालाओं का आयोजन जम्मू में किया गया। मूलत: यह कार्यशालाएँ पत्नीटाप में करने की योजना थी, किन्तु बहुत-सी सुविधाओं के अभाव में वहाँ ऐसा कर पाना संभव न हो सका। अत: इनका आयोजन कल्वरल अकादेमी, जम्मू में किया गया। त्रिदिवसीय डोगरी-हिन्दी अनुवाद कार्यशाला अधोहस्ताक्षरी के निर्देशन में 27 से 29 नवंबर, 2002 में आयोजित की गई।
कार्यशाला का उद्देश्य डोगरी कविता को हिन्दी में अनुवादित करवाना था, ताकि इसे हिन्दी पाठकों के लिए पुस्तकाकार में प्रस्तुत किया जा सके। श्रेष्ठ और प्रतिनिधि कविताओं के चुनाव की लंबी प्रक्रिया के उपरांत इन्हें विभिन्न अनुवादकों से अनुवादित करवाकर विशेषज्ञों के पैनल की मौजूदगी में पढ़ा, परखा और सँवारा गया।
आरंभ में मंडल के सदस्यों का सुझाव था कि पुस्तक 150 डिमाई पृष्ठों की होनी चाहिए। इस सीमा के रहते 26 कवियों की 38 कविताएँ चुनी गईं। किन्तु, यह ज्ञात होने पर कि कश्मीरी कार्यशाला के लिए 64 कविताएँ चुनी गई हैं, डोगरी में यह संख्या 74 कर दी गई, इसका यह लाभ हुआ कि डोगरी कविता का रंग-रूप अधिक मुखरित हो उठा।
अनुवाद एक ऐसी कला है, जो अनुवादक की सामर्थ्य के अनुसार दो भाषाओं में पुल बाँधती है। यह विडंबना ही है कि डोगरी भाषा में रचित साहित्य का बहुत कम अंश भारतीय और विदेशी भाषाओं में उपलब्ध है। इस प्रकार की कार्यशालाएँ डोगरी के रचनात्मक साहित्य को वृहत्तर पाठक वर्ग के समक्ष लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएँगी, इसकी पूरी आशा है। इसी उद्देश्य को सामने रखकर मेरे संयोजकत्व के दौरान एक अन्य डोगरी-अंग्रेज़ी कार्यशाला भी आयोजित की गई है।
प्रस्तुत पुस्तक डोगरी कविता पहचान कराने में सफल सिद्ध होगी, इसकी पूर्ण आशा है।
कार्यशाला का उद्देश्य डोगरी कविता को हिन्दी में अनुवादित करवाना था, ताकि इसे हिन्दी पाठकों के लिए पुस्तकाकार में प्रस्तुत किया जा सके। श्रेष्ठ और प्रतिनिधि कविताओं के चुनाव की लंबी प्रक्रिया के उपरांत इन्हें विभिन्न अनुवादकों से अनुवादित करवाकर विशेषज्ञों के पैनल की मौजूदगी में पढ़ा, परखा और सँवारा गया।
आरंभ में मंडल के सदस्यों का सुझाव था कि पुस्तक 150 डिमाई पृष्ठों की होनी चाहिए। इस सीमा के रहते 26 कवियों की 38 कविताएँ चुनी गईं। किन्तु, यह ज्ञात होने पर कि कश्मीरी कार्यशाला के लिए 64 कविताएँ चुनी गई हैं, डोगरी में यह संख्या 74 कर दी गई, इसका यह लाभ हुआ कि डोगरी कविता का रंग-रूप अधिक मुखरित हो उठा।
अनुवाद एक ऐसी कला है, जो अनुवादक की सामर्थ्य के अनुसार दो भाषाओं में पुल बाँधती है। यह विडंबना ही है कि डोगरी भाषा में रचित साहित्य का बहुत कम अंश भारतीय और विदेशी भाषाओं में उपलब्ध है। इस प्रकार की कार्यशालाएँ डोगरी के रचनात्मक साहित्य को वृहत्तर पाठक वर्ग के समक्ष लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएँगी, इसकी पूरी आशा है। इसी उद्देश्य को सामने रखकर मेरे संयोजकत्व के दौरान एक अन्य डोगरी-अंग्रेज़ी कार्यशाला भी आयोजित की गई है।
प्रस्तुत पुस्तक डोगरी कविता पहचान कराने में सफल सिद्ध होगी, इसकी पूर्ण आशा है।
ओम गोस्वामी
भूमिका
आधुनिक डोगरी कविता: मुख्य स्वर और प्रवृत्तियाँ
लोक साहित्य की रूढ़ियों में सृजन की लयात्मकता
भारतीय उपमहाद्वीप पर संभवतया डोगरी ही ऐसी भाषा है जिसमें आज भी लोक-साहित्य की धारा तीव्र वेग से साहित्य के समांतर फलती-फूलती आगे बढ़ी आ रही है। सामंती युग में यद्यपि लोक-साहित्य की विधाओं का अधिक प्रचलन था, किंतु आज भी इनमें रचनात्मक संवृद्धि रुकी नहीं है। ग्रामीण समाज में लोक-काव्य का प्रणयन एक जीवंत घटना है। आधुनिक साहित्य की अविरल धारा तो बीसवीं शताब्दी के दशक के उपरांत की घटना है, जबकि डोगरी भाषा एवं साहित्य के विकास पथ पर मात्र लोक-साहित्य अथवा लोक-वार्तिक विधाओं का बोलबाला दिखाई पड़ता है। सैकड़ों गायक जो स्वयं ही गीतकार भी हैं अपनी रचना गाकर लोक-मानस के सुपुर्द कर देते हैं। लोक-वार्ता की अविरल धारा में प्रवाहित की गई कोई रचना कुछ ही दिनों में एक वृहद् भू-क्षेत्र में लोकप्रिय हो जाती है। सृजन का व्यक्तिनिष्ठ स्रोत्र होते हुए भी वह जन-मानस की अनमोल विरासत बन जाती है। ऐसी गीति रचनाओं का सर्जक कवि होकर भी कवि के तौर पर पहचान का आकांक्षी नहीं होता। वह आनंद के लिए काव्य रचना करता है, अहं तुष्टि के लिए नहीं। भाषा के आदि काल से यह प्रक्रिया कार्यरत रही है-शायद इसी कारण से डोगरी में लोक साहित्य का सागर ठोठें मारता दिखाई पड़ता है। डुग्गर (डोगरी भाषी क्षेत्र) में लोकवार्ता की बहुतायत के समक्ष साहित्य सृजन की धारा अति क्षीण दिखाई पड़ती है। वस्तुत: अक्सर ऐसा होता है कि किसी कवि ने अपने प्रतिभा को शब्द पहनाए पहचान बनाई और समय व्यतीत होने के साथ-साथ उसकी शिनाख़्त और हैसियत लोकवार्ता के समुद्र में विलीन हो गई लोकवार्ता की समृद्धि में यह एक धनात्मक कारक रहा है।
यहाँ यह बतलाना प्रासंगिक होगा कि अब तक हज़ारों लोकगीत एकत्रित एवं प्रकाशित हो जाने के बावजूद हज़ारों और ऐसे प्रतीक्षा में हैं उनकी ओर ध्यान दिया जाए, उनका संकलन और प्रकाशन किया जाए। लोक-वार्तिक नमूनों के आधिक्य की प्रवृत्ति के पीछे सृजन करने की मनोवृत्ति कार्यरत दिखाई पड़ती है। वर्तमान में जहाँ लोकगीतों की अनेक शैलियों का गायन एवं सृजन रुद्ध हुआ है, वहीं युगानुरूप नए-नए गीत लोक-परंपरा की गीतिधारा में निरंतर जुड़ते जा रहे हैं। ‘भाख’ ओर ‘चन्न’ गीतों का विलुप्त होना मात्र दो दशक पूर्व की घटना है। अब मात्र खोज करने पर और अनुरोध करने पर इन गीतों को गानेवाले मिलेंगे। किन्तु नए-नए गीतों में आधुनिक जीवन की सादगी भरी झलक स्पष्ट दिखलाई पड़ती है। जीवन को प्रभावित करने वाली समस्याएँ अब लोकगीतों में भी स्थान पाने लगी हैं। परिवर्तन के स्वर अब लोकगीतों में भी प्रतिध्वनित होते दिखलाई पड़ते हैं।
लोक-मानस ने कृषि कार्य में ट्रैक्टर, रासायनिक खाद के प्रयोग तथा बंबी से सिंचाई की महत्ता को समझा है, वहीं गीत की कोमलता को भी भुलाया नहीं है।1 इसी भाँति 1971 ई. के भारत-पाक युद्ध में छंभ क्षेत्र से लोगों को उखड़ने, बेघर-बार होने की पीड़ा और अन्य मानव निर्मित दुर्घटनाओं के विभिन्न पक्ष आज के दौर के लोक-गीतों में परिलक्षित किए जा सकते हैं। यद्यपि आजकल के घटना क्रम पर बुने गए गीतों के रचयिताओं के नामादि का पता चल सकता है, किन्तु लौकिक मानसिकता और रचना की शैलीगत समानता के कारण ऐसी रचनाओं की परिगणना लोकगीतों में ही होती आई है।
डोगरी लोक-गाथाओं का मूल्यांकन लोक-गाथाकार की सृजन-शक्ति और उर्वर कल्पना-शक्ति के प्रति आश्वस्त करता है। कई बार यह तथ्य उभरकर सामने आता है कि उसकी वर्णन क्षमता तथा काव्यात्मक समझ आज के कवि से किसी भाँति उन्नीस नहीं है। इसी से इस धारणा की पुष्टि होती है कि मौलिक लेखन करनेवाले सर्जक ही अपने युग में लोक-गाथाकार भी थे। समय की धारा ने उन्हें विस्मृति के गर्त में धकेल दिया। किन्तु, जैसे-जैसे आधुनिक समाज, राजनीति और साहित्य की चेतना का प्रवेश डोगरा प्रदेश में हुआ। वैसे-वैसे ही साहित्यिक संचेतना उद्बबुद्ध हो उठी। चौथे दशक के आरंभिक वर्षों में साहित्य सृजन की प्रक्रिया में क्रमबद्धता का आभास होने लगता है। वस्तुत: समय खंड संक्रांतिक दशाओं में नई दिशाओं की तलाश का दौर है। इस समय में जहाँ बहुत-सी सांस्कृतिक परंपराओं का ह्रास होता है
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1. ‘‘दांदें आह्लेआ तेरे दांद चले रजौरी,
अग्गें चल करसाना, लेहऐ दांदें दी ऐ जोड़ी।
छुड़ हल्ल ते पंजाली, जिमीं ट्रैक्टर कन्ने बाह्नी।
नमें ढंगै दी करसानी, हैल रसैनी पानी।
लाना बंबियै दा पानी, रुट्टी रज्जी असें
यहाँ यह बतलाना प्रासंगिक होगा कि अब तक हज़ारों लोकगीत एकत्रित एवं प्रकाशित हो जाने के बावजूद हज़ारों और ऐसे प्रतीक्षा में हैं उनकी ओर ध्यान दिया जाए, उनका संकलन और प्रकाशन किया जाए। लोक-वार्तिक नमूनों के आधिक्य की प्रवृत्ति के पीछे सृजन करने की मनोवृत्ति कार्यरत दिखाई पड़ती है। वर्तमान में जहाँ लोकगीतों की अनेक शैलियों का गायन एवं सृजन रुद्ध हुआ है, वहीं युगानुरूप नए-नए गीत लोक-परंपरा की गीतिधारा में निरंतर जुड़ते जा रहे हैं। ‘भाख’ ओर ‘चन्न’ गीतों का विलुप्त होना मात्र दो दशक पूर्व की घटना है। अब मात्र खोज करने पर और अनुरोध करने पर इन गीतों को गानेवाले मिलेंगे। किन्तु नए-नए गीतों में आधुनिक जीवन की सादगी भरी झलक स्पष्ट दिखलाई पड़ती है। जीवन को प्रभावित करने वाली समस्याएँ अब लोकगीतों में भी स्थान पाने लगी हैं। परिवर्तन के स्वर अब लोकगीतों में भी प्रतिध्वनित होते दिखलाई पड़ते हैं।
लोक-मानस ने कृषि कार्य में ट्रैक्टर, रासायनिक खाद के प्रयोग तथा बंबी से सिंचाई की महत्ता को समझा है, वहीं गीत की कोमलता को भी भुलाया नहीं है।1 इसी भाँति 1971 ई. के भारत-पाक युद्ध में छंभ क्षेत्र से लोगों को उखड़ने, बेघर-बार होने की पीड़ा और अन्य मानव निर्मित दुर्घटनाओं के विभिन्न पक्ष आज के दौर के लोक-गीतों में परिलक्षित किए जा सकते हैं। यद्यपि आजकल के घटना क्रम पर बुने गए गीतों के रचयिताओं के नामादि का पता चल सकता है, किन्तु लौकिक मानसिकता और रचना की शैलीगत समानता के कारण ऐसी रचनाओं की परिगणना लोकगीतों में ही होती आई है।
डोगरी लोक-गाथाओं का मूल्यांकन लोक-गाथाकार की सृजन-शक्ति और उर्वर कल्पना-शक्ति के प्रति आश्वस्त करता है। कई बार यह तथ्य उभरकर सामने आता है कि उसकी वर्णन क्षमता तथा काव्यात्मक समझ आज के कवि से किसी भाँति उन्नीस नहीं है। इसी से इस धारणा की पुष्टि होती है कि मौलिक लेखन करनेवाले सर्जक ही अपने युग में लोक-गाथाकार भी थे। समय की धारा ने उन्हें विस्मृति के गर्त में धकेल दिया। किन्तु, जैसे-जैसे आधुनिक समाज, राजनीति और साहित्य की चेतना का प्रवेश डोगरा प्रदेश में हुआ। वैसे-वैसे ही साहित्यिक संचेतना उद्बबुद्ध हो उठी। चौथे दशक के आरंभिक वर्षों में साहित्य सृजन की प्रक्रिया में क्रमबद्धता का आभास होने लगता है। वस्तुत: समय खंड संक्रांतिक दशाओं में नई दिशाओं की तलाश का दौर है। इस समय में जहाँ बहुत-सी सांस्कृतिक परंपराओं का ह्रास होता है
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1. ‘‘दांदें आह्लेआ तेरे दांद चले रजौरी,
अग्गें चल करसाना, लेहऐ दांदें दी ऐ जोड़ी।
छुड़ हल्ल ते पंजाली, जिमीं ट्रैक्टर कन्ने बाह्नी।
नमें ढंगै दी करसानी, हैल रसैनी पानी।
लाना बंबियै दा पानी, रुट्टी रज्जी असें
खानी।’’
वहीं बहुत-सी रीतियाँ रूढ़ि बनकर अपनी उपयोगिता खो रही थीं। समय की धारा में वही पनपता है, जो बदलते परिवेश में जीने की क्षमता प्रदर्शित करता है। यही तथ्य डुग्गर के रचनात्मक साहित्य में आधुनिकता का आरंभ बिंदु बनता है। साहित्य-मर्मज्ञों ने इससे ही आधुनिकता बोध का समारंभ माना है।
यह वह समयखंड है, जब उपनिवेशवादी शक्तियों के विरुद्ध सुरबद्ध आवाज़े भारतीय मानस की आस्था को व्यक्त कर रही थीं। समस्त भारतीय उपमहाद्वीप का जन-जन नए युग के संग अंगड़ाई लेने को मतवाला होने लगता है। धर्म और समाज के प्रतिनिधि सदियों की नींद से जाग उठे भारतीय समाज की कमज़ोरियों की ओर ध्यान देते हैं। फलत: कई आंदोलन चलते हैं। अशिक्षा, अछूतोद्धार, अंध-विश्वास और गले-सड़े रिवाजों की गलीज़ जकड़न से मुक्ति हेतु एक तड़प-सी उभरकर सामने आने लगी। इसे सुधारवाद का नाम मिला। राजनीतिक घटनाक्रम के दृष्टिगत सामाजिक परिवर्तन की गति अति तीव्र हो चली थी। उपनिवेशवादी शक्तियाँ अपने ज़ुल्म का शिकंजा कसती जा रही थीं। महात्मा गाँधी के अहिंसक स्वतंत्रता आंदोलन के संग-संग हथेली पर लिए सिर देश का गौरव लौटाने वाले सिरफ़िरे स्वतंत्रता सेनानी इस न्यायोचित मंज़िल को पाने के लिए आगे बढ़ते हैं। इतिहास के पटल पर नर्म दल के साथ-साथ गर्म दल भी कार्यरत है। अमृतसर पंजाब में जालियाँवाला बाग़ कांड ब्रिटिश उपनिवेशवाद की घिनौनी आकृति को नग्न कर डालता है। हर देशवासी के हृदय में आज़ादी का दीपक जलने लगता है।
जम्मू-कश्मीर राज्य में इस दौरान महाराजा हरिसिंह का प्रशासन था। बाहरी तौर पर ब्रिटिश हितों की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध यह सरकार आंतरिक रूप से प्रगतिशाल और लोचदार दिखाई पड़ती है। सामंती ढाँचे में पल रही सामाजिक बुराइयों ने रियासत के लोगों को खोखला करके रख दिया। इन बुराइयों से छुटकारा पाने हेतु कई सरकारी और ग़ैर-सरकारी व्यक्तिगत और सामूहिक जतन किए जाते रहे। आर्य-समाज के क्रान्तिकारी सुधारों के संग-संग उस समय अनेक लोक हितकारी सुधार किए जा रहे थे। क़ानून बनाए जा रहे थे। विधवा-विवाह की अनुमति, कुओं-बावलियों और तमाम जल स्रोत्रों से दलित वर्गों को पानी भरने का अधिकार, सूदख़ोरी तथा अन्य अनेक सामाजिक बुराइयों पर रोक-ये सब क़दम इस बात की घोषणा कर रहे थे कि वक़्त बदल चुका है। अतीत की गलाज़तों का त्याग किए बिना अस्तित्व कठिन है।
डोगरा समाज में प्रचलित अनेकानेक रूढ़ियों के रहते ग़रीबी, पीड़ा और शोषण से छुटकारा संभव न था। पड़ोसी राज्य पंजाब में परिवर्तनकारी हवाएँ झूर रही थीं। अतएव, जम्मू-कश्मीर का प्रभावित होना स्वाभाविक था।
यह वह समयखंड है, जब उपनिवेशवादी शक्तियों के विरुद्ध सुरबद्ध आवाज़े भारतीय मानस की आस्था को व्यक्त कर रही थीं। समस्त भारतीय उपमहाद्वीप का जन-जन नए युग के संग अंगड़ाई लेने को मतवाला होने लगता है। धर्म और समाज के प्रतिनिधि सदियों की नींद से जाग उठे भारतीय समाज की कमज़ोरियों की ओर ध्यान देते हैं। फलत: कई आंदोलन चलते हैं। अशिक्षा, अछूतोद्धार, अंध-विश्वास और गले-सड़े रिवाजों की गलीज़ जकड़न से मुक्ति हेतु एक तड़प-सी उभरकर सामने आने लगी। इसे सुधारवाद का नाम मिला। राजनीतिक घटनाक्रम के दृष्टिगत सामाजिक परिवर्तन की गति अति तीव्र हो चली थी। उपनिवेशवादी शक्तियाँ अपने ज़ुल्म का शिकंजा कसती जा रही थीं। महात्मा गाँधी के अहिंसक स्वतंत्रता आंदोलन के संग-संग हथेली पर लिए सिर देश का गौरव लौटाने वाले सिरफ़िरे स्वतंत्रता सेनानी इस न्यायोचित मंज़िल को पाने के लिए आगे बढ़ते हैं। इतिहास के पटल पर नर्म दल के साथ-साथ गर्म दल भी कार्यरत है। अमृतसर पंजाब में जालियाँवाला बाग़ कांड ब्रिटिश उपनिवेशवाद की घिनौनी आकृति को नग्न कर डालता है। हर देशवासी के हृदय में आज़ादी का दीपक जलने लगता है।
जम्मू-कश्मीर राज्य में इस दौरान महाराजा हरिसिंह का प्रशासन था। बाहरी तौर पर ब्रिटिश हितों की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध यह सरकार आंतरिक रूप से प्रगतिशाल और लोचदार दिखाई पड़ती है। सामंती ढाँचे में पल रही सामाजिक बुराइयों ने रियासत के लोगों को खोखला करके रख दिया। इन बुराइयों से छुटकारा पाने हेतु कई सरकारी और ग़ैर-सरकारी व्यक्तिगत और सामूहिक जतन किए जाते रहे। आर्य-समाज के क्रान्तिकारी सुधारों के संग-संग उस समय अनेक लोक हितकारी सुधार किए जा रहे थे। क़ानून बनाए जा रहे थे। विधवा-विवाह की अनुमति, कुओं-बावलियों और तमाम जल स्रोत्रों से दलित वर्गों को पानी भरने का अधिकार, सूदख़ोरी तथा अन्य अनेक सामाजिक बुराइयों पर रोक-ये सब क़दम इस बात की घोषणा कर रहे थे कि वक़्त बदल चुका है। अतीत की गलाज़तों का त्याग किए बिना अस्तित्व कठिन है।
डोगरा समाज में प्रचलित अनेकानेक रूढ़ियों के रहते ग़रीबी, पीड़ा और शोषण से छुटकारा संभव न था। पड़ोसी राज्य पंजाब में परिवर्तनकारी हवाएँ झूर रही थीं। अतएव, जम्मू-कश्मीर का प्रभावित होना स्वाभाविक था।
डोगरी कविता में आधुनिकता के आरंभिक स्वर
तीसरे दशक के अंत में और चौथे दशक के आरंभ में जम्मू नगर का साहित्यिक वातावरण नए युग की हवाओं को स्वागतम कह रहा था। राष्ट्रीय भावना का बोलबाला था। डोगरी, हिन्दी, उर्दू एवं पंजाबी के कवियों का बाहुल्य था। अधिकांश की अभिव्यक्ति की परिव्याप्ति समकालीन मुद्दों को अपने में समोए हुए थी।
युग-परिवर्तन की ध्वनि के साथ-साथ पतन-शील मूल्यों के त्याग की ध्वनि उस आरंभिक आधुनिक साहित्य में स्पष्टतया अंकित हुई दिखाई पड़ती है। इस कारण से उस समयखंड को सुधारवादी दौर कहना उपयोगी है। इस प्रवृत्ति की कविता में यद्यपि रजवाड़ाशाही का विरोध नहीं हुआ, तथापि तत्कालीन कवियों द्वारा कविता को परिवर्तन की सूचना देनेवाले माध्यम के रूप में अपनाया गया। सुधारवादी दौर के तीन प्रमुख कवियों पं. संतराम शास्त्री, हरदत्त शर्मा और दीनूभाई पंत ने रजवाड़ाशाही का मुखर समर्थन ही किया है। यहाँ तक कि बाद में प्रगतिशीलता के मुख्य ध्वजवाहक बनने वाले दीनूभाई पंत ने भी तत्कालीन शासक महाराजा हरिसिंह की स्तुति अपने प्रथम काव्य संग्रह में की है।
वैचारिक दृष्टि से डोगरी कविता में आधुनिकता का बीजवपन पंडित संतराम शास्त्री की कविता से हुआ, जिन्होंने अपनी मिली-जुली कविताओं का संकलन 1931 ई. में लाहौर से प्रकाशित करवाया। अपने समय और समाज की स्पष्ट झलकियाँ, पं. संतराम शास्त्री तथा पं. हरदत्त शर्मा की कविताओं में निबद्ध पाई जाती हैं। विधवा विवाह का औचित्य सिद्ध करती संतराम शास्त्री की कविता हो अथवा उन्हीं की डोगरी समाज की कुरीतियों पर आधारित कविता- ‘करतूतां डोगरिया’ –जिसमें कवि का यह कथन कि घर-बार लुटाकर भी हम लोग इन रूढ़ियों का त्याग करने के लिए तैयार नहीं हैं। इस अड़ियल व्यवहार के विषय में वे ‘आद पुरुष ओंकार निरंजन’ शीर्षक कविता में आत्मज्ञान की श्रेष्ठता को परिभाषित करते हुए अंतत: कह उठते हैं :
युग-परिवर्तन की ध्वनि के साथ-साथ पतन-शील मूल्यों के त्याग की ध्वनि उस आरंभिक आधुनिक साहित्य में स्पष्टतया अंकित हुई दिखाई पड़ती है। इस कारण से उस समयखंड को सुधारवादी दौर कहना उपयोगी है। इस प्रवृत्ति की कविता में यद्यपि रजवाड़ाशाही का विरोध नहीं हुआ, तथापि तत्कालीन कवियों द्वारा कविता को परिवर्तन की सूचना देनेवाले माध्यम के रूप में अपनाया गया। सुधारवादी दौर के तीन प्रमुख कवियों पं. संतराम शास्त्री, हरदत्त शर्मा और दीनूभाई पंत ने रजवाड़ाशाही का मुखर समर्थन ही किया है। यहाँ तक कि बाद में प्रगतिशीलता के मुख्य ध्वजवाहक बनने वाले दीनूभाई पंत ने भी तत्कालीन शासक महाराजा हरिसिंह की स्तुति अपने प्रथम काव्य संग्रह में की है।
वैचारिक दृष्टि से डोगरी कविता में आधुनिकता का बीजवपन पंडित संतराम शास्त्री की कविता से हुआ, जिन्होंने अपनी मिली-जुली कविताओं का संकलन 1931 ई. में लाहौर से प्रकाशित करवाया। अपने समय और समाज की स्पष्ट झलकियाँ, पं. संतराम शास्त्री तथा पं. हरदत्त शर्मा की कविताओं में निबद्ध पाई जाती हैं। विधवा विवाह का औचित्य सिद्ध करती संतराम शास्त्री की कविता हो अथवा उन्हीं की डोगरी समाज की कुरीतियों पर आधारित कविता- ‘करतूतां डोगरिया’ –जिसमें कवि का यह कथन कि घर-बार लुटाकर भी हम लोग इन रूढ़ियों का त्याग करने के लिए तैयार नहीं हैं। इस अड़ियल व्यवहार के विषय में वे ‘आद पुरुष ओंकार निरंजन’ शीर्षक कविता में आत्मज्ञान की श्रेष्ठता को परिभाषित करते हुए अंतत: कह उठते हैं :
अस मूरख असें कुसै गी केह् आखना,
डुब्बी गेदे डुग्गरे दे डंगर भला।
डुब्बी गेदे डुग्गरे दे डंगर भला।
स्वयं को हताशा की स्थिति में पाकर यह कहना कि हम मूरख किसी को क्या कहें ? डुग्गर के अनपढ़ (डंगर) तो पूर्णतया अज्ञान के अँधेरे में डूबे हुए हैं।
आधुनिकता के उदय के साथ ही डोगरी कविता में लोक-साहित्य की परंपरा से परे हटने का आग्रह स्पष्ट होने लगता है। समकालीन स्थितियों अथवा युगबोध का परिलक्षण यहीं से दिखाई पड़ता है। जीवन के विभिन्न पहलुओं की आलोचना के विशद प्रयास आधुनिक साहित्य को उसकी अलग पहचान देते हैं। इसी गुण के रहते हरदत्त शर्मा की कविता डोगरी भाषी क्षेत्र में तेज़ी से प्रचारित हुई। घर-घर में इन्हें लोकगीतों की भाँति गाया जाने लगा। हरदत्त जम्मू के सुप्रसिद्ध कथावाचक तथा कवि थे। धार्मिक उपदेश के अतिरिक्त कई बार वे सामाजिक और राजनीतिक संदेश भी अपनी कविता द्वारा दिया करते थे। उनकी कविता में कहीं-कहीं अन्योक्ति अलंकार का बहुत सफल प्रयोग हुआ है। जीवन की नानाविध पक्षों पर उनकी मज़बूत पकड़ और प्रखर प्रतिक्रिया दिखाई पड़ती है। कविता में निहित संदेश तुरंत जन-मानस में पैठ जाता था। लोग चौपाल और चौराहों में पंडित जी की कविता में निहित अर्थों की चर्चा करते थे।
समकालीन विषयों पर हरदत्त की अपूर्व पकड़ के कारण रामकृष्ण शास्त्री ‘अव्यय’ इन्हें ‘नारद’ कहा करते थे। उनके कथनानुसार जैसे नारद मुनि बिना किसी रोक-रुकावट के हर जगह पहुँच जाते थे, उसी तरह हरदत्त भी अपनी कल्पना और लेखनी के समक्ष किसी प्रकार की विघ्न-बाधा को ठहरने नहीं देते थे। इतना ही नहीं, जम्मू में जहाँ कहीं जो कुछ घटित होता था, वे स्वयं वहाँ पहुँचकर स्थिति की समीक्षा करते और अगले रोज़ उस विषय को धार्मिक मिथकों की परिभाषा देकर अपना धर्मोपदेश देते तथा कविताएँ सुनाते।
समकालीन विषयों पर अनूठी पकड़ और तीक्ष्ण दृष्टि के रहते चौगिर्द की अफरा-तफरी, दोमुंहेपन, धूर्त व्यवहार और बेइमानी को वे झट भाँप लेते। अपने अनुभव और विचार वे रोज़ाना अपने हज़ारों श्रोताओं के समक्ष किसी पुराण कथा के संदर्भ से जोड़कर सुना देते। नारद मुनि की भाँति दबंग, निडर और बेबाक इस आशु कवि को रामनवमी उत्सव के लड्डुओं की टिकट न मिली तो अपनी जाँच-पड़ताल के उपरांत अगली प्रात: इन्होंने चौक-चबूतरा नामक स्थान पर अपनी कथा-वार्ता में जो कविता गाकर सुनाई, उसके बोल थे-
आधुनिकता के उदय के साथ ही डोगरी कविता में लोक-साहित्य की परंपरा से परे हटने का आग्रह स्पष्ट होने लगता है। समकालीन स्थितियों अथवा युगबोध का परिलक्षण यहीं से दिखाई पड़ता है। जीवन के विभिन्न पहलुओं की आलोचना के विशद प्रयास आधुनिक साहित्य को उसकी अलग पहचान देते हैं। इसी गुण के रहते हरदत्त शर्मा की कविता डोगरी भाषी क्षेत्र में तेज़ी से प्रचारित हुई। घर-घर में इन्हें लोकगीतों की भाँति गाया जाने लगा। हरदत्त जम्मू के सुप्रसिद्ध कथावाचक तथा कवि थे। धार्मिक उपदेश के अतिरिक्त कई बार वे सामाजिक और राजनीतिक संदेश भी अपनी कविता द्वारा दिया करते थे। उनकी कविता में कहीं-कहीं अन्योक्ति अलंकार का बहुत सफल प्रयोग हुआ है। जीवन की नानाविध पक्षों पर उनकी मज़बूत पकड़ और प्रखर प्रतिक्रिया दिखाई पड़ती है। कविता में निहित संदेश तुरंत जन-मानस में पैठ जाता था। लोग चौपाल और चौराहों में पंडित जी की कविता में निहित अर्थों की चर्चा करते थे।
समकालीन विषयों पर हरदत्त की अपूर्व पकड़ के कारण रामकृष्ण शास्त्री ‘अव्यय’ इन्हें ‘नारद’ कहा करते थे। उनके कथनानुसार जैसे नारद मुनि बिना किसी रोक-रुकावट के हर जगह पहुँच जाते थे, उसी तरह हरदत्त भी अपनी कल्पना और लेखनी के समक्ष किसी प्रकार की विघ्न-बाधा को ठहरने नहीं देते थे। इतना ही नहीं, जम्मू में जहाँ कहीं जो कुछ घटित होता था, वे स्वयं वहाँ पहुँचकर स्थिति की समीक्षा करते और अगले रोज़ उस विषय को धार्मिक मिथकों की परिभाषा देकर अपना धर्मोपदेश देते तथा कविताएँ सुनाते।
समकालीन विषयों पर अनूठी पकड़ और तीक्ष्ण दृष्टि के रहते चौगिर्द की अफरा-तफरी, दोमुंहेपन, धूर्त व्यवहार और बेइमानी को वे झट भाँप लेते। अपने अनुभव और विचार वे रोज़ाना अपने हज़ारों श्रोताओं के समक्ष किसी पुराण कथा के संदर्भ से जोड़कर सुना देते। नारद मुनि की भाँति दबंग, निडर और बेबाक इस आशु कवि को रामनवमी उत्सव के लड्डुओं की टिकट न मिली तो अपनी जाँच-पड़ताल के उपरांत अगली प्रात: इन्होंने चौक-चबूतरा नामक स्थान पर अपनी कथा-वार्ता में जो कविता गाकर सुनाई, उसके बोल थे-
राम नौमी देआ लड्डुआं,
कीता ई खज्जल खुआर।
म्हातड़ें गी इक टिकट नेईं,
मालतू गी टिकरां चार।
कीता ई खज्जल खुआर।
म्हातड़ें गी इक टिकट नेईं,
मालतू गी टिकरां चार।
जम्मू के श्री रघुनाथ मंदिर में यह परंपरा थी कि रामनवमी के शुभ पर्व के उपलक्ष्य में जम्मू नगर के निवासियों में प्रति घर के हिसाब से एक टिकट दी जाती थी, जिसे दिखाने पर रामनवमी के दिन मंदिर से एक लड्डू मिलता था। यह लड्डू आधा सेर का होता था। इसके अतिरिक्त जम्मू के चुनिंदा अधिकारियों और गणमान्य नागरिकों के घरों में आधा सेर के इन्हीं लड्डुओं की एक-एक टोकरी भेजी जाती-जिसमें ग्यारह लड्डू हुआ करते थे। महाराज प्रताप सिंह के दौर तक यह आधा सेर का लड्डू होता था, जबकि महाराज हरिसिंह के समय में इसे पाव भर का कर दिया गया। आज़ादी के बाद यह लड्डू मात्र आधा पाव रह गया। किन्तु, अपने लिए एक भी टिकट न आने पर कवित हरदत्त ने अपनी कविता द्वारा टिकट वितरण की व्यवस्था पर जो प्रहार किया, उसकी धूम पूरे नगर में मच गई। न यह कि एतद् द्वारा मालतू नामक मालिन से एक किसी पुजारी के संबंधों से एक कविता में पर्दा उठाया गया था प्रत्युत् धर्म के ठेकेदारों को भी फटकार दी गई थी।1
मालतू को चार टिकटें मिलना वस्तुत: व्यवस्था के पीछे ख़राबी को चिह्नित करने के ध्येय को दर्शाता है। इससे जम्मू की धर्मप्राण जनता को एक तीखी सच्चाई का ही पता नहीं चला, बल्कि धार्मिक त्यौहार की आड़ में पल रही बदनीयत का भी पता चला। इनका यह भी प्रभाव हुआ कि मंदिर का एक कर्मचारी सायंकाल मोतीचूर के लड्डुओं की एक टोकरी लेकर कवि महोदय के घर उपस्थित हुआ। कवि ने ऐंठ पर टिके रहकर कहा-यदि वे सोचते हैं इस उपहार द्वारा मेरी क़लम और वाणी ख़रीद रहे हैं तो उसे उठाकर ले जाओ। कह दो कि मुझे यह ख़रीद-ओ-फरोख़्त मंज़ूर नहीं है।
इसी राह पर चलते हुए उन्होंने दोगले व्यवहार से पर्दा हटाना बंद न किया। उस दौर में सन् 1940 ई. से पूर्व इसी मंदिर के गर्भगृह में चरणामृत की दो चौकियाँ थीं। यदि कोई बढ़िया प्रसाद और भेटादि चढ़ाता तो उसे विशेष बनाया गया मीठा चरणामृत दिया जाता, जबकि केवल माथा टेकनेवाले या मात्र छोटा सिक्का चढ़ाने वाले को फीका चरणोदक दिया जाता। इस विडंबना को हरदत्त ने अपनी कविता में यों बाँधा-
मालतू को चार टिकटें मिलना वस्तुत: व्यवस्था के पीछे ख़राबी को चिह्नित करने के ध्येय को दर्शाता है। इससे जम्मू की धर्मप्राण जनता को एक तीखी सच्चाई का ही पता नहीं चला, बल्कि धार्मिक त्यौहार की आड़ में पल रही बदनीयत का भी पता चला। इनका यह भी प्रभाव हुआ कि मंदिर का एक कर्मचारी सायंकाल मोतीचूर के लड्डुओं की एक टोकरी लेकर कवि महोदय के घर उपस्थित हुआ। कवि ने ऐंठ पर टिके रहकर कहा-यदि वे सोचते हैं इस उपहार द्वारा मेरी क़लम और वाणी ख़रीद रहे हैं तो उसे उठाकर ले जाओ। कह दो कि मुझे यह ख़रीद-ओ-फरोख़्त मंज़ूर नहीं है।
इसी राह पर चलते हुए उन्होंने दोगले व्यवहार से पर्दा हटाना बंद न किया। उस दौर में सन् 1940 ई. से पूर्व इसी मंदिर के गर्भगृह में चरणामृत की दो चौकियाँ थीं। यदि कोई बढ़िया प्रसाद और भेटादि चढ़ाता तो उसे विशेष बनाया गया मीठा चरणामृत दिया जाता, जबकि केवल माथा टेकनेवाले या मात्र छोटा सिक्का चढ़ाने वाले को फीका चरणोदक दिया जाता। इस विडंबना को हरदत्त ने अपनी कविता में यों बाँधा-
अड़ेओ ! ठागर नी करन लगे निं बपार,
अंदर चरणामत मिट्ठा ते फिक्का दिंदे बाह्र।
अंदर चरणामत मिट्ठा ते फिक्का दिंदे बाह्र।
इसका नतीजा यह निकला कि हिन्दू आस्था के इस प्रसिद्ध केन्द्र में सबके लिए एक जैसा चरणोदक मिलने लगा। कवि का तात्पर्य था सत्य को प्रकट करके सुधार करना। वे कविता को समाज की आलोचना का माध्यम बनाकर उसका सफल प्रयोग करते हैं।
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1. ‘‘ऐह्लकारें घरें डालियां,
म्हातड़ें गी पौंदे धिक्के चार।
आपूं जंदे न्हरिए बत्तें,
जेहड़े धर्मे दे ठेकेदार।
राम नौमी देआं लड्डुआ...।’’
लोगों की जिह्वाओं पर सहज ही चढ़ जानेवाली इन कविताओं की सामूहिक सिद्धि (MASS APPEAL) से इनकार नहीं किया जा सकता। सामाजिक एवं धार्मिक परिदृश्य की दर्पणवत पुनरावृत्ति करके कवि डोगरा समाज के पतनशील मूल्यों की ओर इंगित करता है। दो भजन मालाओं में प्रकाशित कविताओं में प्राय: यही दृष्टिकोण उद्भासित होता है। आधुनिकता के उपकरणों का प्रयोग करते हुए हरदत्त शर्मा अपने समय और समाज की दशा और दिशा का दिग्दर्शन कराने के अतिरिक्त आधुनिकता की आड़ में आ रहे पाश्चात्य सभ्यता के झंझावात का प्रबल विरोध करते हैं। भारतीय जीवन मूल्यों की अवमानना उन्हें स्वीकार्य नहीं है।
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1. ‘‘ऐह्लकारें घरें डालियां,
म्हातड़ें गी पौंदे धिक्के चार।
आपूं जंदे न्हरिए बत्तें,
जेहड़े धर्मे दे ठेकेदार।
राम नौमी देआं लड्डुआ...।’’
लोगों की जिह्वाओं पर सहज ही चढ़ जानेवाली इन कविताओं की सामूहिक सिद्धि (MASS APPEAL) से इनकार नहीं किया जा सकता। सामाजिक एवं धार्मिक परिदृश्य की दर्पणवत पुनरावृत्ति करके कवि डोगरा समाज के पतनशील मूल्यों की ओर इंगित करता है। दो भजन मालाओं में प्रकाशित कविताओं में प्राय: यही दृष्टिकोण उद्भासित होता है। आधुनिकता के उपकरणों का प्रयोग करते हुए हरदत्त शर्मा अपने समय और समाज की दशा और दिशा का दिग्दर्शन कराने के अतिरिक्त आधुनिकता की आड़ में आ रहे पाश्चात्य सभ्यता के झंझावात का प्रबल विरोध करते हैं। भारतीय जीवन मूल्यों की अवमानना उन्हें स्वीकार्य नहीं है।
रचनात्मक साहित्य के मील पत्थर
जीवन के विभिन्न पक्षों के चित्रांकन को आधार बनाकर आधुनिकता की आधार भूमि पर रचित कविताओं में सामंती एवं लोक-काव्य के प्रतीकों, उपमाओं तथा बिम्बों का आश्रय देकर कवियों ने नए युग के विरोधाभासों को समुचित रूप से उभारा है। आधुनिक धारा सन् 1943 ई. में एकाएक नया मोड़ लेकर वैचारिक दृष्टि से नया बाना धारण कर लेती। इस समय साहित्यिक-सांस्कृतिक मंच ‘डोगरी संस्था जम्मू’ की स्थापना एक ऐतिहासिक घटना सिद्ध होती है। निर्मित के कई दशकों तक इस मंच ने साहित्य के विकास हेतु जमकर काम किया है। इस आंदोलन के दो प्रमुख नाम दीनूभाई पंत और प्रो. रामनाथ शास्त्री साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित थे। यही कारण है कि कुछ लोग इनके द्वारा स्थापित संस्था को ‘कम्यूनिस्ट डोगरी संस्था’ भी कह देते हैं। किन्तु, आज छह दशकों के उपरांत पीछे मुड़कर देखने पर जो वस्तुस्थिति दिखाई पड़ती है- उसके संदर्भ में कहा जा सकता है कि गले-सड़े कल, गलीज़ परंपराओं और सामंती मानसिकता की जीर्ण-शीर्ण रूढ़ियों का समर्थन न करने के कारण ही इसे साम्यवादी मंच माना जाता रहा। किन्तु यह एक तथ्य है कि भिन्न वैचारिकता के साहित्यकारों एवं कवियों को भी अपनी बात रखने का जनतांत्रिक अधिकार उस दौर में इस मंच पर मिलता रहा। यही कारण है कि यश शर्मा और केहरि सिंह ‘मधुकर’ जैसे रोमानी कवि भी प्रगतिशीलता के झंडे तले साहित्याकाश में नाम कमाते रहे। इसी भाँति व्यक्तिगत रूप से साम्यवाद और क्रान्ति का समर्थक होते हुए भी वेदपाल ‘दीप’ मुख्यत: ‘छायाभासवादी’ कविताएँ रचते थे।
इसके बावजूद यह एक तथ्य है कि डोगरी साहित्य के रचनात्मक आंदोलन में प्रगतिशील विचारधारा सर्वोपरि थी। सामंती मानसिकता जो डोगरा जन-मानस पर सदियों से अमिट छाप लेकर चल रही थी- उसका निषेध एक साहित्योद्देश्य की भाँति मान्य था। सन् 1945 ई. में रचित कविता ‘चापलूस जिंदड़ी’ (शुकदेव शास्त्री) इसी प्रकार का सफल प्रयास थी। शासक लोग सदा चापलूसों से घिरे रहते हैं। इसी कारण उनके निकट वे लोग नहीं आ पाते जो कड़वी सच्चाई राजा के समक्ष रख पाते। राजा लोग भी चापलूसी के इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि ठकुरसुहाती के अतिरिक्त उन्हें हर कथन कर्णकटु प्रतीत होता है। चापलूसी की इसी कमजोरी पर केन्द्रित इस कविता में शुकदेव शास्त्री ने इस प्रसंग को व्यंग्य दृष्टि से उभारा है।
एक बार राजा ने बैंगन की तरकारी खाई। उसे बैंगन बेहद स्वादिष्ट लगे तो उसने भरे दरबार में बैंगनों की प्रशंसा कर दी। हाँ में हाँ मिलानेवाले मंत्री और दीवान बोल उठे-आप ने सत्य कहा सरकार। बैंगन तमाम सब्जियों में श्रेष्ठ होते हैं। इनके क्या-क्या गुण गिनाएँ। यह क्या कम है कि इनका रंग कृष्ण मुरारी की तरह श्याम है। पकाने के लिए तेल की छौंक भी कम लगती है। इतना ही नहीं, जल्दी गल जाने के कारण ईंधन की भी बचत होती है। एक नहीं इनमें अनेक गुण हैं। इस विरुदावली के कारण राजा बैंगन की तरकारी पर रीझ उठा। तब उसे भोजन में अनेक बैंगन खा लिए। इससे उसे बेहद सिरदर्द होने लगा वैद्यों ने बहुत उपचार किए किन्तु आराम न आया। आठ पहर बीतने पर वह स्वत: ठीक हो गया। इससे वह जान गया कि बैंगनों ने मुझे गर्मी कर दी थी- जिससे मुझे असीम पीड़ा सहनी पड़ी। उसने आदेश दिया कि आगे से राजसी पाकशाला में कोई बैंगन की तरकारी नहीं बनाएगा। तब राज दरबार लगने पर राजा ने अपना नवीनतम अनुभव सभासदों के समक्ष रखा और कहा, ‘‘हाँ सरकार, गलने पर इनका आकार भी कितना भद्दा हो जाता है। इनका रंग तो भैंस के कटड़े की तरह काला होता है। ऊपर से इनकी तासीर, इतनी गर्म कि राम बचाए!’’
अबकी बार उनके बदले हुए बयान देखकर चकित राजा ने पूछा, ‘‘आप सब कल ही तो इनकी सराहना कर रहे थे और आज इतनी निन्दा। ऐसा व्यवहार करते हुए आपको लज्जा नहीं आती।’’ एकाएक तमाम चापलूस बोल उठे- ‘‘सरकार हमारा बैंगनों से कोई सरोकार नहीं है। हमें तो आपकी चापलूसी से मतलब है। बैंगन चाहे अच्छे हों या बुरे, किन्तु जी-हजूरी बुरी नहीं होती। हमें तो आपकी हाँ में हाँ मिलाकर चार दिन काटने हैं।’’
वस्तुत: जम्मू-कश्मीर के जन जीवन में कई सदियों के सामंतवादी प्रशासन के कारण चापलूसी राजनिष्ठा का अंग बन चुकी थी। इसलिए इस मानवीय कमज़ोरी पर व्यंग्यात्मक कविता रचकर शुकदेव शास्त्री ने विषय चयन की दृष्टि से युगीन, किन्तु, प्रासंगिकता की दृष्टि से आधुनिकतावाद की पैरवी की है। कहा जाता है कि यह विषय-प्रसंग शुकदेव शास्त्री का स्वानुभूत था।
इसके बावजूद यह एक तथ्य है कि डोगरी साहित्य के रचनात्मक आंदोलन में प्रगतिशील विचारधारा सर्वोपरि थी। सामंती मानसिकता जो डोगरा जन-मानस पर सदियों से अमिट छाप लेकर चल रही थी- उसका निषेध एक साहित्योद्देश्य की भाँति मान्य था। सन् 1945 ई. में रचित कविता ‘चापलूस जिंदड़ी’ (शुकदेव शास्त्री) इसी प्रकार का सफल प्रयास थी। शासक लोग सदा चापलूसों से घिरे रहते हैं। इसी कारण उनके निकट वे लोग नहीं आ पाते जो कड़वी सच्चाई राजा के समक्ष रख पाते। राजा लोग भी चापलूसी के इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि ठकुरसुहाती के अतिरिक्त उन्हें हर कथन कर्णकटु प्रतीत होता है। चापलूसी की इसी कमजोरी पर केन्द्रित इस कविता में शुकदेव शास्त्री ने इस प्रसंग को व्यंग्य दृष्टि से उभारा है।
एक बार राजा ने बैंगन की तरकारी खाई। उसे बैंगन बेहद स्वादिष्ट लगे तो उसने भरे दरबार में बैंगनों की प्रशंसा कर दी। हाँ में हाँ मिलानेवाले मंत्री और दीवान बोल उठे-आप ने सत्य कहा सरकार। बैंगन तमाम सब्जियों में श्रेष्ठ होते हैं। इनके क्या-क्या गुण गिनाएँ। यह क्या कम है कि इनका रंग कृष्ण मुरारी की तरह श्याम है। पकाने के लिए तेल की छौंक भी कम लगती है। इतना ही नहीं, जल्दी गल जाने के कारण ईंधन की भी बचत होती है। एक नहीं इनमें अनेक गुण हैं। इस विरुदावली के कारण राजा बैंगन की तरकारी पर रीझ उठा। तब उसे भोजन में अनेक बैंगन खा लिए। इससे उसे बेहद सिरदर्द होने लगा वैद्यों ने बहुत उपचार किए किन्तु आराम न आया। आठ पहर बीतने पर वह स्वत: ठीक हो गया। इससे वह जान गया कि बैंगनों ने मुझे गर्मी कर दी थी- जिससे मुझे असीम पीड़ा सहनी पड़ी। उसने आदेश दिया कि आगे से राजसी पाकशाला में कोई बैंगन की तरकारी नहीं बनाएगा। तब राज दरबार लगने पर राजा ने अपना नवीनतम अनुभव सभासदों के समक्ष रखा और कहा, ‘‘हाँ सरकार, गलने पर इनका आकार भी कितना भद्दा हो जाता है। इनका रंग तो भैंस के कटड़े की तरह काला होता है। ऊपर से इनकी तासीर, इतनी गर्म कि राम बचाए!’’
अबकी बार उनके बदले हुए बयान देखकर चकित राजा ने पूछा, ‘‘आप सब कल ही तो इनकी सराहना कर रहे थे और आज इतनी निन्दा। ऐसा व्यवहार करते हुए आपको लज्जा नहीं आती।’’ एकाएक तमाम चापलूस बोल उठे- ‘‘सरकार हमारा बैंगनों से कोई सरोकार नहीं है। हमें तो आपकी चापलूसी से मतलब है। बैंगन चाहे अच्छे हों या बुरे, किन्तु जी-हजूरी बुरी नहीं होती। हमें तो आपकी हाँ में हाँ मिलाकर चार दिन काटने हैं।’’
वस्तुत: जम्मू-कश्मीर के जन जीवन में कई सदियों के सामंतवादी प्रशासन के कारण चापलूसी राजनिष्ठा का अंग बन चुकी थी। इसलिए इस मानवीय कमज़ोरी पर व्यंग्यात्मक कविता रचकर शुकदेव शास्त्री ने विषय चयन की दृष्टि से युगीन, किन्तु, प्रासंगिकता की दृष्टि से आधुनिकतावाद की पैरवी की है। कहा जाता है कि यह विषय-प्रसंग शुकदेव शास्त्री का स्वानुभूत था।
राष्ट्रप्रेम की अजस्र धारा
देश की स्वतंत्रता के साथ ही रियासत जम्मू-कश्मीर की सीमाओं पर झगड़ालू पड़ोसी खटखट करने लगा। 1948 ई. में कबायली लोगों को साथ लेकर पाकिस्तानी सेना ने राज्य पर आक्रमण कर दिया। ऐसे समय में डोगरी कवियों ने राष्ट्रीय कर्तव्य को पहचाना और राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत कविताएँ रचीं। कबायलियों के आक्रमण के विषय में बख़्शी बलवंतराय ने बतलाया कि असूज मास में ‘उड़ी’ क्षेत्र की ओर हलचल मच गई। इस बात से सनसनी फैल गई कि कश्मीर घाटी पर कब्ज़ा करने हेतु हज़ारों पठान घुस आए हैं।1 जम्मू की सीमा का अतिक्रमण करके यह ज़ालिम लोग क़त्लो-ग़ारत मचाने लगे।
सीमांत पर स्थित गाँवों से लाखों लोग पलायन के लिए विवश होने लगे। ऐसी विकट स्थिति में जम्मू के अजायबघर में राज्य सरकार की ओर से एक आपातकालीन सम्मेलन रखा गया, जिसे सरदार पटेल ने संबोधित किया। उन्होंने कहा-
1. आप मौत के डर से घर-बार छोड़कर जा रहे हैं। रास्ते में भागते हुए मरने से बेहतर है, घर में अपनी रक्षा करते हुए मरें और शत्रु को मारें।
2. आप केवल अपना-आप लेकर विस्थापित होने जा रहे हैं। आपके घर-बार यहीं रह जाएँगे। आगे आपकी देखभाल कौन करेगा ?
3. आपके पलायन से पाकिस्तान का रास्ता साफ़ हो जाएगा। उसे यहाँ कब्ज़ा जमाने में ज़रा अड़चन न आएगी।
4. यही बातें मैंने शेख़ (तत्कालीन वज़ीरे-आज़म रियासत जम्मू-कश्मीर) साहब से कही हैं। हमने सेना यहाँ बुलाई है। आप अपने घरों को लौट जाएँ। शांति स्थापना में सरकार से सहयोग करें।
राष्ट्रीय आपदा की इस घड़ी में कवियों ने जगह-जगह सम्मेलन करके सरदार पटेल के इस संदेश को जन-मानस के समक्ष रखा। 2
--------------------------------------------------------------------------------
1.अस्सू म्हीनै उड़ी बल्ल, पेई गेई हल्ल-चल्ल।
जित्थै दिक्खों इयै गल्ल, ज्हारां पठान गे आई।
भली लग्गी ऐ लड़ाई।। -बख़्शी बलवंत राय
2.जेहके लोक नस्सन लगे, उनेंगी-उनेंगी होने केह् मग्घे।
कोह्की बेबू बैठी अग्गे, जेह् की परोंठे देग पकाई।
भली लग्गी ऐ लड़ाई।।
सीमांत पर स्थित गाँवों से लाखों लोग पलायन के लिए विवश होने लगे। ऐसी विकट स्थिति में जम्मू के अजायबघर में राज्य सरकार की ओर से एक आपातकालीन सम्मेलन रखा गया, जिसे सरदार पटेल ने संबोधित किया। उन्होंने कहा-
1. आप मौत के डर से घर-बार छोड़कर जा रहे हैं। रास्ते में भागते हुए मरने से बेहतर है, घर में अपनी रक्षा करते हुए मरें और शत्रु को मारें।
2. आप केवल अपना-आप लेकर विस्थापित होने जा रहे हैं। आपके घर-बार यहीं रह जाएँगे। आगे आपकी देखभाल कौन करेगा ?
3. आपके पलायन से पाकिस्तान का रास्ता साफ़ हो जाएगा। उसे यहाँ कब्ज़ा जमाने में ज़रा अड़चन न आएगी।
4. यही बातें मैंने शेख़ (तत्कालीन वज़ीरे-आज़म रियासत जम्मू-कश्मीर) साहब से कही हैं। हमने सेना यहाँ बुलाई है। आप अपने घरों को लौट जाएँ। शांति स्थापना में सरकार से सहयोग करें।
राष्ट्रीय आपदा की इस घड़ी में कवियों ने जगह-जगह सम्मेलन करके सरदार पटेल के इस संदेश को जन-मानस के समक्ष रखा। 2
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1.अस्सू म्हीनै उड़ी बल्ल, पेई गेई हल्ल-चल्ल।
जित्थै दिक्खों इयै गल्ल, ज्हारां पठान गे आई।
भली लग्गी ऐ लड़ाई।। -बख़्शी बलवंत राय
2.जेहके लोक नस्सन लगे, उनेंगी-उनेंगी होने केह् मग्घे।
कोह्की बेबू बैठी अग्गे, जेह् की परोंठे देग पकाई।
भली लग्गी ऐ लड़ाई।।
-बख़शी बलवंतराय
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